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                  सप्ताह 
                  
                  का 
                  
                  विचार- वह-सभा-नहीं-जहाँ-वृद्ध-न-हों,-वे-वृद्ध 
					नहीं-जो-धर्म-का-उपदेश-न-दें,-वह-धर्म 
					नहीं जिसमें सत्य न-हो-और-वह-सत्य-नहीं-जो-छल-युक्त-हो। 
					-महाभारत |  |  
                
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                   अनुभूति 
					में- शलभ श्रीराम सिंह, गौतम सचदेव, नंद भारद्वाज, डा. हरदीप संधु और 
					सत्येश भंडारी की रचनाएँ।
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                    इस सप्ताहसमकालीन कहानियों में भारत से
 मथुरा कलौनी की कहानी
					सब 
					कुछ ठीक ठाक है
 
                    
					 
                    एक जमाना था जब हम जवाँ थे, एक जमाना यह है जब कहना पड़ रहा है 
					कि हम अब भी जवाँ हैं। फर्क इतना है कि तब दिल से सोचते थे और 
					अब थोड़ा बहुत दिमाग से भी सोच लेते हैं। प्यार तब भी 
					अपरिभाषित था और आज भी अपरिभाषित ही है। इसमें दिमागी सोच कम 
					ही काम करती है। 
					ग़ालिब कह गये हैं - 'यह आग का दरिया है..'
 सामरसेट माम कह गये हैं - 'प्यार के मामले में तटस्थ मत रहो..'
 प्यार के इस पहलू पर लिखी गई यह कहानी काल्पनिक हैं पर कपोल 
					काल्पनिक नहीं। - 
					अवकाश प्राप्त करने के बाद पिताजी गाँव चंदनी में बस गये हैं। 
					बीस बीघा जमीन है। जमीन के बीचोबीच आरामदेह और सुरुचिपूर्ण 
					मकान बनाया है। दाहिने और बाएँ पड़ोस में उनके मित्र बसे हुए 
					हैं। यारदोस्त अच्छे हें। पेन्शन है। बैंक में अच्छा बैलेन्स 
					है। मतलब पिताजी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं,... 
		
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                    अलका पाठक का व्यंग्यशिखर वार्ता
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                    गोपीचंद श्रीनागर का आलेखडाकटिकट हस्ताक्षर वाले
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                    गुरमीत बेदी की वैज्ञानिक पड़तालहवा हो जाएँगी चिड़ियाँ
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      अर्बुदा ओहरी के साथ करेंसुबह के नाश्ते को सलाम
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      पिछले सप्ताह 
                    अमिताभ ठाकुर का व्यंग्यउसका पसंदीदा देश
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                    सुषम बेदी का आलेखअमेरिका में 
					हिंदी: एक सिंहावलोकन
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                    बलराम अग्रवाल से जितेन्द्र जीतूकी बातचीत- 
					समझ लघुकथा की
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      पर्यटक के साथ देखेंऐतिहासिक इमारतों में 
		बसा एडिनबर्ग
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                    समकालीन कहानियों में भारत सेसुरेखा ठक्कर की कहानी
					परिचय
 
        
					 
        काफी देर तक 
					मैं डायरेक्टरी में उर्मि जैन का नम्बर ढूँढती रही।
		उनसे कल का अपॉइन्टमेंट लेना था और शाम को ही वह साक्षात्कार 
					लिखकर तैयार रखना था। इतनी बड़ी सामाजिक कार्यकर्ता का नम्बर 
					डायरेक्टरी में नहीं है ? मैंने अपनी याददाश्त पर ज़ोर डाला। 
					उन्होंने ५६०७३ नम्बर कहा था या ५६७०३ कहा था?
		उस दिन डायरी साथ न ले गई, सो नम्बर कहीं लिखा नहीं था। खैर, 
					डायरेक्टरी लौटाकर मैं टेलीफोन बूथ की ओर मुड़ी। पर्स से 
					सिक्का निकाला और ५६०७३ नम्बर घुमाया। हलो की आवाज़ आते ही 
					मैंने सिक्का घेरे में डाल दिया,
 ‘‘क्या में उर्मिजी से बात कर 
					सकती हूँ ?’’
 ‘‘जी हाँ, आप उन्हीं से बात कर रही हैं!’’
 चलो सही नम्बर लगा - ‘‘उर्मिजी हमारी पत्रिका ‘अक्षर’ के लिए 
					मैं आपसे भेंट करना चाहती हूँ। मैं... स्नेहा गुप्ता। ...
		 
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