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१७. २. २०१४

इस सप्ताह-

अनुभूति में-
ब्रजनाथ श्रीवास्तव, आशीष नैथानी सलिल, अरविन्द कुमार, मेघ सिंह मेघ और अशोक चक्रधर की रचनाएँ।

कलम गही नहिं हाथ-

शारजाह-आजकल-रोशनी-में-नहा-रहा है। सड़कें और पार्क तो सजाए ही गए हैं, शहर के नौ आलीशान भवनों पर प्रकाश और संगीत का एक-विशेष-खेल-...आगे पढ़ें

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है- शिवरात्रि का तैयारी में फलाहार के लिये विशेष रुप से बनाया गया शकरकंद का हलवा

आज के दिन (१७ फरवरी को) १६७० में शिवाजी ने सिंहगढ़ किले को जीता, १९१५ में गांधी जी ने पहली बार शांतिनिकेतन का दौरा किया, ...

हास परिहास के अंतर्गत- कुछ नये और कुछ पुराने चुटकुलों की मजेदार जुगलबंदी का आनंद...

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला- ३२  विषय- 'शादी उत्सव गाजा बाजा' में रचनाओं का प्रकाशन प्रारंभ हो गया है। टिप्पणी के लिये देखें- विस्तार से...

लोकप्रिय उपन्यास (धारावाहिक)- के अंतर्गत प्रस्तुत है २००३ में प्रकाशित रवीन्द्र कालिया के उपन्यास— 'एबीसीडी' का सातवाँ और अंतिम भाग

वर्ग पहेली-१७३
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि-आशीष के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य एवं संस्कृति में-

समकालीन कहानियों में यू.के. से
उषा राजे की कहानी- चाइनीज कालर हरे बुंदे

हवा में नमी थी। रात बारिश होती रही शायद इसलिए उसे गहरी नींद आई। आँख खुली तो दीवार पर लगी घड़ी को अधखुली आँखों से देखा। सुबह के छः बजे थे। समीर अभी तक उठा नहीं! सब ठीक तो है न! तकिए में मुँह गड़ाए, वह चुपचाप लेटी सोचती रही फिर उसने बायाँ हाथ बढ़ाकर समीर के देह को टटोला। हाँ..आँ.. शायद उठ गया। कमाल! अभी तक उसने आवाज़ नहीं लगाई। हो क्या गया है आज इस समीर को? यूँ तो रोज़ उसे झिंझोड़ते हुए अब तक कई आवाज़ें लगा चुका होता, ‘उठ कितना सोएगी? छः बज चुके हैं, आज चाय नहीं मिलेगी क्या?’
फिर याद आया, अरे हाँ, कल तो वह ऑफिस से सीधे ऑडिट के लिए मैनचेस्टर रवाना हो गया था। नींद की अलस में उसे याद ही नहीं रहा। अब जल्दी क्या है सो जा, उसने खुद से कहा। ऐसा सुखद दिन पिछले कई वर्षों में पहली बार मिला है। समीर की नींद तो ठीक साढ़े पाँच बजे ‘डॉट ऑन’ खुल जाती है, फिर क्या मजाल वह उसे सोने दे। अपनी टर्र-टर्र टेपरिकार्डर की तरह तब तक लगाए रखता है जब तक... आगे-

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गिरीश पंकज का व्यंग्य
 संकट और संगीत
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डॉ. नरेन्द्र प्रताप सिंह से प्रकृति में-
मूवाँ पक्षी यानि उल्लू
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व्यक्तित्व में अवध बिहारी का आलेख
रचनाधर्मिता के बृहस्पति- रामनरेश त्रिपाठी

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पुनर्पाठ में- कला और कलाकार
के अंतर्गत- सैयद हैदर रजा

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पिछले सप्ताह-


रतनचंद जैन की लघुकथा
 मुक्तिदेव
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डॉ. विनय का आलेख
कालचक्र का देवता और उसका संसार
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डॉ. अशोक उदयवाल का आलेख
मनभावन मूँगफली

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पुनर्पाठ में- प्रकृति अंतर्गत
महेन्द्र रंधावा का आलेख- ऋतुओं की झाँकी

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साहित्य संगम में प्रस्तुत है जयंती पापाराव की तेलुगु कहानी का रूपांतर रंगम पेटी

दादाजी का कर्मकांड समाप्त हुआ। कर्मकांड की समाप्ति के बाद रंगून की पेटी सबकी आँखो के सम्मुख चम-चम चमकती हुई, कलात्मक रूप से विराजमान थी। मन में अतीव उत्सुकता के बावजूद हर कोई उस पेटी के बारे में, मुँह खोलने से सकुचा रहा था। दादाजी के बारे में बारे में बातचीत करते हुए, सभी लोगों की दृष्टि बार-बार उस पेटी पर जा टिकती थी। मेरे पिता सबके चेहरों का सूक्ष्मता से अध्ययन कर रहे थे। फिर कुछ देर निहार कर, अपने छोटे भाई की ओर उन्मुख हुए- भाई! उस रंगम पेटी को खोलो। उन्होने चाबी का गुच्छा चाचाजी की ओर बढ़ा दिया। मेघों से आच्छादित आकाश में जिस तरह चन्द्रमा झाँक उठता है उसी तरह सबके चेहरे प्रसन्नता से दमक उठे थे। दादाजी के एक मित्र ‘रंगून साहब’ ने उस पेटी को हमें सौंपा था। वे हमारे ही गाँव के रहने वाले थे। बर्मा में खूब पैसा मिलता था। यह कहकर, उनके रिश्तेदार उसे अपने साथ रंगून ले गए थे। उनका शरीर बलिष्ट था अत: बडे आराम से उन्हें आरा मशीन में काम... आगे-

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी -|- मीनाक्षी धन्वंतरि
 

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