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५. ५. २०१४

इस सप्ताह-

अनुभूति में-
शंभु शरण मंडल, भावना, करुणेश किशन, कल्पना रामानी तथा कंचन मेहता की रचनाएँ।

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है- गर्मियों के मौसम में फलों का ताजापन समेटे कुछ ठंडे मीठे व्यंजनों के क्रम में- फलों का सलाद

गपशप के अंतर्गत- सुगंध घर, तन और मन सभी में मधुरता भरती है। इसलिये इसके आकर्षण से कोई बचनता नहीं। जाने विस्तार से- मंद सुगंध...

जीवन शैली में- ऊर्जा से भरपूर जीवन शैली के लिये सही सोच आवश्यक है, इसलिये याद रखें-  सात बातें जिनके लिये झिझक नहीं होनी चाहिये

सप्ताह का विचार में- प्रतिभा का अर्थ है बुद्धि में नई कोपलें फूटते रहना। नई कल्पना, नया उत्साह, नई खोज और नई स्फूर्ति प्रतिभा के लक्षण हैं। -विनोबा

- रचना व मनोरंजन में

आज के दिन (५ मई को) में सिखों के तीसरे गुरु गुरु अमरदास, में स्वतंत्रता सेनानी प्रीतिलता वाद्देदार, भूतपूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह...

लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत- इस अंक में प्रस्तुत है-
२४ सितंबर २००६  के अंक में प्रकाशित डॉ. शरद सिंह की कहानी- पुराने कपड़े

वर्ग पहेली-१८३
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि-आशीष
के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य एवं संस्कृति में-

समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है यूएसए से सुषम बेदी की कहानी का रूपांतर- चेरी फूलों वाले दिन

सिरहाने खड़ी मरसी कह रही थी-टाइम हो गया। चलो ऊपर डाइनिंग रूम मे चलकर खाना खा लो।
नहीं भूख नहीं।
सुधा ने लेटे लेटे ही बिना आँखें खोले कहा जैसे कि आँख खोलने के लिये भी ताकत चाहिये थी और वह बिस्तर पर औंधी हुई एकदम निढाल अधमरी सी पड़ी रही थी।
मरसी बोली- आज तीसरा दिन है। तुम लंच के लिये नहीं जा रही। उठो सुधा हिम्मत करो। कितना सुंदर है दिन। सुरज चमक रहा है, चेरी ब्लासम्स खिले हैं। बहुत सुंदर है बाहर।
ऊँह--।
खाना यहीं पर ला दूँ?
नहीं।
कुछ थोड़ा सा?
अच्छा, डायट कोक ले आना।
सिर्फ कोक? खाने के लिये कुछ नहीं?
इस बार सुधा ने सिर्फ सिर में कुछ हरकत की। जबान भी बार बार नहीं कह कर थक चुकी थी।... आगे-

*

रघुविन्द्र यादव की लघुकथा
एहसान
*

रचना प्रसंग में वीरेन्द्र आस्तिक से जानें
गीत स्वीकृति-रचना प्रक्रिया के नये तेवर
*

पर्यटन में पहाड़ की ओर
लद्दाख के अनोखे मठ-
*

पुनर्पाठ में- आज सिरहाने के अंतर्गत
गिरिराज किशोर का उपन्यास- जुगलबंदी

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पिछले सप्ताह-


अभिरंजन कुमार का व्यंग्य-
शर्म शब्द अप्रासंगिक, शर्मिंदा होना गुनाह
*

अशोक उदयवाल की कलम से-
बड़ी तरावट वाली ककड़ी
*

कीर्ति शर्मा से रंगमंच में-
रंगभूमि पर रौशनी के हस्ताक्षर
*

पुनर्पाठ में- कलादीर्घा के अंतर्गत
चित्रकार मनसाराम से परिचय

*

साहित्य संगम में प्रस्तुत है गुररमीत कडियावली की पंजाबी कहानी का रूपांतर- संसारी

 ‘संसारी’ ज्योति ज्योत समा गया था। दिसम्बर की कड़ाके की सर्दी में सुबह लोगो ने उसके शरीर को सडक के किनारे देखा था। पल भर में ही यह खबर जंगल की आग की तरह कस्बे में और कस्बे से सटे हुए गावों में फैल गई थी।
अभी कल ही तो वह बड़े आराम से पेट पातशाह को रिश्वत देने के लिए सड़क के किनारे बैठ कर माँग रहा था। इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि वह पेशावर भिखारी था। पेशावर भिखारी तो आजकल सरकारी दफ्तरों, विधानसभाओं, और संसद में विराजमान हो गये हैं। वह तो जरुरत के अनुसार कभी कभी माँगता था। वह भी अन्य व्यापारियों, दुकानदारों और जुआरियों की तरह शहर का एक अंग था। रात में कहाँ चला जाता है, किसी ने ख्याल नहीं किया था। कई कई बार तो कई कई दिन गायब रहता था। उन दिनो में सबसे ज्यादा तकलीफ सट्टे वालों को होती थी। उनकी नजरें ‘संसारी’ को तलाशती रहती थीं, उनके चेहरे पर... आगे-

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"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है
यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी -|- मीनाक्षी धन्वंतरि
 

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