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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
दीपक शर्मा की कहानी— मुरदादिल


सोने से पहले मैं रम्भा का मोबाइल जरूर मिलाता हूँ। दस और ग्यारह के बीच। “सब्सक्राइबर नाट अवेलेबल” सुनने के वास्ते।
लेकिन उस दिन वह उपलब्ध थी- “इस वक्त कैसे फोन किया, सर ?”
“रेणु ने अभी फोन पर बताया कविता की शादी तय हो गई है।“ अपनी खुशी को तत्काल काबू कर लेने में मुझे पल दो पल लग गए।
रेनू मेरी बहन है और कविता उसकी बेटी। रम्भा को मेरे पास रेणु ही लाई थी।
भाई यह तुम्हारा सारा काम देखेगी। फोन, ईमेल और डाक।
“हरीश पाठक से, रम्भा हँसने लगी।
“तुम्हें कैसे मालूम?”
“उनके दफ्तर में सभी जानते थे।“

रम्भा ने कुछ महीने कविता की निगरानी की थी। रम्भा हमेशा ही कोई न कोई नौकरी पकड़े रखती थी, कभी किसी प्राइवेट दफ्तर में रिसेप्शनिस्ट की तो कभी कि
सी नए खुले स्कूल में अध्यापिका की तो कभी किसी बड़ी दुकान में सेल्स गर्ल की। रेणु को रम्भा कविता की मार्फत मिली थी।

“तुमने मुझे कभी बताया नहीं?” मैंने बातचीत जारी रखनी चाही। रम्भा की आवाज मुझे मरहम लगाया करती।

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