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“वह इसलिये क्यों कि आप एक बुरे कारखानेदार हैं, एक बुरे पति हैं, एक बुरे पिता हैं।“ बेटी ने जोड़ा था।
“चुप रहो।“ मैं फिर चिल्लाया था। उसने मुझे याद दिला दिया था इधर कुछ वर्षों से मेरी फ़ैक्ट्री दोबारा घाटे में चल रही थी। सन १९७० में मेरे पिता ने अपनी कस्बापुर की पुश्तैन जमीन बेचकर इधर लखनऊ में एक साबुन बनाने वाला पुराना कारखाना खरीदा था और उसे नया नाम दे दिया था न्यू सोप फैक्टरी। जो ओवर हालिंग के बावजूद सन ८० के आते आते गच्चा खाने लगी थी और नौबत यहाँ तक पहुँच ली थी कि लोग उसकी नीलामी तक की बात करने लगे थे। ऐसे में मेरे भावी ससुर ने मेरे पिता को ऋण दिया था ताकि हम नई ब्वायलर केतली, नया क्रचर, नया प्लौडर, नया कटर खरीद सकें। बेशक वह ऋण उन्हें फिर कभी लौटाया नहीं गया था उन्हीं के आग्रह पर। अपनी इस हठधर्मी बेटी को १९८१ में मुझसे ब्याहने की अग्रभूमि तैयार करने हेतु।

ममा का दिल डूब रहा है, बेटी की घबराहट उसकी आवाज में चली आई- मैंने डॉ मल्होत्रा को बुलवा लिया है।
सहसा मुझे लगा मेरा दिल भी डूब रहा था और मैं अब और देर खड़ा नहीं रह पाऊँगा।
मैं पत्नी के बिस्तर पर बैठ गया।
वह निश्चल पड़ी रही।
झल्ला कर दूर नहीं खिसकी।

डॉ. मल्होत्रा के आने तक मैं चुपचाप वहीं बैठा रहा। कमरे में उष्णता की तेज लहरें छोड़ रहे हीटर के बावजूद एक असह्य शीत झेलता हुआ। बेटी जरूर अपनी माँ से बात करने का प्रयास करती रही।
“ममा आपको कुछ नहीं हुआ…
“ममा आपको कुछ नहीं होगा।
“ममा मैं दुर्गा सप्तशती का अर्गला स्तोत्र पढ़ती हूँ –
“जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते
“ममा मैं हनुमान चालीसा से पाठ करती हूँ- जाके बल से गिरिवर काँपे, रोग दोष जाके निकट न झाँके…”
बेटी के बोल पत्नी को जरूर छू रहे थे। उसकी आँखों के आँसू उसके गालों पर लंबी धारियाँ बनाते रहे थे।
डॉ. मल्होत्रा ने आते ही मेरी पत्नी की नब्ज टटोली और फिर उसका आई.सी.जी. लिया।
“इन्हें अभी अस्पताल ले जाना होगा। नब्ज बहुत धीमी है और दिल की हालत ठीक नहीं। इनके आपरेशन की नौबत भी आ सकती है।“

“कितना रुपया लेते चलें?” बेटी ने मेरी तरफ देखा।
इधर कुछ वर्षों से पत्नी अपने निजी खर्चे अपने घर में खुले बुटीक की आय से करने लगी थी। उसकी तैयार की गई पोशाकें अच्छी बिक जाया करतीं। उसे अच्छी खासी आय प्रदान करने केलिये।
“क्रेडिट कार्ड नहीं चलेगा क्या?” मैंने डॉ मल्होत्रा की दिशा में देखना शुरू कर दिया।
“क्यों नहीं आप चलिये तो। हम इस समय एक पल भी नहीं गँवाना चाहिये।“
मोटर गाड़ियों में मेरी मोटर सबसे बड़ी थी।
पत्नी को उसी की पिछली सीट पर लिटा दिया गया। बेटी की गोदी में उसका सिर टिका कर।
बेटी के आग्रह पर डॉ मल्होत्रा ने अपनी मोटर हमारे ही घर पर छोड़ दी और मेरे साथ अगली सीट पर बैठ गए।
मोटर मैंने चलाई।

लेकिन हम अभी रास्ते में ही थे कि बेटी चीखने लगी- “रुकिये पापा डा. साहब को ममा की नब्ज देखने दीजिये। उन्हें बहुत पसीना आ रहा है...”
डॉ. मल्होत्रा ने पहले अपने हाथ से मरी पत्नी की नबज देखी, फिर अने बैग में से टार्च निकाली और उसकी रोशनी मेरी पत्नी की आँखों पर फेंकी।
उसकी पलकें निश्चल रही। झपकीं नहीं।
“मुझे खेद है।“ डॉ मल्होत्रा ने अपना सिर हिला दिया।
“ममा, मेरी ममा।“ अपने रूमाल में मुँह छिपाकर बेटी सिसकियाँ भरने लगी। मैंने मोटर घर की दिशा में वापस ले ली।

घर पहुँचने पर अवसर मिलते ही मैं अपने बाथरूम में बंद हो लिया।
सर्दी के मौसम में ठंड का दाब सबसे ज्यादा मेरे पेट को झेलना पड़ता। अतिसार के रूप में।
बाथरूम से निकलते ही मेरी नजर अपने मोबाइल पर जा पड़ी।
मैंने उसे उठा लिया। रंभा का नंबर डिलीट करने के इरादे से।
किंतु मेरे हाथ ने मोबाइल को कमांड दिया काल।
“यस सर!” रंभा ने अपना मोबाइल पहली ही घंटी पर उठा लिया— “आप ही के फोन के इंतजार में मैं जब से बैठी हूँ सर! वरना मेरे कपड़े सभी धुल चुके हैं।“

रंभा के हाथ में वह मोबाइल पकड़ाते समय मैंने उसे दो आदेश दिये थे– पहला इसके बजने पर वही इसे सुनेगी, और कोई नहीं र न सुन पाने की स्थिति में वह इसे स्विच ऑफ के मोड पर रखेगी। दूसरा वह इस मोबाइल से मुझे कभी काल नहीं करेगी। फोन यदि बीच में कट जाएगा तो उस स्थिति में वह मेरे दोबारा फोने करने की प्रतीक्षा करेगी। जरूर।
“वह मर गई है।“ मैंने कहा।

“आप फिर मजाक कर रहे हैं।“ उसने ही ही छोड़ी।
एक धक्के के साथ मुझे याद आया मैं उससे पहले भी ऐसा कहता रहा था।
“और अगर यह मजाक नहीं, सर, तो कल मैं अपनी नौकरी बदल लूँगी। फैक्ट्री छोड़ दूँगी और बुटीक पकड़ लूँगी।“

मैंने अपना मोबाइल काट दिया।

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३१ जनवरी २०११

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