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“कैसे बताती सर, बताती तो वह चुगली नहीं हो जाती क्या?
"ओह!" मैं अंदर तक गुदगुदा गया। उसकी दुनिया बड़ी संकीर्ण थी। उसे मेरी दुनिया का ज्ञान केवल सतही स्तर पर ही था।
“अच्छा बताओ मैंने पूछा कविता की शादी पर मेरे साथ चलोगी?”
मेरी पत्नी मेरे परिवार मेरी बहनों के बच्चों की शादी में नहीं जाती थी- यही क्या कम है जो आपकी तीन तीन बहनों का आपकी बगल में बैठकर कन्या दान कर चुकी हूँ। कुल जमा तीस वर्ष की उम्र में पिता को खो देने के बाद अब अपने परिवार में मुझे मुखिया की भूमिका तो निभानी ही पड़ती थी।

“क्यों नहीं चलूँगी सर,” रम्भा उत्साहित हुई। कविता जीजी का मुझपर बहुत अहसान है। उन्हीं के कारण ही तो आपसे भेंट हुई।
“तुम्हारे परिवार वाले तो हल्ला नहीं करेंगे?” मैंने पूछा।
वह विवाहिता थी। सात साल पहले उसके हेडक्लर्क पिता ने उसका विवाह अपने ही दफ्तर में नए आए एक क्लर्क से कर दिया था। और अब छह साल की उम्र की उसकी एक बेटी भी थी। तिस पर उसके सास ससुर भी उसके साथ ही रहते थे।
“बिलकुल नहीं सर। वे सभी जानते हैं आपकी नौकरी मुझे शहर के बाहर भी ले जा सकती है।“
“और तुम भी यही समझती हो मेरे साथ कविता की शादी में जाना तुम्हारी नौकरी का हिस्सा है।“ मैंने उसे टटोला।
“नहीं सर, मैं जानती हूँ सर मैं समझती हूँ सर, आप मुझपर कृपा रखते हैं।“

मेरे डाक्टर ने मुझे सख्त मना कर रखा था रम्भा को कभी यह मालूम न होने पाए। उससे संसर्ग में रहने ही के कारण मेरी दवा की खूराक ५० एम जी मिली ग्राम से ५ एम जी मिली ग्राम तक आ पहुँची थी। वह नहीं जानती थी कृपा करने वाली वह थी मैं नहीं।

“अच्छा बताओ, इस समय तुम क्या कर रही हो?”
“मैं कपड़े धो रही हूँ सर।“
“इस सर्दी की रात में ?”
“इस समय पानी का प्रेशर अच्छा रहता है सर। और मेरी सास तो रोज ही इस समय कपड़े धोती है। आज उनकी तबियत अच्छी नहीं थी सो मैं धो रही हूँ।“
"तुम्हारे पति कहाँ हैं?"
“वो सो रहे हैं सर दफ्तर में आज ओवरटाइम लगाया था। सो खाना खाते ही सो गए।“
शुरू में रम्भा का पति उसे मेरी फ़ैक्ट्री में छोड़ते समय लगभग रोज ही मुझे सलाम करने मेरे कमरे में आ धमकता था। फिर जल्दी ही मैंने रम्भा से कह डाला था, “अपने पति को बता दो बिना मेरे दरबान की अनुमति लिये उसका मेरे कमरे में आना मेरे कर्मचारियों को गलत संकेत दे सकता है।“
वह यों ही मुझे खासा नापसंद था। शोचनीय सीमा तक निम्नवर्गीय और चापलूस। वैसे तो रम्भा का दिखाव बनाव भी निम्न वर्गीय था। अटपटे छापेदार सलवास सूट, टेढी मेढी पट्टियों वाली सस्ती सैंडल और मनके जड़ा कैनवस का बटुआ। मेरी पत्नी अक्सर कहा करती थी- स्त्री की कीमत उसका शृंगार परिभाषित करता हैं और उनमें भी उसका बटुआ और जूता।

“तुम कब सोओगी मैंने पूछा।“
लेकिन उसका उत्तर सुनने से पहले मेरे कमरे का दरवाजा खुल गया।
सामने बेटी खड़ी थी।
“मालूम है, वह चिल्लाई, उधर मम्मा किस हाल में है?”
“क्या हुआ?” मैंने अपना मोबाइल आफ कर दिया और उसे मेज पर धर कर बगल वाले कमरे की ओर लपक लिया।
रात में पत्नी दूसरे कमरे में सोया करती और बेटी तीसरे में। नौकर के संभावित भय से रात में हम तीनो ही के कमरों के दरवाजे अपने अपने आटोमेटिक ताले के अंतर्गत अंदर से बंद रहा करते। लेकिन हमारे पास एक दूसरे के कमरे की चाभी जरूर रहा करती। जिस किसी को दूसरे के पास जाना रहता बिना दरवाजा खटखटाए ताले में चाभी लगा दी जाती और कमरे में प्रवेश हो जाता।

पत्नी के कमरे का दरवाजा पूरा खुला था और वह अपने बिस्तर पर निश्चल पड़ी थी।
क्या हुआ मैं उसके पास जा खड़ा हुआ।
उत्तर में उसने अपनी आँखें छलका दी।
यह उसकी पुरानी आदत थी। जब भी मुझे खूब बुरा भला बोलती उसके कुछ ही घंटे बाद अपने आप को रुग्णावस्था में ले जाया करती।

उस दिन शाम को उसने मुझसे खूब झगड़ा किया था। बेटी के साथ मिलकर। मेरी दूसरी बहन इंदु की टिकान को लेकर। इधर कुछ वर्षों से जब भी मेरी बहनें या उनके परिवारों के सदस्य मेरे घर आया करते मैं उन्हें अपने घर लाने की बजाय अपने क्लब के गेस्टहाउस में ठहरा दिया करता।

"आज इंदु जीजी को बाजार में देखा, पत्नी गुस्से से लाल पीला हुई जा रही थी। "तुम्हारे ड्राइवर के साथ।"
हम पति पत्नी के पास ही नहीं हमारी बेटी के पास भी अपनी निजी मोटरकार थी। बेशक उसकी वह मोटर मेरी खरीदी हुई ही थी। उसके दहेज के एक अंश के रूप में। हमारी इकलौती संतान होने के कारण उसके लिये ऊँची ससुराल चुनी थी। किंतु उसने छठे महीने ही अपने पति से तलाक लेने का निर्णय कर लिया था और हमारे पास अपनी उसी मोटरकार में चली आई थी।
“चुप करो।“- मैं चिल्लाया था। मेरे मनोचिकित्सक ने मुझे कहा था कि जब भी कोई नकारात्मक भावना मेरे मन को कचोटे मुझे उस पर फौरन विराम लगा देना चाहिये।
“नहीं मैं चुप नहीं रहूँगी, बोलूँगी। तुम्हारी बहन शहर में हो और मुझे खबर तक न मिले?”
“क्यों कि मैं उसे तुम्हारे विकराल रूप से बचाना चाहता था।“ मैं मुकाबले के लिये तैयार हो गया। मेरे इलाज से दौरान मुझे यह भी बताया गया था जब गुस्सा आए तो उसे बाहर आने दो। उसे दबाओ नहीं। बल्कि मेरे मनोचिकित्सक का मानना था कि मुझे अवसाद का रोग ही अपने गुस्से को लगातार बरसों तक दबाए रखने के कारण हुआ है।
“मैं विकराल हूँ, पत्नी चीख पड़ी थी और वह इंदु जीजी नन्हीं रेड राइडिंग हुड?”
“पापा, बेटी भी मेरी पत्नी के साथ ऐंठ ली थी। “आपने अंधे कुएँ में छलाँग लगा रखी है। उन बहनों को आप अपने परिवार के ऊपर रख रहे हैं जिन्होंने बुरा वक्त आने पर आपके किसी काम नहीं आना।“
मुझसे तथा मेरे परिवार के सदस्यों के संग मेरी पत्नी और मेरी बेटी का व्यवहार लज्जा जनक था।
“बुरा वक्त तुम किसे कहती हो, में आपे से बाहर हो लिया था। मुझपर जो वक्त आज बीत रहा है, उससे ज्यादा बुरा और क्या होगा। क्या हो सकता है। अपना नाश्ता मैं नौकर से माँगता हूँ । दोपहर का खाना फैक्ट्री में खाता हूँ और रात का क्लब में।“

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