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आत्मकथा (अठारहवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

यह तो नहीं होना चाहिए था


विश्वजाल पर पदार्पण

पूर्णिमा वर्मन को मैं जानता तक नहीं था। उनका नाम भी मैंने नहीं सुना था। उन्होंने मेरी कहानी ‘हरामी’ जो ‘वागर्थ' में शायद सन १९९६ में प्रकाशित हुई थी उसे अपनी पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ में स्थान दिया और ‘वतन से दूर’ कहानी–संग्रह में ‘जड़ों से कटने पर’को जगह दी। यह सब तब हुआ जब मैं अबूधाबी में नहीं था। वार्षिक अवकाश के बाद जब मैं भारत से लौटा तो पत्नी ने बताया कि इस टेलीफोन नम्बर से कई बार फोन आ चुका है। बात कर लें। मैंने देखा तो नम्बर शारजाह का था। बात भी की। उन्होंने बताया कि मेरी कहानी साइट पर है, देख लूँ।

मुझे समझ में ही नहीं आया कि बात क्या है। इण्टरनेट की सुविधा घर में होते हुए मैं उसका उपयोग नहीं जानता था। जबकि बच्चों के लिये वह खेल बना हुआ था। कई दिनों तक मैंने साइट नहीं देखी। एक तो मुझे साइट खोलना नहीं आता था, दूसरे मुझे कम्प्यूटर की क्षमता और उसकी सेवाओं का अंदाज नहीं था। तीसरी बात, मैं इसे महत्त्वपूर्ण भी नहीं समझता था। कितने लोगों के पास कम्प्यूटर है? उनमें से भी कितने लोग इण्टरनेट की सुविधा को जान रहे हैं? मुझे कोई जानकारी नहीं थी।

पूर्णिमा वर्मन के आग्रह पर आग्रह के बाद मैंने अपने छोटे बेटे अभिनव की सहायता से साइट पर अपनी कहानी देखी। सच कहूँ तो कोई उत्साह या रोमांच नहीं हुआ। लेकिन कई बार जब उनसे बातचीत हुई तो मुझे अपनी नादानी पर तरस आया। एक कुतूहल पैदा हो गया और मैं समझ सका कि इण्टरनेट तो वह माध्यम है जो किसी रचनाकार को व्यापक, विस्तृत और असीम फलक दे सकता है। और, तब मैंने इसे गम्भीरता से लिया। इस तरह इण्टरनेट पर लिखना शुरू हुआ। 

मुझे जानने वाले जानते हैं कि मैं नियमित लिखता हूँ इसलिये कुछ लोगों की दृष्टि में बहुत लिखता हूँ। बहुत लिखता हूँ, यह कहना सही नहीं है। नियमित लिखने की वजह से वह ‘बहुत’ हो जाता है, यह अलग बात है। हिन्दी के साहित्यिक जगत में अब बहुत कम संस्कारशील संपादक हैं जो अपनी हैसियत के साथ–साथ रचनाकार की हैसियत भी पहचानते हैं। अधिकांश संपादक जब रचनाकारों से मिली रचनाओं के बारे में कोई सूचना नहीं देते तो किसी रचनाकार से डिमाण्ड करके कुछ लिखवा पाना उनसे कहाँ हो सकेगा। पूर्णिमा वर्मन उस कम या लुप्त होती प्रजाति की हैं जो रचनाकारों से लिखवाना जानती हैं उन्होंने मुझसे न केवल ‘अभिव्यक्ति’ बल्कि ‘अनुभूति’ के लिये भी लिखवाया यह गुण दैनिक जागरण के लखनऊ कार्यालय के प्रबंधक श्री विनोद शुक्ल में भी है। उन्होंने प्रख्यात कथाकार राजेन्द्र राव से कानपुर के ग्रीन पार्क में हो रहे क्रिकेट के एक टेस्ट मैच के बारे में लिखवाया। कैसा संयोग है कि मेरे बेटों के नाम अनुभव और अभिनव हैं। जब भी ई मेल खोलता हूँ और ‘इन बॉक्स’ में ‘अभि और अनु’ की ओर से आया मेल दिखता है तो मुझे सबसे पहले अपने बेटों की याद आती है। उनको याद करने का यह बहाना ही कहाँ कम है?

जो रूपरेखा ‘अमर उजाला’ के कानपुर कार्यालय में संपादक–कवि वीरेन डंगवाल के सामने बनी और ‘अमर उजाला’ में कार्यान्वित नहीं हो सकी और जिसके कुछ अंशों को ‘अकरे’ शीर्षक से सुशील सिद्धार्थ ने लखनऊ के ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित किया, उस रूपरेखा ने एक आकार के साथ ‘अभिव्यक्ति’ में न केवल जगह बनाई बल्कि लोकप्रियता भी पाई। मैंने ‘फैन मेल’ सँभालकर नहीं रखी। मुझे उनके प्रिंट आउट रखने चाहिए थे। असल में कम्प्यूटर को सही ढंग से हैंडल करना मुझे आज भी नहीं आता। हरदम बेटे की सहायता लेता हूँ और डाँट खाता हूँ।

मैंने शुरू में ही कहा था कि आत्मकथा का यह दूसरा हिस्सा है। लोगों को आश्चर्य होगा कि पहला हिस्सा, पहले क्यों नहीं सामने आया? इसका क्या उत्तर दूँ? सच कहूँ तो मैं साहस जुटा रहा था। विश्वास करें, आत्मकथा लिखना स्वयं को गीली लकड़ी की तरह सुलगते देखना है। इतना ही नहीं, मुसीबत और आफत मोल लेना है। आ बैल मुझे मार की तर्ज पर समस्याओं को दावत देना है। ऐसे–ऐसे लोग जिन्दगी में आते हैं, जो दो पल पहले कही हुई अपनी बात से मुकर जाते हैं। इतना ही नहीं, वे आपसे प्रश्न भी कर सकते हैं कि ऐसा उन्होंने कब कहा था। मैंने यह भी कहा है कि आत्मकथा में ‘आत्म’ जैसा कुछ होता ही नहीं, दूसरे ही होते हैं। जो या तो चोट पहुँचाते हैं या आपकी चोटों पर मरहम लगाते हैं। ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं होती जिन्हें आपने चोट पहुँचाई होती है। अपनी आत्मकथा में किसी को चोट पहुँचाना मेरा उद्देश्य नहीं है। मुझे चोट पहुँचती हो तो पहुँच जाए। लेकिन जिन्दगी में जो चोट खाई है या दूसरों को पहुँचाई है, उसका क्या करूँ? जो कमीने मिले हैं या जिनके साथ मैंने कमीनगी की है, उसका क्या करूँ? यदि दूसरों को बचाते हुए लिखूँगा तो अपनी रक्षा नहीं हो पाएगी...और अपनी रक्षा करते हुए लिखूँगा तो आत्मकथा लिखने की जरूरत ही क्या है?

दो वर्ष पहले जिस दिन पूर्णिमा वर्मन से फोन पर आत्मकथा के लिखने और इसके धारावाहिक प्रकाशन की बात हुई तो मेरे मन में पहली बात यह आई कि क्या मेरी अवस्था ‘आत्मकथा’ लिखने की हो गई? अड़तालीस वर्ष की अवस्था क्या आत्मकथा लिखने की अवस्था है? पचपन–पचपन वर्ष की अवस्था के लेखक तो युवा लेखक कहे जा रहे हैं। तो क्या मैं उनसे बूढ़ा हूँ? क्या मुझे जिन्दगी में और कुछ नया देखना और भोगना नहीं है? मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जिन्दगी की कथा लिखने के लिये अवस्था कोई मानक नहीं है। उस दिन बहुत कुछ याद आया। कई आत्मकथाओं के अलावा भी बहुत कुछ। यह भी कि लेखन में मेरा कोई माई–बाप नहीं था। आज भी नहीं है। किसी जमे हुए लेखक ने मेरी किसी रचना को किसी पत्रिका के लिये कभी रिकमेण्ड नहीं किया। राजेन्द्र राव, डॉ रमेश शर्मा और डॉ.रामजन्मराम शर्मा ने मुझे रास्ता दिखाया, यह मैं कभी नहीं भूलूँगा लेकिन जगह मैंने अपनी लगन और सतत् कोशिश से बनाई।

नए रचनाकारों को यह बताना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि साहित्य की दुनिया में न कोई माई–बाप होता है और न कोई शॉर्ट–कट। इस दुनिया में वही जिएगा जो रचेगा। वक्त चाहे जितना लग जाए। भाड़े पर लिये गए आलोचक माँ–बाप या उनके द्वारा गोद लिये गए रचनाकार दत्तक–पुत्र या पुत्रियाँ, ज्यादा जीते नहीं। कुछ समीक्षक या आलोचक मुझे बीसवीं सदी के उत्तरार्ध का कहानीकार मानते हैं लेकिन उनमें से कइयों को नहीं मालूम कि जब वे पैदा भी नहीं हुए थे, मैं ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘योजना’ जैसी पत्रिकाओं और ‘दैनिक जागरण’ जैसे अखबार में ‘सीरीज’ में छप रहा था यह सन १९७१ में शुरू हुई मेरी साहित्यिक यात्रा की पहली पारी के उत्तरार्ध, १९८०–८१–८२–८३ का समय था ‘कहानीकार’, ‘ऋतम्भरा’, ‘मंतव्य’ और ‘जागरण’में मेरी कहानियाँ सन ८० से पहले छप चुकी थीं। उस समय भी और उसके भी बाद कई प्रकाशपुंज पुच्छल तारे की तरह जल कर बुझ चुके थे और कई जन्म ले रहे थे। मेरी ट्रेजिडी यह रही कि मैं प्रायः हिन्दुस्तान से बाहर रहा और बकौल राजेन्द्र यादव ‘उपस्थिति’ की चर्चा होती है माने, कि आप अपनी चर्चा कराएँ या कि चर्चाओं के दौरान भीड़ में सामने हों। पिछले सात–आठ वर्षों में ऐसे कई मौके भी आए कि भीड़ थी और मैं भीड़ के सामने भी था। बड़े–बड़े साहित्यकारों के सामने था। एक से एक नामचीन वहाँ थे मगर किसी माई के लाल ने ‘कहानी’ पर बोलते हुए भी इस क्षेत्र में मेरा नाम नहीं लिया। ऐसा नहीं है कि वे मुझे जानते नहीं। बड़े लोग हैं उनका बड़प्पन है कि किसी को पढ़ें, न पढ़ें या पढ़कर हाशिए पर रख दें क्योंकि उन्हें तो सिर्फ इतना याद रहता है कि कौन उन्हें पढ़ता है।

एक बात और है, मैंने किसी को ब्लू या ब्लैक लेबल जॉनीवॉकर नहीं पिलाई। अगर पिछले बीस बरसों में केवल बीस बार ही पिलाई होती तो अहंकार जिससे मेरा कोई रिश्ता नहीं है उसे भाई बनाते और गले लगाते हुए कह सकता था कि हिन्दी के प्रमुख कहानीकारों में शुमार किया जाता मुफ्तखोर लोग नहीं जानते कि मैं पत्रिकाएँ खरीदकर पढ़ता हूँ। उन्हें तो मुफ्त में मिलती हैं। पत्रिकाओं के सम्पादक खुद को जीवित समझने का भरम बनाए रखने के लिये मजबूरन उन्हें भेजते हैं। और, वे उन पत्रिकाओं को इसलिये नहीं पढ़ते क्योंकि उन्हें वही, और, उतना ही पढ़ना है जो उनके साक्षात्कार या वक्तव्य से संबंधित है। मैं कोई पत्रिका या पठनीय सामग्री बिना खरीदे नहीं पढ़ता। कोई सामग्री अपने आप उपलब्ध हो जाए तो अलग बात है। विदेश में रहते हुए एक पत्रिका को पाने की कितनी कीमत चुकानी पड़ती है, इसे मैं ही जानता हूँ ।

लेखकों को एक पत्र तक न लिखनेवाले संपादक या आत्ममुग्ध आलोचक क्या जानें? रचना छापने के बाद पत्रिका और पारिश्रमिक भेजना तो दूर की बात है, सूचना तक देना वे जरूरी नहीं समझते। ऐसे एक नहीं अनेक संपादक हैं जिन्हें मैं प्रायः फोन करता हूँ। पैसे मेरी जेब से खर्च होते हैं। रचना पाने के बाद भी वे मेरी रचना का स्टेटस पचीसों फोन के बाद भी नहीं बता पाते उनके कार्यालय का कोई अन्य कर्मचारी तो और भी दयनीय स्थिति में होता है। ये वे नौकर संपादक हैं जो बड़ी पत्रिकाओं में ३५-४० चालीस हजार रुपयों से ज्यादा वेतन और ऊपर से अनेक सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं। इनकी पत्रिका में यदि एक प्रवासी हिन्दी लेखक साल में एक बार अपनी रचना के दम पर छपता है तो भी उसे पत्रिका तब देखने को मिलती है जब वह अपने प्रयासों से उसे भारत से मँगवा पाता है। विदेश से एक रचना को डॉक से रजिस्टर्ड भेजने का खर्च ५०० रूपये से अधिक आता है। उसके बाद फोन पर फोन।

भोजपुरी में एक कहावत है। मैं उसे उसके मूल रूप में उद्धृत नहीं कर सकता मगर डॉट- डॉट के साथ तो उद्धृत करने का हक मुझे है। तो, कहावत है, ‘हल दे, बैल दे और...खोदने के लिये पैना भी दे।’ ऐसे भी संपादक हैं जिन्हें बीस–बीस रूपयों के टिकट लगे लिफाफे भी भेजे मगर उनकी बेशरमी उन टिकटों को बेचकर एक शाम की दारू पी गई। एक प्रवासी के पास भारतीय डॉक टिकट हमेशा कहाँ होंगे? अपनी जेब से पचास या सौ रूपया लगाकर कोई संपादक किसी प्रवासी रचनाकार को पत्रिका नहीं भेजता। पूछने पर बड़ी सरलता से झूठ भी बोल देता है कि पत्रिका आपको भेज तो दी थी। अरे, भेज दी थी तो क्या उसे जमीन खा गई, आसमान निगल गया या पोस्ट ऑफिस वाले पी गए। हर महीने यदि उसे दो प्रतियाँ भी विदेश भेजनी हों तो डेढ़ सौ रूपयों से अधिक खर्च नहीं आएगा। यह धनराशि रचनाकार के पारिश्रमिक से भी ली जा सकती है। मगर यह तो तब हो जब पारिश्रमिक देने की नीयत और परम्परा हो आलोचक या समालोचक यदि इसे मेरा बड़बोलापन न समझें तो एक गुजारिश है, जितना मुझे पढ़ा है उस पर ईमानदारी बरतें। मुझे ढोल पीटने का शौक नहीं है मगर पीटना पड़ रहा है। क्योंकि आज का युग स्वयं की मार्केटिंग का हो गया है। मेरा दावा है कि कई शेर आलोचक तिर्यक रेखाओं पर बहुत चल चुकने के बाद वक्र रेखा पर आगे नहीं चलेंगे पिछले दो–तीन सालों में अंशुमान शुक्ल, पूजा श्रीवास्तव, साधना अग्रवाल, हेतु भारद्वाज, राजेश रंजन, महेश दर्पण, राकेश बिहारी, मनीष त्रिपाठी और भारत भारद्वाज ने विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में मेरा उल्लेख किया है। राजेन्द्र यादव और अमरीक सिंह दीप ने क्रमशः मेरे पहले और दूसरे कहानी संग्रह का ब्लर्ब लिखा है। मैं सचमुच इनका आभारी हूँ। जिस तरह लेखन और जीवन में मैं आजादी चाहता हूँ उसीतरह समीक्षकों और आलोचकों को भी पूरी आजादी देना चाहता हूँ कि वे जो उचित समझें, लिखें।

जब ‘अकरे’ लिखना शुरू किया था तो आत्मकथा दिमाग में नहीं थी। यात्रा वृतांत था। पाँच–पाँच सौ शब्दों से भी कम के एपीसोड थे । लेकिन आत्मकथा में वे एपीसोड नहीं चल सकते थे। मैंने जिन्दगी को खँगालना शुरू किया और फिर यादों की सँकरी गलियों से गुजरकर लिखना। एक अन्तःसलिला बहने लगी । अबूधाबी पहुँचने के प्रारम्भिक दिन सुखद अनुभवों के दिन नहीं रहे। मेरे समय से न पहुँचने की दशा में जो शिक्षिका तदर्थ नियुक्ति पर काम कर रही थीं उनका विरोध। शील सा’ब का विचित्र स्वभाव। दक्षिण भारतीय लोगों के बहुमत में एक ऐसी जीवन शैली की तलाश जिसमें माकूल ढंग से जिया जा सके। ऊपर से शराब का न मिलना। मिलना तो दूर, किसी से इस बारे में पूछना भी कुफ्र। बड़ी अजीबोगरीब दशा थी। कानपुर में दोस्तों के कहे हुए वाक्य याद आए... दारू तो क्या, पानी की एक बूँद के लिये तरस जाओगे... और औरत...उसका तो भूगोल ही भूलकर जाओ।
हकीकत में तरस गया मैं। एक बूँद शराब के लिये...
कहाँ शाम के सात–आठ बजे के बाद ही शुरू हो जाती थी और कहाँ वह अचानक दुर्लभ हो गई थी।
नई जगह थी। अकेलापन था। पीछे छूटी यादें थीं। बीवी और बेटे के अलावा एक पूरा जगत जो कभी मेरी दुनिया रह चुका था, वह बराबर यादों में बना रहता था।
जो पठनीय सामग्री मैं अपने साथ लाया था या राजेश्वर गंगवार ने अपनी ओर से दी थी, वह मैं निपटा चुका था। स्कूल के पुस्तकालय में कुछ खास नहीं था। ट्यूशन मेरे पास थी नहीं। मेरी शामें पत्र–लेखन और रातें हिन्दी फिल्म देखने में गुजरने लगीं। घर के सभी सदस्यों को मैं अलग से पत्र लिखता। मित्रों, लेखकों, रिश्तेदारों में जिसकी याद आ जाती, उसे पत्र लिखता। मेरी जिन्दगी को जिन लोगों ने कुम्हार की तरह गढ़ा है, उन्हें पत्र लिखता। उस पिता को पत्र लिखता जिससे उसके जीवनकाल में कभी खुलकर और आमने–सामने बात नहीं हुई। मुझे काफ्का का बयान प्रायः याद आता है, “जो कुछ मैं अपने पिता की छाती पर नहीं रो सका वह अपनी कहानियों में रोता हूँ।”
लाख वैचारिक विरोधों के बावजूद मैं अपने पिता से बहुत प्यार करता था मगर इतना डरता था कि मेरा प्यार कभी आकार लेकर उपस्थित नहीं हो सका। वे कभी समझ नहीं सके और मैं कभी समझा नहीं सका। वे भी मुझे बहुत ‘मानते’ थे। चाहने और मानने में फर्क होता है। लेकिन अपनी उबलती मानसिकता में मैं उसे महसूस नहीं कर सका। सोलह–सत्रह की अवस्था में ही मैंने उन्हें नकारना शुरू कर दिया। यह स्थिति उनके लिये बहुत कष्टप्रद रही होगी। इसे मैं अब ज्यादा अच्छी तरह समझ सकता हूँ जब मेरा बड़ा बेटा अनुभव इस वर्ष १७ मार्च को बीस वर्ष का हो गया है। दो महीने पहले मैंने जी टी वी पर खबर में यह सुनकर कि दिल्ली में बड़ी ठंड पड़ रही है, उसे फोन किया कि गरम कपड़े पहनो, अपना खयाल रखो, ठंड बहुत है...तो, उसने कहा कि बस, इसीलिये फोन किया...ठंड–वंड कहीं नहीं है।

सही वक्त पर हम किसी को कब समझते हैं? हम सबकी शिकायत और तनाव का क्या इससे अलग कोई कारण है? हमारी बहुत सी बीमारियों का जनक एक–दूसरे को सही वक्त पर न समझना है।

बाम्बे (मुम्बई) से जो तार मैंने घर भेजा था और अशोक के माध्यम से जो तार अबूधाबी से घर करवाया, दोनों एक ही दिन वहाँ मिले। इसका पता मुझे घर से आए पत्नी और पिता के पत्र से मिला...
भारतीय डॉक व्यवस्था को मैं बहुत अच्छा समझता हूँ लेकिन अच्छी व्यवस्थाएँ भी कभी –कभी गड़बड़ा जाती हैं। मेरे साथ ऐसी गड़बड़ियाँ तीन–चार बार घटी हैं,  
उनकी चर्चा मैं प्रसंग आने पर करूँगा।

अपनी अवस्था से अधिक उम्र के छात्र–छात्राओं को अब तक पढ़ाता आया हूँ। लेकिन जब–जब स्कूलों में नौकरियाँ कीं तो बहुत छोटे बच्चों की कक्षाएँ लेनी पड़ीं। अबूधाबी इण्डियन स्कूल में तो मैंने वार्षिक परीक्षा के ठीक पहले ज्वॉइन किया था। मुझे कक्षा–२ के सी और डी सेक्शन भी टाइम टेबल में मिले। कई बच्चों की यादें मेरी स्मृति में हैं किन्तु डोनाल्ड को मैं कभी भुला नहीं पाया। वह सेक्शन डी में था। स्कूल १ बजकर २० मिनट पर शुरू होता और शाम को सवा छह पर आखिरी घण्टी बजती। हर शाम एक छोटा बच्चा मुझे ‘गुड इव्हनिंग सर’ कहने के कुछ पलों के बाद अपनी बस की ओर बढ़ते हुए ‘गुड नाइट सर’ कहता। यह रोज की बात हो गई थी। बिना ऐसा किए वह जाता ही नहीं था। मैंने अपने सहकर्मियों को डोनाल्ड के बारे में बताया और एक शाम उन्हें वह घटना दिखाई भी। अगले दिन मैंने डोनाल्ड से कहा कि यदि मैं शाम को स्कूल के दूसरे गेट से निकलूँ तो वह क्या करेगा। उसने बहुत निर्दोष उत्तर दिया, “सर, तो मैं भी दूसरे गेट से निकला करूँगा...” बच्चे बड़े मासूम होते हैं। जिसे चाह लेते हैं उसे हृदय से चाहते हैं। उस साल मैंने उसे कुल बीसेक दिन ही पढ़ाया होगा। उसके बाद वह सातवीं और आठवीं में मेरा छात्र रहा। एक दिन उसने पूछा, “सर, डू यू रिमेम्बर मी?”
“एस डोनाल्ड”
“सर...। यू टॉट मी हिन्दी... ह्वेन आई वाज इन स्टैण्डर्ड टू...।”
“एस... आई नो...”

वह बहुत खुश हुआ कि मैं उसे याद रखे हूँ। जब वह कक्षा २ में था तब भी वह हिन्दी में कमजोर था और जब सातवीं और आठवीं में उसे पढ़ाया तब भी वह कमजोर ही था लेकिन हालात को समझ लेने के बाद कि हिन्दी की कोई पृष्ठभूमि स्कूल और वातावरण में एक विषय के रूप में नहीं है और अधिकांश बच्चे दक्षिण भारतीय हैं, मैंने किसी को फेल न करने की मानसिकता बना ली थी। हालाँकि, अर्थ को ही प्रधानता देने वाले भौतिकतावादी समाज में अन्य हिन्दी अध्यापकों को मेरा रवैय्या रास आने वाला नहीं था। डोनाल्ड जब कभी मंथली टेस्ट में नम्बर कम पाता तो पूछता, “सर, विल यू फेल मी इन द फाइनल एग्जाम...?
“नो...” वह एक मुस्कान के साथ आगे बढ़ जाता। वह अन्य बच्चों से न केवल पढ़ाई में बल्कि स्वास्थ्य के लिहाज से भी कमजोर था। ठिगना और कमजोर। कभी–कभी मुझे लगता कि वह मानसिक रूप से भी कुछ पीछे है। मेरा सोचना गलत नहीं था। मैंगलौरी माता–पिता की संतान डोनाल्ड स्लो लर्नर था। अपनी कक्षाओं में वह हमेशा आखिरी स्थान पर रहा परन्तु जिसे बचपन कहते हैं... जिसे निर्दोषिता कहते हैं... जिसे मासूमियत कहते हैं... जिसे कुदरत की अनमोल भेंट कहते हैं... उसे संजोए रखने में वह हमेशा प्रथम स्थान पर रहा।

कक्षा ११ की परीक्षा में वह फेल हो गया। हालाँकि नवीं कक्षा से ही वह मेरा छात्र नहीं रहा था। उसने हिन्दी के बदले फ्रैंच लिया था। लेकिन जब वह ११ वीं में फेल हुआ तो मुझे पता चला। दो–तीन महीनों बाद एक दिन मैंने उसे स्कूल के गलियारे में अपने पास से गुजरते हुए देखा तो पूछा, “कैसे हो...?”
“सर... आई एम डिटेण्ड इन क्लॉस एलेवन”
“बट ह्वाई...।?”
“सर...। यू नो... आइ एम वीक, ऐण्ड सर... करेक्शन... वाज व्हेरी टफ...”
“नो प्रॉब्लेम... वर्क हार्ड...”
“एस सर... आ’यम वर्किंग हार्ड”
वह उसी सादगी और अबोधता के साथ आगे बढ़ गया जैसे बचपन में बस की ओर बढ़ जाता था। मैंने तीन–चार वर्ष पहले एक लघुकथा लिखी ‘श्रद्धा’ जो ‘दैनिक जागरण’ में प्रकाशित हुई। यह कथा डोनाल्ड की है। कहानियों के पात्र ऐसे ही तो मिलते हैं। और ऐसे ही तो होते हैं। अपने पास। बहुत पास। आज, डोनाल्ड जिसे सब डोनल डक कहते थे वह लगभग २५ वर्ष का हो गया है। और एक ऑयल कंपनी में सुपरवाइजर है। अपने साथ के साठ प्रतिशत लड़कों को उसने पीछे छोड़ दिया है...

तकदीर भी कुछ होती है, इससे कौन इंकार करेगा? मैं हमेशा इसके महत्त्व को नकारता रहा हूँ। डोनाल्ड ने किसी तरह बी. ए. किया था कि उसके पिता को लकवा मार गया। उसकी माँ ने उसे तृतीय श्रेणी कर्मचारी के रूप में एक ऑयल कंपनी में नियुक्त करवाया। वहाँ जो सुपरवाइजर था वह अचानक एक सप्ताह न तो ड्यूटी पर आया न उसने अपने अनुपस्थित होने की कोई वजह बताई। उसे कंपनी ने टर्मिनेट और डोनाल्ड को प्रमोट कर दिया और... डोनाल्ड सुपरवाइजर हो गया लेकिन आज भी वह उतना ही विनम्र है जितना कक्षा दो में था। चरित्र में संस्कृति क्या इतनी घुली–मिली होती है? 

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