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कुछ पता होता तो सीना तान सिर ऊँचा उठा कह देता, ,,मेरा बेटा भी टक्कर ले रहा है दुश्मनों से

लम्बे तनाव के बाद वह खुश है। व्हील चेअर पर हाथ तेज़ चल रहे हैं ख़बर आ गई है ,,हम जीत गए हैं।,, चहकता हुआ हर जवान से कह रहा है।
,,हमारे जवानों के सामने दुश्मन टिकता कैसे। पैंसठ इकहत्तर भूल गए थे। सदी का अंत याद रहेगा।,,
,,जल्दी-जल्दी तन्दुरूस्त हो जाओ जवानो...,,

जब उसे पता चला, ज़ख्मी कर्नल का नाम करनैल सिंह हैं और वह पक्खीवाल का है चेअर रुक जाती थी उसके पास, उसका चेहरा गौर से देखता था आज निश्चय कर लिया था उसके बारे में और जानकारी लूँगा।
,,तुम्हारा बापू खेती करता होगा...,,
,,नहीं जी सूबेदार बग्गा सिंह देश के लिए कुर्बान हो गया।,,
वह चौंक गया ,,कहाँ? डरते-डरते पूछा
,,चीन की लड़ाई में। लापता की लिस्ट में था, फिर मृत मान लिया गया। शरीर नहीं मिला जी।,,
,,तुम्हारी माँ ने बड़ी हिम्मत की, पति को खो बेटा भी फौज में भेज दिया। तुम्हारे घर में दादा, दादी कोई नहीं थे? रोक सकते थे।,,
,,सुन लो जी सूबेदारनी सतवंत कौर बड़े जिगरवाली है। दादा उससे बढ़कर मेरे दादा अंग्रेज़ों की तरफ़ से लड़े थे। देश आज़ाद हुआ तो मेरे बापू को भरती करा दिया। दादा का कहना था दो बेटे होने चाहिए एक देश-रक्षक, दूसरा खेती सँभाले। चाचा वही करते रहे। मेरे और दो भाई हैं एक मास्टर है, दूसरा खेती के साथ लीडरी करता है जी। मास्टर का कहना है, बचपन से बच्चों में अच्छे आचार-विचार के बीज डालने चाहिए। ज़रूरी तो नहीं बन्दूक, तोपें, टैन्कों से जंग में लड़नेवाला ही देशप्रेमी है।

आज राजनीति में फैल रही भ्रष्टाचार की बेल क्या हमलावरों से कम है? सरहद पर खड़े सिपाही दुश्मन को अंदर आने से जान की बाजी लगा रोक भी लेंगे। पर चाचा, अपने घर देश के इन छुपे दुश्मनों से टकराने के लिए भी तो फौज चाहिए।

मैं भी इसमें सहमत हूँ दोनों भाई जुटे हैं।,,
,,कुछ सफलता मिली?,,
सब भ्रष्टाचार में लिप्त हैं रिश्वत हो, गुंड़ों की धर्माधों की ज़्यादतियाँ हों, सबसे टक्कर लेना है इनकी इमारत कन्क्रीट की बनी है जी। निहत्थे उसे हिला भी नहीं पा रहे। कोशिश जारी है जी। अंदर वाला ज़्यादा ख़तरनाक होता है घर का भेदी लंका ढाहे। सुना है न?,,
,,बहुत अच्छे विचार हैं बेटा। तेरे कोई बहन नहीं?,,
,,थी जी, मुझसे छोटी। कोठे की सीढ़ी से उतरते गिर गई थी। पैर की हड्डी टूट गई थी। प्लास्टर लगाया था। फिर जाने कैसे गैंगरीन हो गया, पैर काटा फिर भी बची नहीं।,,
,,तेरे चाचा ने चादर डाली?,,
,,हाँ, आ... आपको कैसे मालूम?,,
,,अरे, तुम्हीं ने तो ज़िक्र किया, बलवंत चाचा ने खेती सँभाली...,, बहुत भोलेपन से, अंतिम जानकारी के तौर पर खुद ही बोल दिया। यही उसका बेटा है, समझ गया।

उसके सिर पर हाथ फेरा, जी चाहा, उसे कलेजे से लगा ले। अपने पर काबू किया। ,,चलूँ, जवानों के चिठ्ठी-पत्तर टाइप करने हैं।,,

वाक्य ख़त्म हो, उससे पहले ही चेअर आगे खिसक गई। अंदर बहुत खलबली मच रही थी। घर, गाँव, लहलहाती खेती, बापू, माँ, सतवंत, बिटिया सब आँखों के आगे ठहर से गए थे। अस्पताल से बाहर बड़े नीम वृक्ष के नीचे वह ठहर गया। बाहर की खुली हवा से थोड़ी राहत मिली।

राहत कहाँ मिली, चील की तरह झपट्टा मारा, चीन युद्ध की धुआँधार गोलीबारी, आग, धुआँ, धमाका, असीम पीड़ा ने फिर एक दिन उसकी स्मरण-शक्ति सुधरी, उसे धीरे-धीरे सब याद आया। उसे पता चला चीन युद्ध समाप्त हुए दस वर्ष हो गए, दस वर्ष बहुत लम्बे होते हैं, सब कुछ बदल गया होगा। उसे पैरों के नीचे धरती खिसकती लगी थी।

कुछ खामोशी से घिरा रहा बीच के दस साल कहाँ बीते, कैसे बीते कोई बता न पाया। याददाश्त वापस आने पर उसने एक बार अपनी शक्ल आइने में देखी थी, फिर आज तक नहीं आँखें ईश्वर ने बचा लीं ओंठ, गालों का निचला हिस्सा, गर्दन, छाती, बाहें सब जल गए होंगे। आज भी कैसी लिजलिजी-सी चमड़ी है। अजीब शक्ल हो गई है। दोनों पैर घुटने से ऊपर कटे हैं। उनमें चमड़े की टोपी-सी पहना वह अपनी छोटी- छोटी टाँगों से घर में चलता है। बाहर व्हील चेअर पर। दोनों पैरों में नकली पाँव भी लगे हैं, उन्हें पहन कुहनी की बैसाखी पहन चलता है। लम्बे समय तक पैर पहन नहीं पाता, जाँघें लाल हो दुखने लगती हैं और ऊँची-नीची धरती पर तो बैलेंस बिगड़ गिरने का डर लगता है। फिर भी चलता हूँ। प्रतिदिन प्रैक्टिस बनी रहे।

उसे कहा गया, सब याद आ गया है तो परिवार से सम्पर्क करो। तुम्हें देखने बहुत लोग आए, पर शिनाख्त न कर सके। पेन्शन वहाँ जाती थी। अब बंद हैं। उसने कुछ नहीं पूछा, सतवंत की शादी हो गई, लड़का बालिग हो गया, उसने स्वयं समझ लिया।

उसने बहुत सोचा, बहुत सोचा, कई दिन सोचा, सूबेदार बग्गा सिंह, तुम्हें कौन पहचानेगा। बिन पाँव का बदशक्ल आदमी। वहाँ सब कुछ बदल गया है। काश, साल-छ: माह में सब याद आ जाता। सतवंत ज़रूर इस टूटे अधूरे सूबेदार को सम्मान से घर ले जाती। उसने कह दिया था, अनाम हूँ, वैसा ही रहने दो यहीं सेवा करूँगा। उसकी पेन्शन भी मिलने लग गई थी।

आज पहली बार की जानकारी मिली। बेटे को छुआ, देखा, खुशी भी हुई, बिछुड़ों का दर्द भी टीसने लगा। बेटी याद आई तो मन बेचैन हो गया। फिर जाऊँ करनैल से बात करूँ। और लोगों से पूछूँ। उसका ब्याह हो गया, उसके कितने बच्चे हैं, उनका क्या नाम है, यह भी पूछूँ। सूबेदार बग्गा सिंह का भोग साल बाद डाला, यह भी पूछूँ, फिर अपने को फटकारा, पगला हो गया है..., आगे ही बढ़ता जा रहा है।,, अब कुछ नहीं पूछूँगा वह अपने बच्चों को क्या बनाएगा। अब ख़याल बदल न गया हो वह भी हँसते-खेलते परिवार को दिलासा देकर दुश्मन से निपटने के बाद लौटने का वायदा करके आया था, कहाँ लौट सका। करनैल तो वापस जाएगा। उसके खानदान में तो परंपरा चली आ रही है देश रक्षक बनने की।

अपनी कुर्सी पर दोनों हाथ मारे, चल मना, टाइप का काम भी कर लूँ। बिन हत्थे की कुर्सी के बिलकुल नज़दीक अपनी व्हील चेअर ला उचककर उस पर बैठ गया। टाइपराइटर पर उँगलियाँ थिरकने लगी थीं।

फिर व्यवधान, वह टाइप नहीं कर सकेगा चारों ओर से उस विकलांग निहत्थे सूबेदार को अतीत ने घेर रखा था।
सतवंत के कितने ही चेहरे आसपास मंडराने लगे। हँसती, उदास, रोती, बच्चों को टहलाती, बूढ़े सास-ससुर की देखभाल करती कितनी सुघढ़ सयानी थी सतवंत। बड़े मान से कहती मैं आर्मी वालों की बेटी हूँ, पूरा हिन्दुस्तान घूमी हूँ। जब उसे कोई सूबेदारनी कहकर बुलाता तो उसका कद ऊँचा हो जाता। कहती बेटी को फौज में भेजूँगी उसका अपना रैंक होगा। मेरी तरह पति का रैंक लेकर सन्तोष नहीं करेगी।

कितने प्यार से बिटिया को बुलाते थे मोरनी। दोनों बाहों पर चुन्नी डाल मोर की तरह नाचती रहती। पोते का नाम बापू ने रखा तू सूबेदार ही रह गया, पोते का नाम करनैल अभी से रख देता हूँ आज बेटा कर्नल है। सतवंत को नाम पसंद नहीं आया था ससुर के सामने कुछ बोल न सकी थी।

बाद में ताने दिए हँसी भी खूब अच्छी तरह याद है उसे, उन दिनों छुट्टी पर गया था। सतवंत मोरनी को गोद में लिए बैठी थी। बापू ने पोते का करनैल नाम उसी दिन रखा था तुम्हारे घर में अजीब रिवाज है तुम गोरे चिट्ठे थे, नाम रख दिया बग्गा (सफ़ेद), पोता कर्नल बने या नहीं, नाम रख दिया करनैल दूसरे दिन मुझे ड्यूटी ज्वाइन करने के लिए गाँव छोड़ना था। बहुत खिलखिला रही थी। फिर उदास हो गई। फिर रोने लगी थी।

उसकी आँखें भर आईं। उसने झट से पोंछ लिया था। कोई उसके बहुत निकट आ गया था। उसकी समस्या सुन सुलझा, आगे बढ़ा। टोली के पेड़ के नीचे हँसती बैठी सतवंत बार-बार आँखों में आ रही थी।

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