मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


कल करनैल से पूछूँगा, टयूब वेल लगा? ज़मीन और लेनी थी, ली? अंदर का घर छोटा था, बड़ा बनवाया? पर कैसे पूछूँ मत इस चक्कर में पड़ सूबेदार अपने पर काबू रख। मृत सूबेदार को ज़िंदा मत कर।

समय बीत रहा था, धीरे-धीरे ज़ख़्मी स्वस्थ हो अपने परिवार में लौट रहे थे। वह भी बेटे को स्वस्थ होता देख रहा था। घूमता-फिरता है, उसके क्वार्टर में भी आ बैठता है। एक दिन हिम्मत करके पूछ ही लिया,
तेरा ब्याह तो हो गया होगा।
कब से चाचा, दो बच्चे हैं, एक लड़का, एक लड़की। मेरी माँ ने बहू भी आर्मी वालों की लड़की चुनी। कहती है, सिविलियन डरपोक होते हैं। मुझे बहादुर बहू चाहिए। कोई उससे नाम पूछे तो कहेगी, सूबेदारनी सतवंत कौर।

अच्छा उसे अच्छा लग रहा था। करनैल अपने आप ही परिवार की बात छेड़ बैठा। उसके कलेजे में ठंडक पड़ रही थी।
मेरी बीवी है न जी, हर पोस्टिंग में साथ रही। जब मेरी पोस्टिंग कश्मीर में हुई, वहाँ तो फैमिली नहीं ले जा सकते थे, वह न मायके रही, न ससुराल। कहने लगी, यूनिट के साथ रहूँगी। जहाँ मूव करती है, पूरी यूनिट जाती है। साथ रहते सब एक परिवार हो जाते हैं। सब एक दूसरे का दुख-सुख बाँटते हैं।
कल तुझे छुट्टी मिल जाएगी।
बहुत उदास हो गए चाचा, कल मेरे बीवी-बच्चे आ रहे हैं, आपसे ज़रूर मिलवाऊँगा। और तेरी माँ नहीं आ रही?
मुझे छुट्टी मिल रही हैं, सुनकर अमृतसर गई हैं, अखंड पाठ करवा भोग डलवा गाँव आ जाएगी, तब तक हम भी पहुँच जाएँगे।

वह भी बेटे के साथ अस्पताल आ गया। कल बेटा छुट्टी पाएगा, खुशी भी हो रही थी, असीम दुख भी। फिर कभी न दिखेगा। न उसे घर की कोई जानकारी मिलेगी।

वह भी एक बार ज़ख्मी हो अस्पताल में भरती था। ठीक होने का समाचार सतवंत को भेजा। सुनते ही बस में जा बैठी। अमृतसर गई, मत्था टेका, प्रसाद लिया। फिर मिलने आई उ़सके मुँह में अपने हाथ से प्रसाद डाला था। उस दिन ही बताया था, बापू ज़मीन और लेने की सोच रहे हैं। बाहर बड़ा मकान भी बनाएँगे, ट्यूबवेल की बात भी तब की थी। वह भी स्वस्थ हो गाँव गया था।

एक बार बापू ने उर्दू में चिठ्ठी लिखी। उन दिनों उर्दू फ़ारसी ही पढ़ाई जाती थी। उसे तो उर्दू नहीं आती थी। दूसरे से पढ़वाई सब कहते, तेरा बापू बड़ा बहादुर है, फौजी जो है। लिखता है, तू वहाँ मोर्चा सँभाले रह, यहाँ बलवंत घर-परिवार खेतीबाड़ी का मोर्चा सँभाले है। अब की छुट्टी पर आएगा तो बलवंत का ब्याह करेंगे। बाहर बड़ा घर भी बनवाना शुरू कर रहा हूँ।

वह तो लौटा ही नहीं। बलवंत का ब्याह हो गया। बच्चे हो गए। घर भी ज़रूर बन गया होगा। सतवंत खुश होगी। सतवंत और बलवंत दोनों में खूब पटती थी। अच्छा ही हुआ। बलवंत अनब्याहा था। नहीं तो सतवंत दुखी हो जाती।

अपने को झटका। खुश हो सूबेदार बग्गा सिंह! बहू और पोता आ रहे हैं, काश सतवंत भी आ रही होती। सबके लिए कुछ लूँ। करनैल क्या सोचेगा, पूछेगा नहीं? चाचा, आप हम पर इतने मेहरबान क्यों हैं जी! बिल्कुल अपने दादा की तरह बात करता है।

अब देखूँगा, मेरा पोता कैसा है। पेन्शन के पैसे जमा पड़े हैं। उसका खर्च ही क्या है। कई बार सोचा, पैसा भेज दूँ। फिर सोचा, लापता ही चला जाऊँ तो अच्छा। मरने के बाद भेजने को कह दूँगा फिर लगा, क्यों भूली-बिसरी यादों को ताज़ा कर सतवंत को दुख पहुँचाऊँ। मैं जीवित रहा, अब मेरा फिर भोग होगा! लोग अफ़सोस करने आएँगे, सतवंत फिर टूटेगी, ऐसा कुछ नहीं करूँगा, जो बचेगा, अस्पताल के नाम ही छोड़ दूँगा

यह मौका अच्छा है। करनैल से कहूँगा, दो दिन मेरे साथ रहो। सब दे दूँगा।

दूसरे दिन उसने करनैल से कह दिया, बेटा, मेरा तो कोई नहीं, तुमसे बहुत प्यार हो गया। बेटा, बहू, पोता, पोती का थोड़ा-सा सुख मुझे उठा लेने दो। मेरे पास रहो सभी।
ठीक है चाचा, आपके पास ही रहेंगे। आपको चाचा न कह बापू कहना चाहिए, मैं तो बापू ही कहूँगा।
कहो बेटा...
आनेवाले ही हैं बच्चे, सीधे आपके पास आएँगे। आपने नहीं बताया, किस युद्ध में अपंग हो गए।
याद ही नहीं, यह देह बची तो यहाँ का मोर्चा सँभाल लिया।

उसका परिवार आएगा। उसकी व्हील चेअर को पंख लग गए। चोपड़ा के पास जा ख़रीद का ज़िक्र किया। उसने सुझाया, यह काम मुझे मालूम है, तुझे करनैल से बहुत प्यार हो गया है।

बहू, पोता-पोती का स्वागत करने में मन डर रहा था। चोपड़ा, मेरी शक्ल देख बच्चे डरेंगे तो नहीं?
फौजी के बच्चे है, क्यों डरेंगे?
बच्चों से घुलमिल खूब बातें कीं दो दिन में इतना सुख बटोर लेना चाहता था। तृप्त हो जाए। खाना, मिठाइयाँ, फ्रूट कोई कमी नहीं रहने दी

जाने का समय आया तो अटैची सामने रख दी। घर का कोई नहीं छूटा था, जिसके कपड़े न हों यह पाजामा क़मीज़ साँझी का खेतीबाड़ी वाला घर है, साँझी तो होगा न ठीक हो के जा रहे हैं, वह भी कपड़े पा खुश होगा।
हमारा पुराना साँझी है, मेरे बापू का हाणी बताता रहता है, हम साथ खेलते थे, सुक्खा..., उसके मुँह से निकलने ही लगा था, ,,सुक्खा है अभी। ओंठ भींच लिए थे।

सोने की चेन बहू को एक चेन पोती को दी। यह सूट सूबेदारनी सतवंत कौर को, जिसने ऐसा पूत जना। उससे कह देना, पंजाब की बुढ़ियों की तरह सूट पेटी में न रख देना लेन-देन के काम आएगा कह। मेरी तरफ़ से कह देना, सही सलामत बेटा लाग से वापस आया है। सिलवा कर ज़रूर पहने।
विदा होते समय पूछ ही लिया, तुम अपने बच्चों को क्या बनाओगे?
डाक्टर, इंजीनियर...
अच्छा! निराश से हुए... फौज में तुम्हारे दूसरे भाई के बच्चे जाएँगे,
नहीं बापू, मेरे दोनों बच्चे फौज में जाएँगे, फौज में डाक्टर, इंजीनियर भी होते हैं न...,
हाँ...आं...
दादा जी, बाय बहू ने पैर छुए थे, उसके लिजलिजे गालों में दो कतरे थम गए थे गिरने से पहले।


पृष्ठ : 

स्रोत : बाकी निशां हमारा संपादक : डॉ. सुशीला गुप्ता, लोकभारती प्रकाशन,  इलाहाबाद

 

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।