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अगले दिन सोगरा ने उसे अपने घर में बुलवाया था। उसकी मायूसी और निराशा पर सांत्वना भरा अपना कोमल स्पर्श फिराते हुए कहा था, "इस तरह हार नहीं मानते रदीफ मियाँ। तुम पर्दे पर हीरो बनो या न बनो लेकिन असली जीवन में तुम हीरो बन चुके हो तुम मेरे हीरो हो, इस गाँव के हीरो हो। हीरो का अर्थ सिर्फ इतना ही नहीं है कि वह जवान हो, खूबसूरत हो और सिर्फ पर्दे पर अपना नकली करतब और जांबाजी दिखाये। हीरो बूढ़ा भी हो सकता है, बदसूरत भी हो सकता है। हीरो का मतलब होता है अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीनेवाला ईमानदार, कर्मठ, जुझारू, साहसी इस हिसाब से तुम किसी भी हीरो से कहीं ज्यादा हो। अपने दुखों से तुम कहाँ हारते हो तुम तो गैरों के लिए भी सितम और जुल्म झेल लेते हो! न जाने कितनी बार तुमने दूसरों के बदले अपना सिर फोड़वाया है और मैने उसकी मलहम-पट्टी की है। तुम्हारे लिए मेरी मोहब्बत तुम्हारे इन्हीं जुनूनों और जिदों से शुररू होती है।"

यह सच था गाँव के कितने ऐसे मामले थे जिसमें कोई रुचि नहीं लेना चाहता था, मगर रदीफ था कि खुद को रोक नहीं पाता था और चाहे कितनी बड़ी जोखिम हो, उठा लेता था। सोगरा के जेहन में कुछ वाकियात तो एकदम गुदने की तरह गुद गये हैं।
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इलाके में कहीं भी चोरी-डकैती होती थी तो गाँव में हरिजन टोली के कुछ ऐसे परिवार थे, जिनके मर्द शक के आधार पर गिरफ्तार कर लिये जाते थे। उन्हें बुरी तरह बेमतलब टार्चर किया जाता था, उनसे गिरोह का नाम पूछा जाता था, जबकि वे बिल्कुल अनजान और बेकसूर होते थे। दुर्भाग्य का यह सिलसिला उन अभागे परिवारों की कई पीढ़ियों से चला आ रहा था। रदीफ ने इस ज्यादती को अकेले दम पर मुखालफत की। थानेदार के डंडे खाये।

पट्टी करवाने के लिए डॉ. शौकत के घर गया तो वे दास्तान सुनकर हैरान रह गये। किस मिट्टी का बना किस जमाने का लड़का है यह! आज जब हर जगह जिंदा गोश्त नोंच डालने के लिए खुदगर्जी के गिद्ध मंडरा रहे हों, यह लड़का फकीराने अंदाज में दूसरों की फिक्र में खुद को मुसलसल हलाल कर रहा है। शौकत साहब को उस पार बहुत प्यार आया। उन्होंने दवा से ज्यादा अपनी हमदर्दी के मलहम लगाये उसके जख्मों पर। सोगरा दूर से देख रही थी पढ़ रही थी रदीफ के चेहरे पर न कोई अफसोस था, न कोई तनाव और न कोई विकार जैसे कोई सूफी संत हो।

रदीफ ने आगे मुसहरी के लड़कों को गोलबंद किया और जिलाधीश एवं पुलिस अधीक्षक के पास जाकर इंसाफ की गुहार लगायी।
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आसपास के कई गाँवों का एक संयुक्त कब्रिस्तान था। पता नहीं किसे क्या तकलीफ हुई शायद मुर्दों को भी बिन गाँव का होकर रहने देना उन्हें पसंद नहीं आया या रात में दो गाँव के मुर्दों को आपस में झगड़ते देख लिया होगा किसी ने जितने गाँव उतने हिस्से में कब्रिस्तान का बँटवारा कर दिया गया और उसमें चारदीवारी उठायी जाने लगी। हन्नू जुलाहे की कोने में एक जमीन थी जिसके बिना चारदीवारी आयताकार नहीं हो पा रही थी। गाँव के मातवर और नुमाइंदा टाइप लोगों ने तय कर लिया कि एक कीमत देकर उसकी जमीन कब्रिस्तान में शामिल कर ली जाये। इसके लिए उसकी रजामंदी की भी जरूरत नहीं समझी गयी। हन्नू गरीब आदमी था और उसके चंद उपजाऊ खेतों में यह एक खास खेत था। इस नाजी फैसले पर उसकी तो घिग्घी बँध गयी ऐसे नाजुक मजहबी मामले से कैसे टकराये वह अकेले!

रदीफ हन्नू की तरफ से सामने तन कर खड़ा हो गया। कहा, "कब्रिस्तान की शक्ल टेढ़ी हो जायेगी तो ऐसा नहीं है कि मुर्दे उसमें सुपुर्द-ए-खाक होने से इंकार कर देंगे या फिर दफन होने पर उनकी रूहें भटकने लगेंगी। कब्रिस्तान या श्मशान की चोहदी बडी हो, चौकोर हो, इससे ज्यादा जरूरी है कि जिंदगी की चौहदी बड़ी हो। वह खेत हन्नू की जिंदगी की चौहदी है, उससे उसकी परवरिश चलती है। यह सरासर बेवकूफी होगी कि परवरिश देने वाली जमीन को कब्रिस्तान में बदल दिया जाये।" रदीफ़ को इस करारे और बेलाग जिरह के लिए लताड़-दुत्कार सहनी पड़ी और फिर बड़े डंडे भी खाने पड़े।

अब उसके प्राथमिक उपचार के लिए सोगरा ने सारा इंतजाम अलग से रख लिया था और मलहम-पट्टी से लेकर सुई लगाने तक का काम खुद ही करने लगी थी। एक बार उसने कहा, "सोचती हूँ कि अल्लाह ने तुम्हें सर फोड़वाने की हिम्मत और जुनून दिया है, तो बेहतर होता कि तुम्हें और दो-चार सर भी दे दिया होता।"

रदीफ ने उसकी आँखों में मोहक मुस्कान की एक तरंग प्रेषित करते हुए कहा, "तुम्हारी जैसी दयानतदार और रहमदिल डॉक्टर हो तो फिर यह एक सर ही काफी है बार-बार फोड़वाने के लिए।"
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बगल के गाँव से एम एल ए का बेटा अपने कुछ नालायक साथियों के साथ मुसहरी में आकर ताड़ी पीता था और औरतों के साथ बदसलूकी करता था। दबंग और पागल सांड़ की एक नाक में नकेल कौन डाले, सब डरते थे उससे। रदीफ ने एक जोरदार पत्थर की तरह मारी उसके मुँह पर चेतावनी, "एम एल ए का बेटा हो तो सभी तुम्हारे खरीदे हुए गुलाम और बंदी नहीं हो गये कि जिस किसी के साथ तुम जैसा चाहो सलूक करो। ताड़ी पीने का बहुत शौक है तो कल से अपने गाँव में ही पीकर नंगा नाच करो। और अगर बड़ी जाति होने के दम में गाँव में पीने में शर्म आती है तो अपने घर में मंगा लिया करो। दोबारा इस गाँव में आए तो बहुत कड़ी सबक तुम्हें झेलनी होगी।" मौके पर तो वह सहमकर चुप रह गया मगर बाद में उसने बदला लेते हुए रदीफ पर जानलेवा हमला करवाया।
प्राथमिक उपचार फिर सोगरा के हाथों। इस बार हाथ में फ्रेक्चर था। शौकत साहब ने प्लास्टर चढ़ा दिया और उसे तीन महीने तक अपनी गर्दन से हाथ लटकाकर रखना पड़ा।
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हरिजनों के लिए एक प्राथमिक विद्यालय बनाने की स्वीकृति मिली थी। बगल के गाँव के मुखिया ने उसे अपने गाँव में स्थानांतरित करवा दिया। रदीफ को मालूम हुआ तो वहाँ जाकर डाली गयी बुनियाद को ही उसने हिला दिया और नापाक मंसूबे की ऐसी की तैसी कर दी। ललकारते हुए कहा, "मेरे गाँव का स्कूल मेरे ही गाँव में बनेगा या नहीं तो फिर इसे हम कहीं नहीं बनने देंगे।"

उसने काम रोकवा दिया जिसका अंजाम उसे फिर झेलना पड़ा। मुखिया के लठैतों ने उसे घेर लिया और उस पर टूट पड़े।
सोगरा ने उस पर अपनी अपार श्रद्धा न्योछावर करते हुए कहा, "तुम्हें एक मामूली आदमी के रूप में नहीं बल्कि किसी शहंशाह या सुपरमैन बनकर जन्म लेना था इस धरती पर ताकि पूरी दुनिया की तस्वीर बदलने के लिए तुममें एक चमत्कारी ताकत पैबस्त होती।"

रदीफ ने कहा, "मैं गरीब भी नहीं हूँ सोगरा, तुम्हारे जैसे दोस्त की रहमत और मुहब्बत जिसे हासिल हो, वह किसी शहंशाह से कम दौलतमंद नहीं कहा जा सकता। मैं अगर इंसाफ और इंसानियत के हक में अपनी मामूली ताकत लेकर खड़ा हो जाता हूँ, यह जानते हुए भी कि मुझे पिटना और परेशान होना है, तो इसमें मेरा कोई कमाल नहीं हैं, मेरे दोस्तों और खैरख्वाहों की हिमायत इसका खास मोहर्रिक (कारक) है।"

"इस तरह तुम कब तक किस-किस चीज के लिए मार खाते रहोगे। क्या कभी ऐसी स्थिति भी आएगी कि मारने की नहीं तो कम से कम मार खाने की नौबत खत्म हो जाये।"

"नहीं सोगरा, शायद ऐसी स्थिति कभी नहीं आ पायेगी, ऐसा है यह मेरी ख्वाहिश भी नहीं है। मुखालफत करना है तो हमें मार खानी ही पड़ेगी, हमारी यही क्लास है, इसमें तगईयुर (रूपांतरण) नहीं हो सकता। लेकिन इसका मानी तुम यह मत निकाल लेना कि मार खाना हार जाना होता है। मैं मार जरूर खाता रहा हूँ फिर भी हर बार अपने मकसद में कामयाब रहा हूँ। बल्कि अब तो मुझे लगता है कि मार खाने के बदले में अपना पक्ष ज्यादा मजबूत हो जाता हैं, भले ही इसमें जरा जिस्मानी तकलीफ उठानी पड़ती है।"

सोगरा जैसे अभिभूत हो गयी बहुत सम्मोहित होकर बहुत देर तक वह निहारती रही थी रदीफ को। शायद यही पल था जब उसे इलहाम हुआ कि पर्दे के हवाई हीरो और जिंदगी के असली हीरो में क्या फर्क है। ऐसी-ऐसी छोटी लड़ाई और जेहाद रदीफ की जिंदगी में एक-एक कर नामालूम और बेअख्तियार तरीके से अपने आप शामिल होते गये थे। कुछ लड़ाइयाँ, बहू-प्रताड़ना, पुत्र-उपेक्षा, जातीय-टकराव, सिंचाई-संघर्ष आदि से जुड़ी तो ऐसी थीं जिनका कोई अंत नहीं था। सोगरा के नौकर ममदू मियाँ की बेटी हर चार-पाँच महीने में ससुराल से भगा दी जाती थी और रदीफ उसे हर बार पहुँचाने का जिम्मा उठा लेता था उसके शौहर और ससुर को समझाने से लेकर डराने-धमकाने तक की क्रियाओं को उसे अंजाम देना पड़ता था।

सोगरा की दवा रदीफ के लिए एक अचूक उपचार साबित होती थी। उसने समझाया तो मानो उसके भीतर मुरझाया कोई पेड़ फिर से हरा हो गया।

रदीफ के जीने का यही ढंग था चोट खाता था लहूलुहान होता था और उपचार लेकर जख्म ज्यों हीं भर जाते थे फिर पुरानी को भूलकर नयी चोट खाने के रास्ते पर चल पड़ता था, उस मछुआरे की तरह जिसे लहरों और थपेड़ों से लड़ने की आदत हो जाती है या फिर उस गुलाब की तरह जो बार-बार काटा जाता है, फिर भी वह बार-बार खिलता है। इस प्रक्रिया में सोगरा हर बार खाद-पानी अर्थात संजीवनी का काम करती थी।

अचानक एक मोड़ ऐसा आ गया कि यह संजीवनी भी उसके लिए सुलभ नहीं रह गयी। एक दिन सायबाने पर आकर ममदू मियाँ ने हम सभी साथियों को एक-एक दावत-कार्ड लाकर दिया। इसे पढ़ते ही जैसे हमारे होश उड़ गये। यह सोगरा की शादी का कार्ड था लडका मंुबई में डॉक्टर था सोगरा की भी डॉक्टरी की पढ़ाई अब पूरी होने वाली थी ज़ाहिर है उसके पति को भी डॉक्टर ही होना था। हमने रदीफ के चेहरे को पढ़ने की कोशिश की लगा कि वह बहुत खुश हुआ इस सूचना को पाकर। हमें बहुत आश्चर्य हुआ तो क्या दोनों में यही करार था कि वे मोहब्बत करते हुए भी अलग-अलग मंजिल के राही होंगे? हमें बरबस उसके रिहर्सल के आशिकाने जुमले याद आ गये थे, "तुम्हारी यादों को अपने सीने में महसूस करता हूँ तो तमाम कमियों, तकलीफों और जिंदगी से हजार शिकायतों के बावजूद लगता है कि मैं दुनिया का सबसे खुशनसीब आदमी हूँ। सोचता हूँ कि तुम बेवफा भी हो जाओगी तो तब भी जीने के लिए मेरे पास यह एहसास काफी होगा कि कभी तुमने मुजे दिलोजां से चाहा था।"

डॉक्टर शौकत अगले दिन खुद ही हम सभी से आकर मिले और इंतजाम की कुछ-कुछ जिम्मेदारी सौंपते हुए कहा कि किसी को भी गैरहाजिर नहीं होना है। रदीफ से तो उन्होंने खासतौर पर गुजारिश करते हुए कहा कि उसे हर इंतजाम की देखरेख करनी है। शादी नवादा के एक होटल में संपन्न होनी थी।

हम सभी दोस्त बहुत कायल थे कि शौकत साहब ने हमें भी दावत के लायक समझा। निकाह के दिन हम सभी साथी वहाँ पहुँचकर कार्यकर्ता की भूमिका में थे। रदीफ हर इंतजाम की रहनुमाई कर रहा था। निकाह की घड़ी आयी तो वह मौके से गायब हो गया। एक अँधेरे में हमने उसे बमुश्किल ढूँढ़ा। वह जार-जार रो रहा था जैसे उसकी बसी-बसायी एक दुनिया उजड़ गयी हो या उसके भरोसे के एक मजबूत किले में सेंध लग गयी हो। हमे लगा कि उसके भीतर फिर कोई एक गुंबज ढह गया। रदीफ कहीं हीरो नहीं बन पाया गाँव में हर जगह उसे मार खानी पड़ी बम्बई ने भी उससे वफा नहीं की एक उम्मीद थी सोगरा के पास, वहाँ भी वह पिट गया।
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हममें से कुछ फटेहाल-विपन्न लड़के, जो कैसी भी एक नौकरी के लिए मुँह बाये थे और सभी रिक्तियों में अपना आवेदन दाखिल करते थे, छोटी-छोटी नौकरियाँ पाने में हम वाकई सफल हो गये। मैं जब नौकरी में लग गया तो गाँव मुझसे लगभग छूट गया। कभी उत्सव-शोक में जाना हुआ भी तो ठहरने की मियाद क्रमश: कम होती गयी, रात्रि-विश्राम से घंटों में बदलती हुई। चूँकि वहाँ हमारे लिए ऐसा कुछ लक्ष्य नहीं था जो हमें खींचे रहता।

बहुत अर्सा बाद एक सप्ताह तक ठहरने का कार्यक्रम तय हुआ। इस दौरान मिले वक्त में फिर से पुरानी गलियों, चौबारों और साथियों के बंद पृष्ठ खुलने लगे। गाँव में काफी कुछ बदल चुका था, लेकिन मेरे लिए सबसे बड़ा बदलाव यह था कि हमारा हीरो रदीफ मियाँ एक हलवाहा बन गया था। मतलब जो हम सभी साथियों में सिरमौर था, जिसे देखकर हमें रश्क होता था, फख्र होता था, जिसे सबसे बड़ा आदमी बनना था व़ह गाँव का सबसे छोटा आदमी बन गया था। मैंने देखा कि कादो-कीचड़ में नंगे बदन लिटाया-पिटाया रदीफ हल जोत रहा है। मुझे उसकी उन दिनों की सजधज, लिबास और अदाएँ याद आ गयीं। तब हमारे बदन पर कपड़े नहीं होते थे, आज रदीफ के बदन पर कपड़े नहीं हैं। उसके दाहिने बाजू पर एक लंबी पट्टी बँधी है। मतलब आज भी उसमें इंसाफ के लिए खुद को झोंक देने की तत्परता कायम है और इसके एवज में जख्म उठा लेने का हौसला भी, भले ही मलहम-पट्टी करने वाले दो हमदर्द हाथ अब नहीं रहे। पता नहीं क्यों मुझे लगा कि रदीफ उन दिनों भी हम सबसे अलग था और आज भी एकदम अलग है।

मुझे देखते ही वह हल छोड़कर मेरे पास आ गया। उसने मुझे हर्ष मिश्रित विस्मय के साथ सरसरी तौर पर निहारा, फिर कहा, "तुम्हें देखकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। मैं महसूस कर रहा हूँ कि आदमी को अपनी औकात के ही ख्वाब देखने चाहिए। तुम लोगों ने छोटे-छोटे ख्वाब देखें और देखो, आज कितने सुखी हो। मुझे देखो, जन्नतों और हूरों के ख्वाब देखते-देखते बर्बादियों और नाकामयाबियों का एक नमूना भर बनकर रह गया हूँ।" रदीफ का गला जैसे भर आया।

मैंने उसकी हथेलियों को अपने सीने से लगा लिया, "ऐसा मत कहो रदीफ, तुम आज भी हीरो हो दोस्त! अपने दुखों, तकलीफों से अपराजित। किसी भी देश का असली हीरो किसान ही होता है, उसके उगाये अन्न खाकर ही सभी जीते हैं। अन्न के अलावा हम कुछ भी बना लें, सीमेंट, कपड़ा, लोहा, कागज, प्लास्टिक, इन्हें खा तो नहीं सकते।" मैंने ऐसा कह तो दिया परन्तु मुझे यह अहसास था कि ऐसे विचार सिर्फ मन रखने के लिए प्रकट किये जाते हैं। वस्तुत: किसी का भी चुनाव किसान बनना कतई नहीं होता। जब कोई कुछ नहीं बन पाता तो विवश होकर खेती में लग जाना उसका आखिरी समझौता होता है। दिमागी तहखाने में दबे पड़े रदीफ के वे वाक्य उभरने लगे थे अचानक, "अब यह नाइंसाफी नहीं चलेगी कि छोटे लोग सब दिन छोटे बने रहें और बड़े घर के नालायक लोग भी बड़े बने रहें।" इन पक्तियों का निहितार्थ जरा-सा भी फलित कहाँ हो पाया। रदीफ लाख प्रतिभा और मेहनत के बावजूद छोटे का छोटा ही बना रह गया और इस बीच कितने-कितने पुराने जमाने के बूढ़े हीरो के नालायक बेटे बिना किसी मशक्कत के नये जमाने के हीरो बनते रहे।

रदीफ के लिए कलेवा लेकर उसका बेटा आ गया था, उसी की तरह, लंबा, खूबसूरत, दिलकश, पानीदार और भरा-पुरा। रदीफ ने उससे मेरा परिचय कराते हुए कहा, "तुम्हें जानकर ताज्जुब होगा, मेरा यह बेटा भी मेरी तरह पागल निकला। इस पर भी सनक सवार हो गयी है हीरो बनने की। मेरे खट्टे तजुर्बे और कांटेदार तारीख से यह कोई सबक नहीं लेना चाहता। कहता है आपका जमाना कुछ और था पहले दो-चार फिल्में साल में बनती थीं अब फिल्मों के अलावा रोज दर्जनों सीरियल बन रहे हैं, सैंकड़ों की तादाद में फनकार उनमें अभिनय कर रहे हैं।"
"तो तुमने क्या तय किया?" मैंने बड़े उतावलेपन से पूछा।
रदीफ ने कहा, "मैं इसे अगले महीने मुंबई भेज रहा हूँ जब मेरे भाइयों ने दर्जनों बार मुझे बंबई जाकर खुद को आजमाने का मौका दिया तो मैं इसका बाप हूँ दो-चार बार इसे भी क्यों मौका नहीं दूँ!"

मैं सचमुच रदीफ का मंतव्य सुनकर हतप्रभ रह गया। एक तरह से उसके बेटे में रदीफ के हीरो बनने की इच्छा का ही मुझे विस्तार दिखाई पड़ रहा था।

रदीफ की यह जीवंतता, जीवटता, हार न मानने की उसकी दृढ़ता मैं एकबार फिर उसका मुरीद हो गया था। अब तक हर मोर्चे पर मार खानेवाला चाहे हीरो बनने में, जरूरतमंदों की इमदाद करने में या फिर सोगरा की मोहब्बत में रदीफ अब भी अगली चोट और अगले जख्म स्वीकार करने का माद्दा रखता था।

आज सोचने पर मैं कह सकता हूँ अपना देश मुझे अब उतना अच्छा नहीं लगता अपने देश में अपना गाँव तो और भी अच्छा नहीं लगता लेकिन गाँव में रदीफ मुझे आज भी अच्छा लगा, बहुत अच्छा लगा, बहुत-बहुत अच्छा लगा।

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१६ मार्च २००३

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