युवा लड़के-लड़कियाँ हाथों में हाथ डाले और
गलबहियाँ डाले चुस्त कपड़ों में सजे-सँवरे रेस्तराँ के बाहर अंदर, दुकानों पर
सड़कों पर, पटरियों पर घूम रहे थें, या रुके हुए थे एक दूसरे में खोए हुए। एक
अजीब-सा अपरिचित वातावरण था।
'जॉर्ज'
'जी सर!'
'हम कहाँ है भाई?' उसने पूछा था।
'कनॉट प्लेस में ही हैं सर। ट्रैफ़िक जाम है सर।'
'इस वक्त?' उन्होंने तीसरी बार घड़ी देखी थी।
'आज क्या है जॉर्ज?' उसने अपने दिमाग़ पर ज़ोर दिया था। दीवाली तो कब की बीत चुकी
थी। फिर यह दीवाली का माहौल तो था भी नहीं।
'आज वेलेंटाइन डे है सर।'
'वैलेंटाइन डे? वह क्या होता है?' अपनी अनभिज्ञता पर एक पल के लिए शर्म-सी महसूस
हुई थी। सारे बाज़ार पटे थे लोग जश्न मना रहे थे और वे पूछ रहे थे वैलेंटाइन डे
क्या होता है।
'सर. . .' वह अटका था।
'हाँ भाई क्या होता है वैलेंटाइन डे?' उन्होंने उत्सुक होकर पूछा था।
'सर वो सेंट वैलेंटाइन थे न. . .।' वह झिझका था।
'अच्छा! उनकी याद में मनाया जाता है? उसने जल्दी से वाक्य पूरा किया था शायद अपने
अज्ञान को छिपाने के लिए।
'नहीं सर!' उसने ग़लती सुधारी थी। 'उनकी याद में नहीं सर। उन्होंने मानवता को याद
दिलाया था कि प्रेम करना मनुष्य का अधिकार है।'
डॉक्टर ठाकुर सोच में पड़ गए थे। अधिकार? प्रेम तो
सहज बोध है। होता ही है।
पता नहीं जॉर्ज उसका अर्थ समझा था या नहीं। उसने अपनी बात स्पष्ट की थी सर
वैलेंटाइन डे प्रेम दिवस के रूप में मनाया जाता है।
उनींदे से डॉक्टर ठाकुर चेतन हुए थे। क्यों जॉर्ज
सैंट वैलेंटाइन का भी कोई किस्सा है शीरी-फरहाद या लैला-मजनू की तरह?
'नहीं सर। कैथॉलिक ईसाइयों में प्रेम, विवाह और गृहस्थ जीवन वर्जित था।
स्त्री-पुरुष के प्रेम को अनैतिक, विघटनकारी और पतन का कारण मानते थे।'
डॉक्टर ठाकुर अपने भीतर व्यंग्य से हँसे थे। प्रेम कहाँ वर्जित नहीं होता?
शायद वे बड़बड़ाए थे।
कैथॉलिक ईसाइयों में वर्जित था। सिर्फ़ सैंट वैलेंटाइन ही ऐसे संत थे जिन्होंने
प्रेम को नैतिकता की ऊँचाई और सामाजिक मान्यता प्रदान की थी।
'वे क्या कैथॉलिक ईसाई नहीं थे?'
'वे भी कैथॉलिक ईसाई ही थे सर। लेकिन हो सकता है ईसाई बनने से पहले उन्होंने प्रेम
किया था। प्रेम की पीड़ा को झेला था या उन्होंने प्रेम करना चाहा हो पर प्रेम नहीं
कर पाए हों। इसीलिए घर भी नहीं बसा पाएँ हों। गृहस्थ भी नहीं हुए थे लेकिन यह भी हो
सकता है उनका प्रेम परवान न चढ़ सका हो। क्यों कि प्रेम वर्जित जो था इसलिए उन्होंने
सबके लिए प्रेम करने का अधिकार माँगा। किसी के प्रेम पर पाबंदी लगाने को अनैतिक
कहा। इसीलिए आज वैलेंटाइन डे को प्रेम की अभिव्यक्ति का प्रतीक मानकर प्रेम-दिवस के
रूप में मनाते हैं। सारी दुनिया में मनाया जाता है सर. . .। पहले हम नहीं मनाते थे
यहाँ भारत में। लेकिन अब तो क्रिसमस और होली-दीवाली की तरह वैलेंटाइन डे भी मनाया
जाता है।'
प्रेम करने का अधिकार। डॉ. सिंह के भीतर एक हूक-सी
उठी थी। जॉर्ज कह रहा था, 'सर पहाड़ों पर पर्यटकों के लिए स्थल ऐसे होते हैं जो
आकर्षण का केंद्र होते हैं। जहाँ आवाज़ देने से आवाज़ लौट आती है वहाँ जाकर प्रेमी
युगल मुँह पर हथेलियों की तूती-सी बनाकर चिल्ला कर कहते हैं आई लव यू। मैं तुम्हें
प्यार करता हूँ। यह भी ऐसे ही प्रेमी युगलों के प्यार का उत्सव जैसा है। प्रेमियों
के लिए एक विशेष दिन। प्रेम की अभिव्यक्ति का दिन। वर्जित प्रेम की अभिव्यक्ति का
दिन।' उनकी आँखों के सामने अंधेरा-सा छा गया था। वे जैसे मरुथल में तपते रेत पर
नंगे पैर चलने लगे थे। प्रेम की अभिव्यक्ति न हो और प्रेम की भावना दमित रह जाए तो
जीवन कैसा कुंठित हो जाता है। उन्होंने सोचा था। समय के समुद्र से एक ऊँची हिलोर
उठी थी। उनको वर्तमान से खींचकर अतीत की लहरों के थपेड़ों में ले गई थी। जुबैदा और
उन्होंने साथ-साथ एम. बी. बी. एस. किया था। इंटर्नशिप और हाउस जॉब भी साथ ही किया
एक ही अस्पताल से।
यह अनायास नहीं हुआ था। वे यही चाहते थे। उनके बीच
की घनिष्टता बढ़ती गई थी। दिनों दिन उनके बीच का संबंध घना होता गया था पर दोनों जब
आमने-सामने होते तो दिलों में उठ रहे ज्वार भाटे के बाद भी ऊपर से शांत एक-दूसरे की
ओर देखते रहते। जुबैदा उसके लिए साकार सपने की तरह थी। किसी मुस्लिम स्थापत्य में
उत्कीर्ण भारतीय देव प्रतिमा थी। वह जितनी प्रोफ़ेशनल थी उतनी ही आत्मीय भी। लेकिन
दोनों की आँखों में इस सात वर्षों के रिश्ते के भविष्य का सवाल कौंध जाता था। क्या
उन्हें अपने परिवारों में उनके सांप्रदायिक अनुशासन में लौटना होगा? बात ओठों पर
आते ही होंठ जलने लगते थे। पिता ने कहा था, 'पढ़ाई ख़त्म हुई अब तुम आगे की सोचो।
घर आओ ताकि क्या करना है उसकी योजना बनाई जाए।'
उसने एम. डी.में दाखिला लेकर दो साल का समय और ले
लिया था। जुबैदा को भी सर्जरी में सीट मिल गई थी। अजीब-सी पुलक से भरे वे दोनों
दिन-रात अस्पताल में डयूटी पर रहते। नाईट डयूटी में उन्होंने एक ही कमरे में कितनी
ही रातें साथ बिताई थीं। पर उनकी पीढ़ी कितनी अलग थी। शील और संकोच के शिकंजे में
कसी सामाजिक वर्जनाओं से ग्रस्त थी। इन सात वर्षों में उसने कभी जुबैदा को नहीं छुआ
था। ट्रैफ़िक लाइट पर रुकी साथ की गाड़ी में प्रेमी युगल एक-दूसरे के आलिंगन में
बँधे दूसरी दुनिया में थे। सोच रहे होंगे यह बत्ती कभी हरी ना हो तो कितना अच्छा
हो। वे देख रहे थे प्रेम अब एकांतिक कभी नहीं रहा था। साथ ही युवतियाँ भी उसी सहज
और उद्दमता के साथ प्रेम को अभिव्यक्त करने लगी थीं।
कई बार अपने निकट उसने जुबैदा की उसाँसों को,
काँपते होंठों को, उसके वक्ष की उठान को, उसकी गर्म हथेलियों को और उसकी लरजती देह
को बहुत समीप से महसूसा था। रात की डयूटी पर एक दूसरे की हथेलियों में अपने दिलों
के तूफ़ान को थामे बैठे रहते। कई बार उसे लगता जुबैदा अपना संयम खो देगी। उसे उसके
संकेतमात्र की प्रतीक्षा थी। उसे स्वयं भी लगता वह अब और रुक नहीं पाएगा। बाहें
फड़कती उसे अपने में समेटने के लिए। प्यास से गले में काँटे उग आते। उसकी टाँगे
काँपने लगती। जुबैदा की साँसों को वह अपने चेहरे पर महसूसता। तभी जुबैदा उसके चेहरे
को अपने हथेलियों में भरकर साँस रोक कर कह देती।
'संजय तुम थोड़ा बाहर खुले में घूम आओ। मैं कॉफी
बनाती हूँ।' वह डयूटी रूम से निकल कर वार्ड का बरामदा पार कर बाहर आ जाता। पीली-सी
चाँदनी में या अंधेरे में खड़ा होकर बढ़ आई हृदय की धड़कनों को, और अपने उद्वेलन को
सामान्य करने की कोशिश करता और लौट आता। दोनों साथ-साथ कॉफी पीते और किसी
प्रोफ़ेशनल मुद्दे पर बातचीत में लीन हो जाते। उनके पास शिक्षा की, स्थान की और
अवसर की सारी सुविधाएँ थी। तो भी एक प्रभावी ऑटो सैंसर था जो मन मस्तिष्क से परे
देह के स्तर पर उतरने से रोकता था।
उसका ध्यान टूटा था। उसने देखा था कुछ लोगों का
रेला-सा आया था लाठियाँ, डंडे और हॉकियाँ लिए हुए। उन्होंने सजी सजाई दुकानों पर
दनादन डंडे बरसाने शुरू कर दिए। दुकानों के शीशे तोड़ दिए। बैनर और पोस्टर फाड़
दिए। रंग-बिरंगी पन्नियों की कागज़ की लतरों और गुब्बारों की सजावट को खींच-खींचकर
तोड़ दिया। एकदम भगदड़-सी मच गई थी। उन्हीं में से कुछ लोगों ने कुछ युवतियों और
युवकों के साथ भी मारपीट की थी। जॉर्ज ने जल्दी से गाड़ी गली में मोड़ कर एक अंधेरे
कोने में लगा दी थी। गाड़ी की बत्तियाँ बंद कर दी थीं।
'साब जरा रुक जाते हैं। यहाँ से निकलना ठीक नहीं
है अभी।'
'जार्ज यह क्या हो रहा है यहाँ? ये मारा पीटी और तोड़-फोड़ क्यों हो रही है?'
'सर, कुछ लोग वैलेंटाइन डे मनाने के विरोध में हैं। वही कर रहे हैं ये।'
'पर क्यों जॉर्ज? विरोध? कैसा विरोध!'
'ये लोग इसे पश्चिमी संस्कृति की देन कहते हैं। इसलिए इसे मनाने नहीं देना चाहते।'
'पश्चिमी संस्कृति? भारतीय संस्कृति में मनाने देते हैं क्या?'
जॉर्ज चुप रहा था। उसका मन कड़वाहट से भर गया था।
उसे याद आया था। जुबैदा उस दिन गंभीर थी और उदास-सी भी थी। 'संजय अब क्या करना है?
शादी करेंगे?' उसने धीरे से उसके कंधे छुए थे। वह तब भी गंभीर बनी रही थी।
'इस वीकएंड में घर जाऊँगा। पिता से कहूँगा सीधे से।'
वह रुका था, 'चाहो तो तुम भी चलो। अगर कुछ होता है तो एक साथ ही होगा न।'
एक ठंडी-सी - 'अच्छा!' कहकर वह चली गई थी।
भय की एक कील भीतर तक बेध गई थी। वह अपने पिता की
रूढ़िवादी जड़ता को जानता था। रास्तेभर वे दोनों बुझे हुए से अपने भीतर खोए रहे थे।
जुबैदा की स्थिति उससे बेहतर नहीं थी। जैसे-जैसे वे कस्बे के नज़दीक पहुँच रहे थे,
जुबैदा के चेहरे पर भय की छायाएँ गहराती जा रही थीं। बस से उतरने से पहले उसकी
उँगलियों में उलझी जुबैदा की उँगलियाँ शिकंजे की तरह कस गई थीं। उसकी आँखें झुकी
हुई थीं और गीली थीं। बस से उतर कर गुमसुम से वे दोनों विपरित दिशाओं में चले गए
थे।
जुबैदा का नाम लेते ही घर में बवंडर आया था। हवेली
की दीवारें हिल गई थीं। घर के बड़े छोटे सभी सदस्य उन दोनों से कुछ दूरी पर सिर
झुकाए हाथ बाँधे खड़े थे। वह पिता के बिल्कुल करीब खड़ा था पर पता नहीं क्यों वे
ऊँची विस्फोटक आवाज़ में दूसरे धर्म, जाति और संप्रदाय की लड़की से शादी का
प्रस्ताव रखे जाने के कारण बेटे से परिवार की मर्यादा और वंश को नष्ट करने के जुर्म
की सज़ा पूछ रहे थे। ठीक था उनसे किसी खुले विचार और उदारता की अपेक्षा तो नहीं की
जा सकती थी। अपनी ग़लती को जानकर वह उसी दिन वापस लौट गया था। पर इतने भयंकर तूफ़ान
की उम्मीद उसे भी नहीं थी। कस्बे में दोनों संपदाओं के बीच कट्टरता की दीवारें
हमेशा से ही थी। फिर भी आमजनों में सद्भाव बना हुआ था। पहल पता नहीं किस ओर से हुई
थी। जुबैदा और उसकी शादी की फुसफुसाहट से ही सांप्रदायिकता की आग भड़क उठी थी। इधर
के लोग चाकू, भाले, तलवारें, बंदूकें लिए पहुँचे थे, वहाँ से मशाले लिए लोग हवेली
में आग लगाने आ गए थे।
जुबैदा का मध्यवर्गीय परिवार था। कस्बे में पिताजी
ज़मींदारी, हवेली, ज़मीन जायदाद का रोब दाब था। लेकिन दोनों धर्मों की सांप्रदायिक
ताकतें अपनी जगह थीं। छुटपुट आगजनी और मार काट की घटनाओं के बाद कस्बे में तनाव बढ़
गया था। पिता के रुतबे के कारण बाहर से पुलिस फोर्स बुलाई गई थी। कई दिनों बाद
धीरे-धीरे स्थिति सुधरी थी। जुबैदा नहीं लौटी थी। परेशान-सा वह सोच रहा था वे क्यों
गए थे वहाँ उस बंद कुए में। अगर वे चाहते तो अपना निर्णय ले सकते थे। पिता की
लंबी-चौड़ी ज़मींदारी और जायदाद की विरासत के बिना भी आराम से जीवन जी सकते थे। वे
आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थे, शिक्षित और प्रौढ़ थे। उस कस्बे से बाहर उनके सामने
पूरी दुनिया थी। फिर भी क्यों उन्होंने अपना निर्णय नहीं लिया?
एक दिन अचानक घर से ताबेदार आया था। पिता मरणासन्न
हैं, अभी बुलाया है। रुका हाथ में पकड़े वह असमंजस में पड़ गया था। फ़ोन पर वही बात
दोहराई गई थी। वह बस से उतरा तो पिता की फोर्ड लिए ड्राइवर खड़ा था। ताबेदार ने भाग
कर उसका बैग हाथ में ले लिया था। पिता की फोर्ड पक्की के बाद कच्ची सड़क पर
धीरे-धीरे रास्ता बनाती जा रही थी। उसे आश्चर्य हुआ था पिता बीमार थे और हवेली की
ओर जाने वाला सारा रास्ता फूलों के बंदनवारों और केले के पत्तों से सजाया गया था।
सड़क के दोनों ओर दीपों की कतारें थीं। हर चौक पर रंगोली सजी हुई थी। सारा कस्बा
वसंत में उद्यान की तरह रंग-बिरंगे फूलों से सँवरा था। दूर से देखा हवेली दुल्हन की
तरह छोटे-छोटे रंगीन बिजली के बल्बों से जगमगा रही थी। जगह-जगह रंगीन काग़ज़ की
झंडियाँ, रंगे हुए सूत की मालाएँ और ताज़े फूलों की लतरने लगी थी। गुलाबजल और इत्र
की सुगंध में पूरा वातावरण महक रहा था। घर में सब व्यस्त थे। उसकी ओर कोई देख तक
नहीं रहा था। चाची को जाते हुए ज़बरदस्ती घेर लिया था।
'यह सब क्या हो रहा है?'
'क्या हो रहा है? विवाह शादी के घर में जो भी होता है।'
'शादी-ब्याह? किसका विवाह है यहाँ?' चाची ने कमर पर हाथ रख कर आँखें तरेर कर कहा
था।
'हमसे पूछ रहे हो लल्ला?' और वह हाथ झटक कर भीतर चली गई थी। मंजू उसकी चचेरी बहन
थी। सामने आ खड़ी हुई थी।
'पिता ने रुक्का भेजा था। वे बीमार हैं। यहाँ यह सब क्या हो रहा है मेरी कुछ समझ
में नहीं आ रहा।'
'ताऊजी बिल्कुल ठीक हैं। अब समझने को कुछ नहीं बचा भैया। समझो सब समाप्त हो गया।
मेरा मतलब जो आपका पिछला था उसे भूल जाओ।'
'अब सोचने, पूछने और समझने को क्या रह गया लल्ला।' चाची आ गई थी। 'सब कुछ पहले से
ही हो चुका है। बारात आज ही दो घंटे बाद जानी है। जानी भी
क्या है? शादी के फेरों का प्रबंध भी भाई जी ने ही हवेली के दूसरे हिस्से में किया
है। अपने राम जी लाल की लड़की है सुनयना। विवाह का सारा खर्चा भी भाई जी ही कर रहे
हैं। राम जी लाल बहुत घबराया हुआ था। कहता था, 'ठाकुर हम साधारण लोग हैं। हमारे पास
देने लेने को कुछ नहीं। फिर आप कहाँ हम कहाँ? पर लल्ला भाई जी की बात को कभी कोई
टाल सका है। उन्होंने राम जी लाल को कहा था, बस राम जी लाल अपने घर की इज़्ज़त को
हमारे घर की इज़्ज़त बनने दो, और कुछ नहीं करना है। लड़की हम एक जोड़े में लेकर
आएँगे। पूरे मान-सम्मान और आदर के साथ। हमारा एक ही एकलौता बेटा है। तुम्हारी बेटी
को राम जी लाल ने अपनी पगड़ी भाई जी के चरणों पर रख दी थी।'
'ठाकुर आप हमारे. . .' उन्होंने उसे रोका था।
'बस करो और कुछ नहीं कहना। घर जाओ और विवाह की तैयारी करो।'
पिता ने उसे भीतर बुलाया था, 'आओ संजय, बैठो हमारे
पास। हम सब जीवित हैं मार या जला नहीं दिए गए यह देखकर तुम्हें खुशी नहीं हुई
क्या?' वे रुके थे, फिर कहा था, 'मैं अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहा हूँ। तुम दिन रात
अस्पताल में काम करोगे, तुम्हारा घर और तुम्हारी देखभाल कौन करेगा! फिर पितृऋण तो
तुम्हें चुकाना ही है। घर की, समाज की व्यवस्था में और धर्म की न्यायिक संहिता में
जुबैदा का संजोग तुम्हारे साथ नहीं हो सकता।'
'तो भी एक बार जुबैदा से मिल कर बात करना चाहता हूँ।'
'किसलिए? क्या बात करोगे। हमारी चिता की आग पर उससे ब्याह रचाओगे अभी जो हुआ है वह
कम है क्या? अब सोचने का समय नहीं है। जाओ नहा-धोकर तैयार हो जाओ। तुम्हारे कमरे
में विवाह का जोड़ा रखा है। ताबेदार तुम्हारे इंतज़ार में खड़े हैं।'
फिर भी उसने किसी तरह अनीसा को भेजकर जुबैदा का
पता लगाया था। वह वहाँ नहीं थी। पिता के कड़े अनुशासन में सब अपनी-अपनी जगह अलग-अलग
एक दूसरे के साथ खड़े थे। पिता के आतंक ने उन्हें एक सूत्र में पिरो रखा था। वह अवश
हो गया था और उसका भीतर मूर्छित हो गया था। उसी मूर्छा में वह सब कर रहा था। कर
नहीं रहा था उसके साथ हो रहा था। कठपुतली की तरह हिलता-डुलता रहा था। विधिवत
मंत्रोच्चार की ध्वनियों के साथ वैदिक रीति से विवाह संपन्न हुआ था। घर की सारी
स्त्रियों के बीच माँ की कमी उसे बहुत कष्टकर लगी थी। माँ होती तो शायद उसकी पीड़ा
को समझ सकती थी। स्मृति में माँ साकार हो गई थी।
उसकी उपस्थिति में घर में कैसी हलचल-सी रहती थी।
पूरा घर स्पंदित होता था। तंबई रंग की काया वाली माँ की हँसी केसर की क्यारी में
खिलते फूलों-सी थी। वह उससे लाड़ लड़ाती थी, बहलाती थी और उसके शरीर से ममता की
भीनी सी सुवासित गंध बिखरती रहती। पर कभी-कभी वह अचानक किसी दूसरी स्त्री में
परिवर्तित हो जाती, थपथपाते हुए उसके हाथ रुक जाते। वह किसी दूसरे परिदृश्य में
अदृश्य हो जाती थी। माँ कहाँ गई। माँ कब और कैसे मरी किसी को नहीं पता। उन दिनों घर
में स्वेच्छा से साँस लेने की, फुसफुसाने की भी मनाही थी। उसके लगातार रोते रहने और
ज़िद करने पर दादी ने ही एक बार कहा था, 'मर गई तुम्हारी माँ। कर्मजली वह थी ही इसी
लायक। यही होना था उसका।' घर में और कस्बे में कई तरह की धीमी ध्वनियाँ, दबी
अस्पष्ट आवाज़ों और कानाफूसियों से अलग करके पिता ने उसे शहर में हॉस्टल वाले स्कूल
में दाखिल करा दिया था।
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