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तब वह नवीं कक्षा में था। उसे लगा था आज उसकी आँखों के सामने से बदली छट गई थी। क्या माँ ने भी किसी से प्यार किया था? जिसकी सज़ा उसे दी गई थी। उसने पिताजी की आवाज़ की धमक के साथ माँ के चेहरे पर मरघट की वीरानी उस छोटी उम्र में ही पहचान ली थी। पिता की उपस्थिति में वह वर्षा से गीले पक्षी सी सिकुड़ी निचुड़ी रहती। आशंकित-सी दूसरे ताबेदारों की तरह खड़ी रहती गर्दन झुकाए। माँ पिता से पंद्रह वर्ष छोटी थी। फिरकनी-सी नाचती माँ पिता के सामने पड़ते ही थिर हो जाती।

सुनयना से प्रथम भेंट हुई तो आश्चर्य के साथ उसे दुख हुआ नाबालिग कमसिन-सी लड़की बैठी थी। गहनों कपड़ों में लदी-फदी गठरी-सी बनी। गर्मी से परेशान और जो हुआ था उससे अनजान। विवाह की लंबी रस्मों से पस्त और लस्त। उसके आने की उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। वह कुछ देर असमंजस से घिरा खड़ा रहा। उसने उसे कंधों से हिलाया था, 'जाओ गुसलखाने में जाकर नहा आओ। यह भारी भरकम कपड़े गहने उतारो। कुछ हल्का पहनो। अच्छा लगेगा तुम्हें।'

वह यंत्रवत उठी थी। नहा चुकी तो पहनने के लिए उसके पास हल्का सादा कुछ नहीं था। वह बाथरुम में खड़ी रही। बहुत देर तक बाहर नहीं आई तो पूछा था इस समय यही संभव था। उसने अपना कुर्ता और तहमत जैसे दे दिया था। वह बाहर आई थी सकुचाई हुई-सी। कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर गिरी और सो गई थी।

पिता ने शहर में उसके लिए एक बड़ा-सा मकान ख़रीद दिया था। पंद्रह दिन बाद ही सुनयना नाम की पोटली और उसके साथ ताबेदार औरत को लेकर वह शहर आ गया था। इसमें भी पिता की विवेकबुद्धि सक्रिय थी।

वह डयूटी पर, हर वार्ड में हर सफ़ेद पहने स्टेथेस्कोप लिए जाती लड़की में जुबैदा को ढूँढ़ता था। जुबैदा अब तक क्यों नहीं लौटी? क्या वहीं कस्बे में उसे रोक दिया गया है या उसने किसी दूसरे शहर में नौकरी कर ली है। उसने पता लगाने की भरसक कोशिश की थी। लेकिन कुछ भी पता नहीं चल सका। वह हताश हो चला था - उस दिन ऑपरेशन टेबल पर डाक्टर और नर्सों के मुँह पर बँधे मास्क के ऊपर जुबैदा की आँखों को ढूँढ़ रहा था। आँखें झुकाता तो जुबैदा की उँगलियों को खोजने लगता था। डॉ. शर्मा ने ऑपरेशन रोक कर कहा था, 'डॉ. संजय ठाकुर आपकी तबीयत ठीक नहीं है। प्लीज गो एंड टेक रेस्ट।' और उसकी जगह ऑपरेशन को सँभाल लिया था। वह अपमानित और विखंडित-सा ऑपरेशन थियेटर से निकल आया था। मास्क, दस्तानें, चप्पलें उतार कर जूते पहने और बाहर आ गया था।

सुनयना घर में क्या करती थी, उसे पता नहीं था। उसकी सहायता के लिए ताबेदार औरत थी। वह कब जाता है कितने बजे आता है क्या करता है उसके साथ बैठता बतियाता क्यों नहीं उसने कभी कोई सवाल नहीं पूछा। वह ग्यारह बजे भी घर पहुँचता तो मेज़ पर खाने की थाली सजाए सिर रखे आधी सोई मिलती। वह कई बार उससे कह चुका था कि खाना खाकर सो जाया करे। पर वह अपने सिखाए या सीखे से विचलन नहीं करती थी। ना कभी नाराज़ होती, न उसकी किसी बात का विरोध करती। जितनी देर वह घर में रहता साए की तरह उसके आगे-पीछे डोलती रहती। उसके छोटे बड़े काम सँभालती। उसकी हर सुविधा का ध्यान रखती। कितनी बार मना करने पर भी वैसे ही लगी रहती थी। अब वह सारा दिन और देर रात गए तक अस्पताल में ही रहने लगा था। वह घर पहुँचता तो वैसे ही शांत, शालीन, निर्विकार भाव से उसके लिए तत्पर मिलती। कई बार पिता ने फ़ोन किया था। कस्बे से उसे लेने के लिए रिश्तेदारों को भी भेजा था। परंतु वह नहीं गई थी। उसने उन्हें वापस भेज दिया था।

वह घर आया था देखा वह उसकी शाल ओढ़े सोफे पर सिकुड़ी-सी ऊँघ रही थी। उसकी आवाज़ से चौंक कर उठ बैठी थी। शॉल उतार कर तहाकर रख दी थी। पहले उसे कुछ समझ नहीं आया था। उसने देखा उसने ब्लाउज़ और धोती पहन रखी थी। उसे ध्यान आया था शादी को छह महीने हो चुके थे। सर्दियाँ आ गई थी। उसके पास सर्दी के गर्म कपड़े ही नहीं थे। उसने उसे रोका था। अपराध भाव छिपाने के लिए उसे कहा था - 'गर्म कपड़ा कुछ नहीं पहना?'

वह झिझकी थी। एक बार पलकें उठाकर उसकी ओर देखा था और आँखें झुका ली थीं।
उसने दोहराया था, 'सर्दी नहीं लगती क्या?'
वह जाने के लिए मुड़ी थी। उसने उसे रोक लिया था। अपनी शॉल ओढ़ाकर उसे बाहों से घेरकर भीतर ले आया था। उसने उसे बिस्तर पर बैठाया था। वह टाँगे सिकोड़ कर घुटनों पर चेहरा टिकाकर बैठ गई थी। उसने उसे कंबल ओढ़ाया। कंधों पर छुअन से उसके हाथ काँप गए थे। ब्लाउज़ से उसकी देह उजास रही थी। उसके भीतर एक दहक-सी उठी थी। उसने देखा छह महीने में वह छब्बीस साल की हो गई थी। उसके स्पर्श के सम्मोहन से शिथिल-सी उसकी देह उसकी बाहों में ढल गई थी। वह भी एक निस्पंद चेतना में डूबने लगा था। उसके वक्ष पर ढलकी उसकी औरत ने उसके उनींदें वृतों को चेताया था। भर सर्दी में खिले चटख सेमल के फूल-सी वह उसके समक्ष बिखर गई थी। उद्वेलित होकर वह उसके शरीर के वलयों और भवरों में डूबने लगा था। उसकी देह से हुलसता उफान हिलोरे ले रहा था। उसका शरीर ऐंठ रहा था। छाती में हफन बढ़ रही थी। उसके शरीर की सतह पर पानी पर रखे पत्थर की तरह वह नीचे तल्ले में उतर गया था। उस अर्द्धचेतन स्थिति में वह बड़बड़ा रहा था ज़ुबैदा ज़ुबैदा ज़ुबैदा तुम. . .। उसकी बुदबुदाहट को सुनकर किनारे को भिगोकर गई लहर के बाद सूखे रेत-सी अतप्त और आहत वह थर्राई-सी लेटी रही थी।

अगले दिन अस्पताल जाते हुए मार्केट में रुक कर वह स्वैटर, गर्म ब्लाउज़, शालें ख़रीद कर ले आया था। घर आया तो वह धूप के एक चकत्ते पर बैठी उसके कुर्ते में बटन टाँक रही थी। लिफ़ाफ़े पकड़ते हुए उसके ओंठ काँपे थे, 'पता नहीं तुम्हें क्या पसंद है।' वह झिझका था।
'अच्छा चलता हूँ अब।'

वह उसके पीछे दरवाज़े तक आई थी। खुले दरवाज़े से उसे जाते हुए देखती रही थी। उसी दिन उसने अपना अकाउंट उसके साथ ज्वाइंट करवा लिया था ताकि उसे सुविधा रहे।
उस दिन के बाद से वह फिर से अपनी स्टडी में ही सोने लगा था पहले की तरह। उन दोनों की अपनी-अपनी दुनिया थी। न वह उसकी दुनिया में आने का साहस करती और ना ही वह अपने बीहड़ से बाहर आया था। वह सुबह अस्पताल जाता, देर रात को लौटता। काम और सिर्फ़ काम। यह भी उसका पलायन था। एक शून्य से दूसरे शून्य की यात्रा जैसा। अचानक अस्पताल में उसके कमरे में आकर डॉ. धवन ने बधाई दी थी।

'बाप बनने वाले हो। रिपोर्ट पॉजिटिव है। मिसेज ठाकुर आई थीं। कमज़ोर है कुछ विटामिन वगैरह लिख दिए हैं। तुमने बताया भी नहीं। ख़ैर टेक केयर ऑफ हर।'
वह आहत हुआ था। अपने आश्चर्य को भीतर दबाए वह अपनी पुलक के अहसास को भी भूल गया था।
पता नहीं समय कैसे बीता था। पौ का फटना, अंधेरे को चीरती सूरज की किरणें हवा में घुल आई फुरफुरी, ऋतुपर्णी वृक्षों में लटके पीत पत्तों की तहों से फूटते रक्तिम प्रस्फुटन को उसने किसी को नहीं देखा था। किसी को नहीं महसूसा था।
वह सुबह तैयार होकर जाने लगा था तो भी वह खड़ी रही थी। धीरे से बोली थी, 'जा रहे हैं आप?'
'हाँ' यह भी कोई सवाल है। उसने सोचा था।
'आप कब आएँगे?' उसने पूछा था, ''कुछ चाहिए क्या?'
उसने आँखें उठाई थी, 'नहीं!' दाँतों से ओंठ दबा कर उसकी ओर बिना देखे वह भीतर चली गई थी।

उसी दिन शाम को वह ऑपरेशन थियेटर से बाहर आया तो डॉ. शर्मा आया था प्रफुल्लित-सा, 'बधाई हो डॉ. ठाकुर। जुड़वाँ लड़के हुए हैं।' वह सन्न रह गया था लेकिन सकपकाया था वह।
'आप ऑपरेशन थियेटर में थे। अंबुलेंस भेज दी थी। हाउस मेड थी उसके पास। शी इज़ फाइन। आप उन्हें मिल सकते हैं। रूम नं. 14 है मेटरनिटी वार्ड का।'

उसने उनका नाम जुबिन और असद रखा था। पिता बहुत नाराज़ हुए थे। वे आए थे और विधिवत धार्मिक रीति से उनका नाम संस्कार करा गए थे अर्जुन और कार्तिक। लेकिन तो भी वह उन्हें अपने ही दिए नामों से बुलाती थी। एक दिन उसने कहा था, 'इन्हें इनके नाम से बुलाया करो।' वह रुकी थी, आँख उठाकर देखा था इन्हीं के नाम हैं ये।
'कैसे?' उसने चुनौती-सी देती दृष्टि से उसे देखा था फिर जाने लगी थी।
उसने उसे रोका था, सख़्त-सी आवाज़ में कहा था, 'इनका विधिवत नाम-संस्कार हुआ है। इनके नाम. . .'

वह एकदम उसके सामने खड़ी थी। उसकी गर्दन तनी थी। वह जानता था उसमें प्रतिरोधक शक्ति नहीं थी। लेकिन दूसरी बार उसने महसूसा था। उसमें अपनी तरह एक ज़िद थी। वह ज़िद उसकी शक्ति भी थी और विरोध भी। उसने एक साँस में वाक्य पूरा किया था और चली गई थी।
'आप उस दिन मेरे साथ नहीं थे। आप जुबैदा के साथ थे।'

हाथ से छूटे बर्तन की तरह वह झन्न से ज़मीन पर गिरा था। उसे लगा था किसी ने उसे चाबुक मारा हो। अपने प्रति अन्याय का यह उसका प्रतिकार था।
दो बच्चों के बीच वह बहुत व्यस्त हो गई थी वह अधिक से अधिक समय तक अस्पताल में ही रहता था। वह घर आता तो बच्चे सो चुके होते। जाग भी रहे होते तो वह उनके बीच से निकल कर पहले की तरह उसके पास आती थी और उसके काम सँभालती थी। बच्चे बड़े हो रहे थे। घर से बाहर वह उनकी कूद-फाँद, भागा-दौड़ी, हँसी के ठहाके सुनता पर जैसे ही भीतर आता सब ठहर जाता। घर में उसकी चुप्पी का आतंक छा जाता! इसीलिए बच्चों और उसके बीच भी सामान्य रिश्ता नहीं बन पाया था। स्कूल में उनके नाम अर्जुन और कार्तिक थे पर घर में वह उन्हें जुबिन और असद ही कहती थी। पिता जब भी आते घर में हंगामा होता। वह खामोश दोनों बच्चों को समेटे कमरे में बैठी रहती। परास्त हो पिता लौट जाते थे।

वर्षों तक वह मनुष्य देहों को काटता-सीता रहा। खून मज्जा से सने दस्ताने उतारता रहा और हाथों को कई-कई बार चिलमची में धोता रहा। दूर-दूर तक उसका नाम और यश फैला था। उसकी चुप्पी और प्रतिभा का आतंक था। वह अपनी कीर्ति के गुरुत्वाकर्षण से नीचे और नीचे धँसते गया था। उसे नहीं पता बच्चे कब बड़े हुए। स्कूल कॉलेज में पहुँचे। उन्होंने प्रोफ़ेशनल कोर्स किए। उसी ने उन्हें अपनी निस्वार्थ ममता की हवा, पानी और धूप से सरसाया। बच्चों के विकासक्रम में प्रकृति के खुलते रहस्यों को उसने नहीं देखा। नवजात बच्चों की आँखों में त्वरित चंचलता, ध्वनि तरंगों से तरंगित उनके अंग प्रत्यंगों की लय और बिना आवाज़ मुठ्ठियों का खुल जाना उसने नहीं जाना। पर्वतों से फूटते जलप्रपातों-सी उनकी हँसी उसने नहीं सुनी। चंचल शैशव के आलोड़न से वह वह वंचित रहा। धूप-सी उनकी निर्द्वंद्व निष्पाप और निर्दोष आत्मा से वह भासित नहीं हुआ। बच्चों के समक्ष चेतना जगत के उलझे रहस्यों के खुलने की प्रक्रिया से वह अभिभूत नहीं हुआ। पुस्तकों के माध्यम से यथार्थ जगत में उनका प्रवेश कब हुआ, उसे नहीं पता। कहानियों, कथाओं द्वारा समाज, संस्कृति, इतिहास, परंपराओं, रीतियों, नीतियों का ज्ञान जीवन और जगत के यथार्थ की पहचान उसने उन्हें नहीं कराई।

वह एक उजास भाव से, चेतना और प्रफुल्ल भाव से जुड़ी रही थी उनसे। उसी ने उनका पालन-पोषण किया, उन्हें शिक्षा दी, अपने मूल्य और मान्यताओं द्वारा उन्हें एक संस्कारित व्यक्तित्व प्रदान किया। उनके व्यक्तित्व के निर्माण में उनके शारीरिक विकासक्रम में घटित होती दृश्य स्थितियों के साथ उनके मस्तिष्क के कंप्यूटर में घर में उसकी अनुपस्थिति और उपेक्षा की प्रोग्रामिंग भी हुई होगी। उनके मनों में प्रश्नों के और शंकाओं के कितने काँटे चुभे होंगे। उनके निराकरण का अवसर उसे कभी मिलेगा क्या? उनके चेहरों के भोलेपन के बीच से उद्भासित होती समझ को नहीं जाना उसने। इसीलिए वे कभी कोई समस्या, कोई प्रश्न लेकर उसके पास नहीं आते थे। वही आती थी।

हर महत्वपूर्ण फ़ैसले से पहले छोटे-छोटे वाक्य खंडों में बात कहती थी। बच्चों का दाखिला है। परीक्षाएँ हैं उनकी, बोर्ड का इम्तहान हैं। कौनसा कोर्स लें, इसकी बातें करते हैं वे। बच्चों की परीक्षा का परिणाम आया है। जुबिन ने आई. आई. टी.में दाखिला ले लिया। असद कंप्यूटर साइंस कर रहा है यूनिवर्सिटी से। फिर बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए लौट जाती थीं। उसके पास समय ही कहाँ था। देशविदेश में लेक्चर, सेमिनार, कंसलटेंसी के साथ ही अस्पताल का निदेशक बन जाने के साथ प्रशासन का काम भी उसी का दायित्व था। छुट्टी वाले दिन भी वह घर पर नहीं होता था। समय मिलता तो भी लाइब्रेरी में अपने प्रोफेशन को लेकर आधुनिकतम जानकारियाँ एकत्रित करता बैठा रहता।

वह कुछ नहीं कहती थी तो अपने बारे में नहीं कहती थी। उनके आपसी संवादों के टुकड़ों से उसे सूचना मिलती थी 'मम्मी ने प्राइवेट बी. ए. कर लिया। आज मम्मी का एम. ए. का रिज़ल्ट आया है।' पुरानी गाड़ी बेचने की बात चली तो ड्राइवर ने बताया पुरानी गाड़ी मेमसाब ले जाती हैं बच्चों के काम से। उसे नहीं पता उसने कब गाड़ी चलाना सीखा। समानांतर भागती रेल की पटरियों की तरह ज़ुबैदा ज़िंदगी भर उसके साथ भागती रही थी। अपनी अनुपस्थिति में भी बनी रही थी।

ज़ुबैदा उसके जीवन से अचेतन हुई ही नहीं थी। चेतन में ही प्रवाहित होती रही थी। वह उसकी प्रेरणा बनने की अपेक्षा जीवन विरोधी जड़ता में व्याप्त गई थी। उसके भीतर अदृश्य शक्ति नियति को नहीं माना। अदृश्य द्वारा निर्धारित जीवन में प्रतिफलित होते उलझे अनुत्तरित रहस्यों को नहीं समझा। परिवर्तन और आवर्तन की प्रक्रिया में पल-पल वाष्प बनते, बादलों में घिरते, रिमझिम बरसते समुद्र को नहीं देखा। पर्वत चोटियों से फिसलते जलप्रपातों, और नदियों में बहते समुद्र को नहीं पहचाना। वर्षा की बूँदें उसके घर आँगन की तपती भूमि पर बरसती सूखती रहीं। न वह खुद भीगा न उसे सराबोर होने दिया। वह सूरज को पकड़ने की कोशिश में झुलसता रहा और सुनयना अंधेरों में उजाला फैलाती रही।

जीवन की सुख लालसाओं से परे पूर्ण प्रबुद्ध शक्ति रूप यह स्त्री जीवन कर्म में सतत संलग्न सतत सचेष्ट कर्मरत रही। पर उसकी तंद्रा नहीं टूटी। उसके अंतर्मन पर रात का अंधेरा डैने फैलाए रहा। उसने सुनयना की ज़िंदगी को बीहड़ बना दिया। जो दुख और संग्राम उसने भोगा वह उसी का था पर सुनयना ने क्यों सहा सब? क्यों बिना अधिकारों के कर्तव्य की डोर से बँधी रही? किस अपराध का दंड पाया उसने? उसने न अपना रवैया बदला, न वरीयताएँ बदली। जीवन भर अहंकार और पराजय भाव से जीता रहा। सुनयना में एक सतर्क खामोशी थी वह कभी असहाय या असमर्थ नहीं लगी थी। हमेशा संयमित, संतुलित और स्वैच्छिक। क्या उसकी कोई अपेक्षाएँ नहीं थी? उसकी कामनाएँ, इच्छाएँ और लालसाएँ नहीं थी? इन्हीं इच्छाओं के लिए पिता ने माँ की हत्या करवाई थी। पर उसने क्या किया? क्या वह भी उसे तीस साल तक मारता नहीं रहा। क्या उत्पीड़न शारीरिक ही होता है?

जुबिन आस्ट्रेलिया चला गया था। तीन साल पहले उसने वहीं एक विदेशी मूल की लड़की से शादी कर ली थी। सुनयना गई थी सप्ताह भर के लिए और लौट आई थी। असद अभी बंगलौर में था। बच्चों के चले जाने के बाद वह क्या करती थी? उसने कभी नहीं सोचा। शून्य में ताकती उसकी आँखों की उदासी को उसने नहीं महसूसा। अपने खालीपन को कैसे भरती होगी? उसने कभी जानने की कोशिश नहीं की। एक दबी-सी इच्छा लिए उसने जुबिन से शुरू में पूछा था कि वह डाक्टरी के प्रोफ़ेशन में जाना चाहेगा। उसके चेहरे पर वितृष्णा के भाव थे। वह जान गया था कि दोनों बच्चों को डाक्टर के प्रोफ़ेशन से सख़्त चिढ़ थी। वे क्या करना चाहते थे। यह जानने का अधिकार शायद उसने अर्जित नहीं किया था। बच्चों की माँ और बाप दोनों सुनयना ही थी। घर की दीवारें और आर्थिक देय भर उसका योगदान था। सुनयना के कारण ही दीवारें और छतें घर का रूप धारण किए थे। आज उसे लगा था शायद अस्पताल में दिन रात काम करने के पीछे भी सेवा की अपेक्षा उसका अहंकार था। वास्तविकता से पलायन था।

उसके भीतर एक भीरु पुरुष था। उसके यश का आतंक उसके अहं को ही भासित करता रहा था। स्मृतियों के जंगल में भटकती-अटकती उसकी तीस वर्ष की जीवनयात्रा। उसकी आँखें भर आई थीं। असंख्य टूटे, बिखरे विचारों, भावों, सवालों और समय का समुद्र उसके भीतर दहाड़ रहा था। इस समय सारे दृश्य, चित्र, आकृतियाँ, धुँधली स्पष्ट आवाज़ें और चुप्पियाँ उसके मस्तिष्क में उजागर हो रही थीं। अतीत का सम्मोहन और व्यामोह टूट गया था।

उसे लगा था कि अपने यश और सफलता के घोड़े पर सवार सरपट भागता उसके अहं का सवार अचानक औंधे मुँह गिर पड़ा था। समय के पहियों में धँसा फँसा उसके तीस वर्षों का क्षत-विक्षत जीवन। डूबती हुई नाव से बचाव के लिए हाथ उठाते हुए उसने अचानक जॉर्ज को पुकारा था, 'गाड़ी रोको।'

अचानक दिए गए आदेश से क्री-क्री करती ब्रेक की आवाज़ के साथ जॉर्ज ने बाईं तरफ़ लेकर गाड़ी रोक दी थी। वह गाड़ी से उतरा था। कई फूल वाले साथ-साथ बैठे थे। वह उनके पास रुका था। फूलों का दाम पूछा था। पाँच रुपए का गुलाब पचास रुपए में दे रहा था। वह असमंजस में था, फूलवाले ने उसका चेहरा देखा था। सोचा होगा यह कनपटियों पर सफ़ेद बालों वाला आदमी शायद इतना व्याकुल नहीं होगा। घंटे दो घंटे में सब समाप्त हो ही जाएगा। उसने पूछा था, 'आप क्या देंगे?', फिर खुद ही बोला था, 'जो ठीक समझें दे दीजिए। चलिए आपके लिए 20 रुपए ही लगा देता हूँ।' वह उठकर फूल निकालने लगा था। 'और क्या लगाऊँ साब- कार्नेशन तो लगेगा ही, गिलोडिया कौन से रंग का लगा दूँ। साब टोकरी में लगाऊँ या बुके बना दूँ। टोकरी ही अच्छी लगेगी साब।'

वह स्वयं ही सवाल करता और स्वयं ही उत्तर की शक्ल में फूल निकालकर सजाने लगा था। टोकरी उसने गाड़ी में रखी थी। पैसे लिए थे। सलाम ठोका था।
गाड़ी पार्क करके मन पर भारी बोझ लिए पैर घिसटते से वे आए थे। बारह बजने को थे। 14 फरवरी के आख़िरी आठ दस मिनट थे। उसके अधीर से हृदय में घबराहट हुई थी। पैर थोड़े लड़खड़ाए-से थे। सुनयना कहीं सो तो नहीं गई होगी। उसने घंटी पर उँगली रखी तो अंतर्मन में भीतर आवेग की एक लहर-सी उमड़ी थी। सुनयना ने दरवाज़ा खोला था। टोकरी पकड़े उसके हाथ काँप रहे थे। घबराहट में उसने फूलों की टोकरी सुनयना के हाथों में खिसका दी थी।

'यह तुम्हारे लिए।' सुनयना की पथराई-सी आँखें उठी थीं। आश्चर्य से उसका मुँह खुला रह गया था। वह अविश्वास के इस पल में स्थिर हो गई थी।
उसका गला रूँध गया था आज, 'आज वैलेंटाइन डे है न।'
वह उसे देख रही थी जैसे पहली बार देख रही थी। उसे पहचानने की कोशिश कर रही थी। अपराधभाव उसके भीतर को कचोट रहा था। वह सामने झुका था और उसके पैर छुए थे।
'मुझे माफ़ कर देना सुनयना।'

वह घबराकर पीछे हट गई थी। उन्होंने अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया था। उनका शरीर उसके अंक में शिथिल होकर सिमट गया था। तीस साल का भीतर जो जमा था वह पिघल रहा था। छोटे बच्चे की तरह अवश वह उसकी छाती से चिपक गया था। आश्वासन-सा देती हुई वह उसके बालों को अपनी उँगलियों से सहला रही वत्सल भाव से उसे धीरे-धीरे थपथपा रही थी। स्फटिक शिला-सी वह माँ के, ज़ुबैदा के और सुनयना के विभिन्न रंगों में प्रतिभासित होती लगी थी।
वह कातर-सा छटपटा रहा था, 'तुम मुझे क्यों क्षमा करोगी? फिर क्षमा देने से भी क्या होगा? बसंतोत्सव तो बीत गया। कैसे लौटा पाऊँगा तीस वर्षों का खोया तुम्हारा सब?'

उसका सहलाता हाथ रुका था अप्रत्याशित रूप से वह हँसी थी। उसके चेहरे पर उजास की एक लपट-सी लपकी थी।
लेकिन जो शेष है समक्ष है उसकी संपन्नता के लिए ऐसे निर्वैयक्तिक और जीवंत बोध। सृष्टि में रिक्तता का कोई विधान ही नहीं है। वह यों ही इतने वर्ष छाया के पीछे भागता रहा था। आर्द आँखों के धुंधलके में उसे लगा था उसके समक्ष जो प्रकट है वह उसकी मर्त्य असंगतियों में संगति लाने हेतु है। वह उसके सारे भय, मोह द्वंद्वों, कष्टों के कलुष और दुविधाओं के उच्छिष्ट को बहा ले जा सकती है। पूर्ण प्रबुद्ध जीवन के साक्ष्य में वह अकाटय सत्य की तरह उपस्थित थी। उसे बोध हुआ कि वह मात्र शब्दरूप है और सुनयना उससे निसृत अर्थ। जीवन को सार्थकता देता अर्थ।

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 ९ फ़रवरी २००५

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