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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से प्रियदर्शन की कहानी— 'जो उसके पिता नहीं थे'


उसके पिता नहीं थे वे, लेकिन पिता सरीखे ही लगते थे। करीब सवा छह फुट का वही कद, जिस पर उन्हें नाज़ था, चौड़ा माथा, बड़ी-बड़ी आँखें, घनी मूँछें, निकली हुई नाक, गोल चेहरा, संतों-सी नीचे तक झूलती-सी दाढ़ी। कुरता-धोती उनकी प्रिय पोशाक थी। कुल मिलाकर वे एक बेहद असरदार शख़्सियत थे और सारा गाँव उन्हें पहलवान पुकारा करता था। हालाँकि इस संबोधन में वह नागर बौद्धिकता छिप जाती थी, जो गाँव में पैदा होने और जीवन भर रहने के बावजूद उसके पिता की आँखों में पता नहीं, कहाँ से चली आई थी।

उसके गाँव के आसपास तीन पहाड़ थे और वे गाँववालों की ज़िंदगी का, उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा भी थे। बहुत बचपन में वह अपने पिता को भी किसी पहाड़ की तरह ही देखता था, पास के तीन पहाड़ों की तरह अपने चारों ओर पसरे चौथे पहाड़ की तरह। फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि गाँव के पास के तीनों पहाड़ों का रंग गहरा काला था और उसके पिता ख़ासे गोरे थे। इसलिए वे कभी-कभी बाहर के आदमी लगते थे। शहर से गाँव में आकर बसे हुए। यह एक अजीब-सी बात थी, क्यों कि उसके पिता शहर कभी नहीं आए थे। और आगे चलता हुआ जो आदमी उसे अपने पिता की तरह लग रहा था, उसे वह एक बार पिता पुकार ही लेता, मगर उसने सिर्फ़ इसलिए नहीं पुकारा कि पिता को शहर से बेहद परहेज़ था।

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