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''जब सत्रह साल का था जी तो दिल्ली चला आया था। घर में तंगी थी जी। हालाँकि पिता जी सख्त नाराज़ हुए थे लेकिन मुझे धुन थी कि बड़े शहर जाकर पैसा कमाना है जी।'' बोलते-बोलते उसे एहसास हो चुका था कि वह चेहरे से नहीं, लहजे से पंजाबी हो चुका है। इस आदमी ने बस एक दुखती रग या छुई कि उसे अपने सारे बदलाव नज़र आने लगे। इतना जी-जी करने की आदत उसे कैसे पड़ी? पिता की आवाज़ पतली भले थी मगर लहजे में अपने ढंग की सख्ती थी, जिसे सुनकर अंग्रेज़ अफ़सर ने भी समझ लिया था कि उन्हें जी-हुज़ूरी नहीं आती। मगर पंद्रह साल की नौकरी ने उसके भीतर पुश्तों से पड़ी यह आदत छुड़ा दी। इसकी भी एक वजह वह समझ सकता था।

जिस साल उसे नौकरी मिली थी, उसी साल पिता जी चल बसे थे। संतोष इस बात का था कि उसकी नौकरी की खबर सुनकर गए थे। लेकिन उनके जाते ही उसने खुद को अनाथ महसूस किया। बेहद असुरक्षित, बेहद अकेला और बेहद डरा-डरा। इतना डर उसे उन दिनों भी नहीं लगता था जब उसके पास कोई पक्की नौकरी नहीं रहती थी और उसे यह मालूम नहीं होता था कि शाम को वह खाना या और कहाँ खाएगा। या खाएगा भी या नहीं। शायद पिता की मौत के बाद पैदा हुई दीनता ने उसमें इतनी जी-हुजूरी भर दी थी। वह बहुत दिनों तक हर किसी में अपने पिता को तलाशता था और उससे उसी अदब और आत्मीयता से पेश आना चाहता था जैसे अपने पिता से आया करता था। लेकिन दिल्ली में पिता होने की फुरसत किसी के पास नहीं थी। लोग उसके पिता नहीं रह गए, मगर लोगों को बाप की-सी चापलूसी से पुकारने की उसकी आदत बनी रह गई।

मगर, पिता लगने वाले व्यक्ति को यह आदत जितनी नागवार लगी हो, उससे ज़्यादा दिलचस्प यह तथ्य लगा कि उसके लड़के के बराबर का यह लड़का इतने बरस दिल्ली में गुज़ारकर भी दिल्ली वाला नहीं है। नहीं तो घबराहट के साथ नहीं, हेठी के साथ बोलता। पैसे के गुरूर के साथ बोलता, एक बूढ़े आदमी की सवाल पूछने की हिमाकत को एक हिकारत के साथ देखता हुआ बोलता। उसका अपना लड़का भी दिल्ली में था और दिल्ली ने उसे उसका लड़का नहीं रहने दिया था। वह भी पैसे कमाने आया था, उसने कमाए भी, लेकिन दिल्ली ने उसे उतना कमाने की इजाज़त नहीं दी जितना वह चाहता होगा या जितने के लिए मेहनत करता होगा। इसलिए वह झल्लाया हुआ रहता था और पिता के किसी भी सवाल का जवाब बंदूक की गोली की तरह देकर किनारे हो जाता था।

बूढ़े ने सोचा भी न था कि वह जिस लड़के को अपने असली लड़के में खोजता हार गया था, वह अचानक उससे व त पूछता मिलेगा और कहेगा कि वह उसके पिता जैसा...
''पिता यों मना कर रहे थे दिल्ली आने से?'' इस बार बूढ़े ने मुलायमियत से पूछा। यों का जवाब भी उसके पास नहीं था। वह अपने भीतर टटोलता रहा यों का जवाब। पिता शहर को नापसंद करते थे। मगर यों? उन्हें कैसे पता चल गया था कि शहर बहुत बड़ी जेलें होते हैं जो ढेर सारी सहूलियतों देते हैं मगर आज़ादी नहीं देते। वे सब कुछ करने देते हैं, मगर उनका एक हाथ तुम्हारी गरदन पर पड़ा होता है, ज़रा भी लापरवाही की या शहर के तौर-तरीके भूले कि गरदन गई। या संतों-सी झूलती उनकी दाढ़ी के पीछे वाकई उनके संत होने की सचाई छिपी थी?
''पता नहीं, लेकिन ठीक मना करते थे। उस वक्त मान जाता तो...'' उसे फिर लगा कि उसने कोई बेतुकी-सी बात कह दी है। मान जाता तो क्या होता। दिल्ली में कौन-सा दुख है। कश्मीर के भी तो अपने दुख होते। ज़्यादा-से-ज़्यादा कश्मीर कुछ आज़ादी देता और सुरक्षा का थोड़ा वहम देता। मगर असली सुरक्षा तो दिल्ली देती है। सुरक्षा बड़ी है या आज़ादी? असुरक्षित आज़ादी किस काम की? मगर फिर गुलामों की-सी सुरक्षा भी कैसी। खटते और खाते रहने से जीना भी हो जाता है या?

यह एक पुराना सवाल था जो कई-कई तरह से कई-कई अवसरों पर उसके भीतर आया करता था। अभी इस सवाल के उग आने की या वजह थी? शायद यह बूढ़ा आदमी, जो उसके पिता की तरह लगता था और जो बात अपने पिता के जीवित रहते वह उनके सामने स्वीकार नहीं कर सका, उसे स्वीकार करने की एक बेहद तेज़ इच्छा उसके भीतर पैदा हो आई थी। आखिरकार उसने कह ही दिया, ''आप मेरे पिता की तरह लगते हैं। मतलब सिर्फ़ उम्र में ही नहीं, देखने में भी।'' उसकी आवाज़ इतनी आत्मस्वीकृति में ही लड़खड़ाने लगी थी, इसलिए किसी फ़र्क को चिह्नित करना ज़रूरी था। ''बस उनकी आवाज़ आपसे अलग थी।''

मगर बूढ़े ने शायद यह आखिरी पंक्ति नहीं सुनी। उसकी आवाज़ जैसी भी हो, पहली बात से ही गुम हो गई थी। अपने जिस लड़के को वह अपने असली लड़के में खोजता-खोजता हार गया था, वह अचानक उससे वक्त पूछता मिल जाएगा और उसे बताएगा कि वह उसके पिता जैसा लगा है, इसकी कल्पना भी नहीं की थी उसने। उसके सवाल भी ख़त्म हो चुके थे। दरअसल वे उसके सवाल थे भी नहीं। यह वे सवाल थे जो बरसों से उसके भीतर अपने लड़के से पूछने के लिए अटके पड़े थे। वह कई बार उससे पूछना चाहता था कि वह कहाँ का है, कब आया है और यों आया है। उसने उसे कभी दिल्ली आने को मना नहीं किया था। शहरों को वह अपने किसी हमशक्ल बूढ़े की-सी नफ़रत के साथ नहीं देखता था। वह उन्हें नई दुनिया के नुमाइंदों की तरह देखता था, जहाँ गाँवों के छोटे-छोटे वैमनस्य नहीं होंगे, अभाव नहीं होंगे, भूख नहीं होगी, जातियाँ और मज़हब नहीं होंगे। ऐसा उसे उन अख़बारों और नेताओं ने बताया था जो आज़ादी के बाद एक सुंदर सुबह का वादा करते थे।

शहर ने उसके बेटों को भूखा रखा भी नहीं था। मगर इंसान की तरह नहीं पाला था। किसी ऐसी भेड़ की तरह पाला था जिसकी बलि चढ़नी हो। पंखे बनाने वाली एक मशहूर कंपनी में पंखे रंगने का काम करता उसका बेटा, उसे रोज़ लगता कि शहर की थोड़ी-थोड़ी बलि चढ़ता है। शहर उसे खा रहा था, इतना तो खा ही चुका था कि अब वह उसका बेटा नहीं रह गया था। पहली बार शहर आने पर उसने जिस उल्लास से उसका स्वागत किया था, वह न जाने कहाँ काफूर हो चुका था। अब उसकी जगह झुँझलाई आंखों का सूनापन था और इन आँखों को वह अपने बेटे की आँखों की तरह नहीं पहचान सका था।

यह दिल्ली का एक चौराहा था, शाम अंधेरे का आँचल पकड़ रही थी, दुकानों की रोशनियाँ आँखों में चुभने लगी थीं, गाड़ियों का धुआँ, शोर और बेतरतीब प्रकाश, सब मिलकर एक खोए हुए बाप और एक भूले हुए बेटे के चेहरों पर इस तरह आ जा रहे थे कि वे इंसान नहीं रह गए थे, रोशनियों से नहाए बुतों में बदल गए थे। मगर जो दौड़ रहे थे, चल रहे थे, भाग रहे थे, गाड़ियाँ चला रहे थे, सामान खरीद रहे थे, मोल-भाव कर रहे थे, भीख दे रहे थे, सिर्फ़ झुंझला रहे थे या हँस रहे थे, वे लाखों-लाख इंसान इन बुतों के मुकाबले ज़्यादा बेजान लग रहे थे। एक-दूसरे को सहसा पहचान लेने के भाव ने उन बुतों को कुछ इस तरह ज़िंदा कर दिया था कि इनकी गरदन पर पड़ा शहर का हाथ छिटककर कहीं दूर जा गिरा था और वे ज़िंदा लोगों की तरह इस एहसास के साथ मुस्करा रहे थे कि फिर मिलेंगे और किसी चौराहे पर वक्त या रास्ता पूछते हुए सहसा एक-दूसरे को पहचान लेंगे।

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९ जून २००८

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