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उनको गुज़रे हुए हालाँकि पंद्रह साल हो चुके थे, फिर भी शहर से उनके परहेज़ को उसने अपने भीतर बचाकर रखा था। सिर्फ़ एक स्मृति की तरह नहीं, बल्कि एक आदत की तरह, जो शहर में इतने साल गुज़ारने के बाद भी गई नहीं थी। फिर भी उसकी इच्छा हो आई कि वह एक बार इस आदमी से बात करे, जो उसके पिता की तरह दिखता है। इसलिए नहीं कि वह उसके पिता की तरह बात करेगा, बल्कि इसलिए कि बात करके ही उसे उससे अपने पिता की भिन्नता का पूरा एहसास होगा। आगे चलता हुआ एक व्यक्ति अगर आपके पिता जैसा लगे-भले ही वह इस बात से बेखबर हो-वह थोड़ा-सा पिता तो हो ही जाता है।

वह बहुत दिनों तक हर किसी में अपने पिता को तलाशता था और उससे आत्मीयता से पेश आना चाहता था। मगर दिल्ली में पिता होने की फ़ुरसत किसी के पास न थी।

इस अनजाने, बेखबर पितृत्व की अचानक उग आई बेल को काटकर फेंकना होगा। और इसके लिए यह ज़रूरी है कि इस आदमी से बात की जाए। बात करने की इस बेचैनी की वजह भी वह समझ रहा था। एक तो उसे यकीन था कि जो दिखने में समान होते हैं, वे बातचीत में अलग हो जाते हैं। जिनकी आँखें, नाक, गोराई या कद-काठी आपस में मिलती हो, उनकी बातें नहीं मिलतीं। उनकी तकलीफ़ें अलग होती हैं, उनकी स्मृतियाँ अलग होती हैं, उनका लहजा अलग होता है, उनकी आवाज़ अलग होती है। दूसरी वजह इस आवाज़ से ही फूटती थी। उसके पिता की शानदार शख़्सियत में सबसे बेमेल चीज़ उनकी आवाज़ ही थी। एक बेहद पतली आवाज़, जैसे पहाड़ के नीचे से एक संकरी-सी नाली बह रही हो। यह एक अच्छी आवाज़ नहीं थी। जब वे बोलते थे तो लोगों को पहले यकीन नहीं होता था कि वही बोल रहे हैं। लोग इधर-उधर देखने लगते थे, जैसे किसी बादशाह की तरफ़ से उसका चापलूस दीवान बोल रहा हो। लेकिन बाद में उन्हें एहसास होता कि यह पतली-सी आवाज़ इसी शानदार गले से निकली है तो पहाड़ उनकी निगाह में कुछ छोटा हो जाता।

अपनी आवाज़ की इस कमज़ोरी का एहसास पिता को भी था। इसीलिए वे कम बोलते थे। उन्होंने देर-देर तक मौन रहने का एक अभ्यास-सा साध लिया था। रास्ते में उन्हें देखकर कोई प्रणाम करता तो वे सिर हिलाकर जवाब देते या फिर हाथ जोड़कर प्रणाम लौटा देते। कोई घर आता और उनसे बात करने की कोशिश करता, तब भी वे बहुत देर चुप रहते और मुस्कराते हुए या संजीदगी से बात सुनते रहते। शायद उनके चेहरे की बौद्धिक छुअन इसी चुप्पी की देन थी। वे कम बोलते थे, मगर चाहते थे कि सामने वाले को यह न लगे कि वे उसकी अवहेलना कर रहे हैं। इसलिए उनकी मुस्कराहट बड़ी आत्मीय होती। ऐसे ही अभ्यास से उन्होंने अपनी आँखों में बहुत कुछ समझ लेने का एक भाव विकसित कर लिया था। यह भाव लोगों के मन में उनके प्रति सम्मान का भाव जगाता था। उसे याद नहीं है, मगर लोग बताते हैं कि १९४०-४१  में जब एक अंग्रेज़ अफ़सर जनगणना के सिलसिले में उनके गाँव आया था और गाँव के किसी समझदार आदमी से मिलना चाह रहा था तो गाँववाले सीधे उसे पिता के पास ले गए थे। पिता ने उससे भी कुछ कहा नहीं था, सिर्फ़ मुस्कराहट और आँखों के चौकन्नेपन के ज़रिए उससे बात की थी, और हालाँकि उस अंग्रेज़ अफ़सर को उन पर कुछ शुबहा-सा हुआ था, मगर उसने उन पर भरोसा करना उचित समझ।

वे दूसरी बड़ी जंग के दिन थे और जासूस गाँव में जाकर भी छिपे होते थे। तो इस आगे चलते हुए आदमी से बात करना ज़रूरी था। कोई दूसरा भी अपने पिता सरीखा लगे, यह उसे गवारा नहीं था। उसने तय किया कि वह तेज़-तेज़ चलता उनके बराबर पहुँचेगा और उन्हें टोकेगा। लेकिन या कहेगा? बात करने के बहुत-से बहाने हो सकते हैं। वह वक्त ही पूछ सकता है। वक्त नहीं तो रास्ता। इस शहर में वक्त के पीछे लोग जितना भागते हैं उतना ही रास्तों में भी गुम हो जाते हैं। वक्त क्या हो रहा है चाचा जी?'' चाचा जी बोलते-बोलते उसने खुद को कोसा। यह रिश्ता जोड़ने की ज़रूरत क्या थी। ज़्यादा-से-ज़्यादा भाई साहब कहके काम चलाया जा सकता था। उसने भाई साहब कहने की ही सोची थी, मगर यह कमबख्त चाचा जी कहाँ से निकल गया। चाचा जी बोलने का तो उसे अभ्यास भी नहीं है। जरूर बूढ़े की उम्र के चलते निकल गया होगा। मगर फिर वह जान गया था कि यह खुद को धोखे में रखने की ही कोशिश है। कई बूढ़ों को वह भाई साहब बोलने की भी ज़हमत नहीं उठाता था। ज़रूर यह बूढ़ा कहीं-न-कहीं उसका पिता बन बैठा है, इसीलिए अनजाने में ही उससे यह संबोधन निकल गया।

अनजाने में ही निकले इस संबोधन ने उस बूढ़े को भी चौंकाया था। उसे भी पता चल गया था कि पूछने वाले की दिलचस्पी वक्त में कम, उसमें ज़्यादा है। इसलिए उसने वक्त बताने की परवाह नहीं की और पूछा, कहाँ के हो। उसने फिर एक बार खुद को फँसा हुआ महसूस किया। अब या बताए कि वह कहाँ का है। यही सवाल तो उसे न जाने कब से परेशान करता आ रहा है। या उसे खुद भी ठीक-ठीक भरोसा है कि वह कहाँ का है? वक्त पूछने की अपनी हड़बड़ी पर पछताते हुए उसने उन दिनों को याद किया जब वह भरोसे के साथ कह सकता था कि वह कश्मीर का है। मगर अब कैसे कहे। कश्मीर तो उसने पढ़ाई के तुरंत बाद छोड़ दिया था और सिर्फ़ नातेदारी के ब्याह, मुंडन और मौतों के अवसर पर जाया करता था। वह भी जबसे हालात बिगड़े, छूट गया। मगर यह भी कैसे कहे कि वह दिल्ली का है।

दिल्ली में बीस साल से रहते हुए और यहाँ मकान ख़रीद लेने के बाद भी या वह दिल्ली का हो पाया है? अगर दिल्ली का हो पाता तो या मरने के पंद्रह साल बाद अचानक उसके पिता उसे याद आने लगते? मगर यह एक वाहियात तर्क था। या दिल्ली वाले अपने मरे हुए बाप को याद नहीं करते, भले ही वे कहीं भी पैदा हुए हों? इसके अलावा सरकारी कामकाज के फॉर्म भरते हुए और बड़ी मेहनत से बनवाए हुए और उतने ही जतन से संभालकर रखे गए मैले-कुचैले राशन कार्ड को या बैंकों से लेकर दूसरे दफ़्तरों तक में अपने दिल्ली वाला होने के प्रमाण के तौर पर वह पेश नहीं करता है? या उसका पंद्रह साल का बेटा दिल्ली के बाहर किसी दूसरे शहर को अपना घर बताने की सोच सकता है? घर बाप से बनते हैं या बेटों से?

इतनी देर की चुप्पी बूढ़े को खल सकती थी। इसलिए उसने अपने से जिरह ख़त्म कर दी और मान लिया कि वह दिल्ली का ही है। दिल्ली का नहीं होता तो वक्त नहीं, रास्ता पूछता। लेकिन जिसे उसने चाचा कहा था, उस बूढ़े‍ को यकीन नहीं था कि वह दिल्ली का है। दिल्लीवाले इतने बदनाम यों हो गए हैं? इसलिए उस चाचा जी ने कुरेदा, ''अब न दिल्ली में रह रहे होंगे, आए तो किसी गाँव से ही होंगे। शक्ल से तो पंजाबी लगते हो।'' उसे सख्त अफ़सोस हुआ। उसका चेहरा भी उसकी कश्मीरियत का बयान नहीं करता है। या चेहरे भी इतने बदल जाते हैं? वह पंजाबी कब से लगने लगा? कश्मीरियों का चेहरा तो एक बार बनता है तो जीवन भर कश्मीरी ही बना रहता है। फिर इस बूढ़े ने बदमाशी की या? जो भी हो, उसने बताया कि वह कश्मीर का है मगर कई सालों से दिल्ली में है।

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