मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


पति ने राजेश्वरी की नर्म हथेली को अपने मज़बूत हाथों के बीच रखते हुये आगे कहा- तुम कब से कह रही हो कि मैं मेन मार्केट में तुम्हारे लिये एक दुकान खरीद दूँ। यहाँ कॉलोनी में तुम अपना पार्लर कहाँ तक बढ़ाओगी? मैं ऐसा करता हूँ कि आज ही से एक बड़ी-सी दुकान ढूँढना शुरू किये देता हूँ। जैसे ही मिल जायेगी, तुम्हारे ब्यूटी पार्लर के लिये खरीद दूँगा। खुश?

नहीं, अब मैं कॉलोनी में ही पार्लर चलाऊँगी। राजेश्वरी के चेहरे पर सुलगती-सी दृढ़ता थी।
देखो राजो, व्यापार दिमाग से किया जाता है दिल से नहीं। समझी! और तुम्हारा ये जो अहम है ना, इसे नही छोड़ोगी तो बडा़ घाटा उठाओगी। वे झुँझलाकर उठ गये।
अगले कई दिनों तक राजेश्वरी दुविधा में रहीं और फिर एक दिन उन्होंने करिश्मा ब्यूटी पार्लर को खुद ही जाकर देखना तय किया। इसके लिये उन्होंने एक सूनी-तपती दोपहर चुनी।
गाड़ी सड़क के उस पार रख चैंकन्नी-सीं वे पार्लर में घुसीं।
एक सौम्य मुस्कुराहट ने उनका स्वागत किया।
आईये, बैठिये। क्या करवाना है आपको?
जी...वो...वो मुझे...हाँ, मुझे फेशियल करवाना है। वैसे, आपका नाम क्या है? और बात करने के लिये उन्होंने प्रश्न जोड़ दिया।
गायत्री।- नर्म आवाज़ में छोटा-सा उत्तर मिला।

वह फेशियल की तैयारी करने लगी और राजेश्वरी ने ग़ौर से उसे देखा, शृंगारविहीन चेहरा साधारण होते हुये भी सुन्दर था। सौम्यता और नरमी से सजे-सँवरे उस चेहरे में वो रहस्यमयी आकर्षण था जो लाख सौन्दर्य प्रसाधनों के प्रयोग से
भी चेहरे पर नहीं आता। उस चेहरे पर वो ताप था जो श्रम की गुरूता और ईमानदारी की आँच से पैदा होता है।

राजेश्वरी ने चारों ओर देखा। पुरानी साड़ी का झीना-सा पर्दा डाल हॉल को दो कमरों-सा बना दिया गया था। इस ओर ब्यूटी पार्लर था जिसमें कुछ नये, कुछ पुराने सौन्दर्य प्रसाधन सुव्यवस्थित-से रखे थे। अधखुले पर्दे के उस ओर एक परिवार के रहने की व्यवस्थाएँ थीं। एक कोने में मामूली बर्तन, डिब्बे-डिब्बियाँ और स्टोव था, वह रसोई होगी। दूसरे कोने में बच्चों के कपड़े और दो स्कूल बैग रखे थे, वह बच्चों के पढ़ने का कमरा होगा। ताक पर दुर्गा जी की मूर्ति, माटी का दीया, माचिस और अगरबत्ती का पैकेट था, वह मंदिर होगा। दीवार से सटे कुछ चादर, तकिये और चटाईयाँ करीने से रखे थे, वह स्टोररूम होगा। बीच की जगह पुरानी चटाई से ढँकी थी जो दिन में बच्चों के खेलने को आँगन और रात में पूरे परिवार का शयनकक्ष होगी। राजेश्वरी ने हॉल के उस आधे हिस्से में पूरा एक घर देखा। एक नन्ही-सी लड़की गायत्री की मदद कर रही थी। यही कोई ग्यारह-एक साल की। दिखने में हू-ब-हू गायत्री सी। चेहरे के भाव भी गायत्री जैसे ही थे, पर दबे-दबे-से मानो चाँद स्याह बादलों में दब गया हो और कोरों पर दमकती किरणों से उसके अस्तित्व का अंदाज़ा भर मिल रहा हो।

यह आपकी बेटी है?
जी।- फेसपैक बनाते हुये गायत्री ने कहा।
तुम्हारा नाम क्या है बेटा?
करिश्मा।
अच्छा, तो मम्मी ने अपनी लाड़ली के नाम पर पार्लर खोला है!
लड़की बस मुस्कुराई।
कौन-सी क्लास में पढ़ती हो?
पिछली साल पढ़ती थी, पाँचवी में। पता है आँटी मैं हमेशा फर्स्ट डिवीज़न से पास होती थी। उसका चेहरा चटकती कली-सा खिल गया।
और इस साल? राजेश्वरी को उसका खिलना भला-सा लगा।
अब, मैं स्कूल नहीं जाती। मेरे दोनों छोटे भाई स्कूल जाते हैं। पल भर पहले खिला चेहरा कुम्हला गया।
क्यों? तुम स्कूल क्यों नहीं जाती? चिंतित-से भाव से वे चैंकी।
मैं मम्मी के साथ पार्लर में काम करती हूँ। आँटी, मुझे बड़ी होकर मम्मी जैसी अच्छी ब्यूटीशियन बनना है ना इसीलिये
मैं स्कूल नहीं जा पाती।- नन्ही-सी बच्ची ने प्रौढ़ता ओढते हुये कहा। उसकी नरम आँखों में अपार विवशता थी।

ये अगले साल से स्कूल जायेगी।- फेसपैक लगाते हुये उसकी माँ ने कहा जिसके चेहरे पर विचित्र-सी पीड़ा उभरी थी।
राजेश्वरी लौट आयीं, अपने भीतर पूरा का पूरा करिश्मा ब्यूटी पार्लर लिये।
और फिर वे अक्सर वहाँ जाने लगीं। सीधी-सरल गायत्री से दोस्ती करने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा। उन्होंने गायत्री को अपना नाम छाया बताया।
गायत्री, तुमने इसी कॉलोनी में पार्लर क्यों खोला?
क्या बताऊँ छाया दीदी, मेरी कहानी बड़ी लम्बी है।- कहते-कहते वो उदास हो गई।

राजेश्वरी ने उसके कंधे पर अपनत्व का हाथ रखा और उसका दुख आँखों में उतर आया, दीदी, मैं इसी शहर की रहने वाली हूँ। ससुराल भी यहीं है, मायका भी यहीं। दो बरस पहले तक मैं भी दूसरों की तरह सुखी गृहस्थन थी। मेरा दुर्भाग्य उस दिन से शुरू हुआ जिस दिन मेरे पति को साँप ने डस लिया। उनके प्राण पखेरू उड़ते ही इस संसार में मेरा और मेरे बच्चों का कोई पालनहार न रहा। देवर-देवरानी किसी भी तरह से मुझे घर से निकाल कर मेरे पति के हिस्से की ज़मीन-जायदाद हड़प लेना चाहते थे। सास-ससुर भी उन्हीं की तरफ़दारी करने लगे। मैं और मेरे बच्चे कितनी ही बार उनके हाथों पिटे, कितनी ही रातें भूखे सोये। कुछ दिनों तक मैं सब सहती रही, पर अपने बच्चों को भूखा कब तक देखती? मैंने अपना खर्चा चलाने के लिये मिठाई की एक छोटी-सी दुकान खोल ली।

पृष्ठ : . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।