| 
                     
					 बस..... 
					वो बच्चों की तरह रोते हुये बोल रही थी, ...बस छाया दीदी, 
					उन्हें बहाना मिल गया, हमें घर से निकाल फेंकने का। शराबी ससुर 
					और देवर ने मेरी दुकान का सामान सड़क पर फेंक दिया और मुझे 
					पीटने लगे। मेरे साथ मेरे तीनों बच्चे भी पिट रहे थे। यहाँ तक 
					कि उन्होंने मेरे पाँच साल के छोटे बेटे को भी नहीं बख्शा ! 
					देवर उसके चेहरे पर बड़ी बेरहमी से थप्पड़-पे-थप्पड़ मारे जा रहा 
					था। हम मदद के लिये चीख-चिल्ला रहे थे, पर बचाने कोई नहीं आया। 
					इससे पहले कि मैं पिटते-पिटते गिर पड़ती या मेरे बच्चे लहूलुहान 
					हो जाते, मैंने तीनों बच्चों को साथ लिया और हम सब नंगे पैर ही 
					वहाँ से भाग आये।... गायत्री का दुख आँसुओं में बह रहा था,... 
					उस दिन को मैं कभी नहीं भूल सकती, जब तेज़ धूप में तीनों बच्चों 
					को लिये नंगे पैर, रोती-बिलखती मैं दिन भर पैदल चली और शाम को 
					मायके पहुँची, पर वहाँ भी हमें गले लगाने को कोई न था। 
					 मेरे बाबूजी 
					नहीं हैं। बस, एक बूढ़ी माँ हैं और भईया-भाभी हैं। हमें देखते 
					ही भाभी ने मुँह फेर लिया और भैया उठकर बाहर चले गये। बस, एक 
					बीमार, बूढ़ी अम्मा ही थीं जो अपनी बेटी की दुर्दशा देखकर 
					फूट-फूटकर रोयीं थीं।.... आँसू पोंछते हुये वह बोलती रही,..... 
					मैं मायके में रहने लगी, पर छाया दीदी, भगवान ने ही जिसका साथ 
					छोड़ दिया हो, उसका साथ भला कौन देता है! भाभी ज़रा-ज़रा से काम 
					को लेकर रोज़ ही लड़ने लगीं। अपने बच्चों को अच्छा खाना खिलातीं 
					और जब मेरे बच्चे खाने को बैठते तो कह देतीं कि खाना खत्म हो 
					गया। एक-एक सूखी रोटी खाकर ही मेरे बच्चे सो जाते। अपने बच्चों 
					की दुर्दशा कब तक सहती? मैं बारहवीं पास थी। कुछ दिनों तक 
					नौकरी के लिये मारी-मारी फिरती रही। जब नौकरी नहीं मिली तो 
					कॉलोनी के एक पार्लर में ब्यूटीशियन का काम सीखना शुरू कर 
					दिया। इसके साथ-साथ सिलाई भी सीखने लगी। दिनभर पार्लर का काम 
					करती थी और शाम को घर लौटकर खाना पकाती, बर्तन माँजती, कपड़े 
					धोती और अपने बच्चों को नहलाती। रात में धरती पर दरी बिछाकर जब 
					अपने बच्चों के साथ मैं सोती तो शरीर का पोर-पोर दुख रहा होता, 
					पर छाया दीदी, मैंने हार नहीं मानी। अपने बच्चों को देख-देखकर 
					मुझे काम करने की हिम्मत मिलती रही और मैं दिन-रात काम करती 
					रही। 
					 
					राजेश्वरी भौंचक-सी उस दृढ़ स्त्री को देख रही थीं। 
					 
					.... एक साल बीत गया। जब कोर्स पूरा हो गया तो मैं उसी पार्लर 
					में नौकरी करने लगी। पार्लरवाली मैडम मेरी दशा ख़ूब जानती थीं 
					सो उन्होंने भी मेरा फायदा ही उठाया। वे ख़ूब काम करवाती थीं। 
					सबेरे नौ बजे से रात के आठ बजे तक मैं ब्यूटी पार्लर संभालती 
					थी और उनके घर के भी कई काम करती थी और वेतन मिलता था बस छह सौ 
					रूपये! और वे छह सौ रूपये भी भाभी घर खर्च के नाम पर छीन लेती 
					थीं। तीन महीने बाद मैंने नौकरी छोड़ दी। एक पहचानवाली ने इस 
					कॉलोनी के बारे में बताया कि यहाँ चार-पाँच कॉलोनियों के बीच 
					में एक ही पार्लर है सो भी बड़ा मँहगा ! उसकी बातों से मुझे लगा 
					कि इस कॉलोनी में अगर मैं ब्यूटी पार्लर खोल लूँगी तो अपने 
					बच्चों को अच्छी तरह पाल-पोस लूँगी, पर मेरे पास पार्लर खोलने 
					के लिये रूपये नहीं थे। अम्मा ने अपने सोने के फूल बेचकर 
					पार्लर का कुछ सामान खरीद दिया और इस हॉल का एक महीने का 
					किराया मकान मालकिन को दे दिया। भाभी को यह बात इतनी नागवार 
					गुज़री कि उसी रात उन्होंने मुझे धक्के मारकर घर से बाहर निकाल 
					दिया। रात ही में मैं और मेरे बच्चे अपना सामान उठाकर पैदल 
					यहाँ चले आये। गायत्री ने अपने फटे पल्लू से चेहरा पोंछते हुये 
					कहा, ....अगली सुबह मेरे पास इतने भी रूपये नहीं थे कि बच्चों 
					के लिये दूध खरीद सकूँ या चाय बना सकूँ, पर छाया दीदी, मैंने 
					हिम्मत नहीं हारी। बच्चों के सामने रोई नहीं। बेटी को साथ लेकर 
					आस-पास के सब मकानों में गई अपने पार्लर का प्रचार करने। 
					दो-तीन घण्टे प्रचार करके हम लौटे और माँ दुर्गा से प्राथर्ना 
					करने लगे कि वे हमारे पार्लर में ग्राहक भेजें ताकि दोपहर में 
					भी हम भूखे न रहें। माँ दुर्गा को आखिर मेरे भूखे बच्चों पर 
					दया आ ही गई और उन्होंने हम सब के आँसू पोंछे, करिश्मा ब्यूटी 
					पार्लर में पहली ग्राहक आई, फिर दूसरी और फिर तीसरी। उस दोपहर 
					मैंने अस्सी रूपये कमाये और फिर कई दिनों के बाद उस दिन मेरे 
					बच्चों ने भरपेट खाना खाया - वह चुप हो गई। 
					 
					राजेश्वरी स्तब्ध थीं। मुँह से शब्द नहीं निकले, आँखों से 
					टप-टप आँसू गिरने लगे। ये आँसू नहीं थे, लेश, ईष्या और अहंकार 
					के भाव थे जिन्हें मन ने चुपके से आँखों के रास्ते बहा दिया था 
					और अब राजेश्वरी के भीतर बचा था एक साफ और करूण मन। गायत्री ने 
					राजेश्वरी की आँखों में आँसू देखे तो छोटी बहन-सी उनके गले लग 
					गई।  
					कुछ देर बाद वे दोनों सहज थीं। 
					 
					अच्छा गायत्री, अब तो तुम्हारा पार्लर अच्छा चलता है ! अब तुम 
					करिश्मा को स्कूल क्यों नहीं भेजतीं? कितनी होनहार बच्ची है, 
					उसका भविष्य क्यों खराब करती हो? 
					 
					दीदी, आप तो जानती ही हैं कि कॉलोनी में सालों पुराना, भव्य 
					ब्यूटी पार्लर है। ज़्यादातर औरतें अभी भी वहीं जाती हैं। मैं 
					बस इतना ही कमा पाती हूँ कि गुजर-बसर हो जाती है। दोनों बेटों 
					की स्कूल फ़ीस भरना ही मुष्किल पड़ जाता है फिर करिश्मा को स्कूल 
					कैसे भेजूँ? 
					 
					अगर भव्य ब्यूटी पार्लर इस कॉलोनी में न होता तो ? राजेश्वरी 
					ने निर्णय लेने के-से लहजे में पूछा। 
					तो....तो मेरा ब्यूटी पार्लर ख़ूब चलता और मेरी करिश्मा भी 
					स्कूल जा पाती। कल्पना मात्र से गायत्री का चेहरा यों चमकने 
					लगा मानो उसकी बेटी सच में, स्कूल जाने लगी हो। 
					राजेश्वरी लौट आयीं। 
					 
					रात में सोने से पहले पति से बोलीं- बाज़ार में एक अच्छी-सी 
					दुकान देख लीजिये। अपना पार्लर इस कॉलोनी से हटाना है।  |