उनका
अपना मकान इसी शहर में था। अस्थाना साहब के पहले जो मैनेजर थे
वे नीलू वाले हिस्से में ही रहते थे। दर असल यह हिस्सा था ही
आफिस के मैनेजर के लिये। अस्थाना साहब के न रहने से मकान मालिक
को किरायदार ढूँढना पड़ा था। बहुत शशोपंज में पड़े थे नीलू और
नितिन जब मकान देखने आए थे। अस्थाना साहब ने ही कहा था। नहीं,
आप लोगों को कोई दिक्कत नहीं होगी बल्कि सहयोग ही मिलेगा। और
सच में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। आफिस के सारे कर्मचारी
युवक ही थे। अपने में मस्त रहते। अस्थाना साहब के घर के लिये
रवाना होते ही और मौज मस्ती में आ जाते। मेज को तबला बनाकर खूब
गाते। कभी फिल्मी गाने कभी भोजपुरी लोक गीत। कभी पाप सांग कभी
शास्त्रीय गीत भी। खूब ठहाके लगते। लेकिन नितिन और नीलू से अदब
से पेश आते। वे जब जरूरत हो आफिस जाकर फोन कर लेते।
नितिन का फोन अभी इस घर में नहीं लग पाया
था और मोबाइल अभी चलन में नहीं आ पाया था।
मगर इधर
अस्थाना साहब का तबादला हो गया था उन्होंने ही बताया था नया
मैनेजर पहले सेना में मेजर था। सचमुच उसने आते ही सेना का
अनुशासन लागू कर दिया था आफिस में। सारे दिन आफिस में कड़क
सन्नाटा छाया रहता सिर्फ मैनेजर की धीमे सधे हुए मर्दाना स्वर
में दी गई हिदायतें सुनाई देतीं। नितिन ने एक दिन बताया था मैं
फोन करने गया था तो इस मैनेजर को थोबड़ा लटक गया था। इसी कारण
वह बाबूजी से बार बार कह रही थी आप मुझे नंबर और मैसेज दे
दीजिये तो मैं मोड़ के टेलीफोन बूथ में जाकर कह दूँगी। आप तो
उतनी दूर चल नहीं सकेंगे। मगर तब बाबू जी बिगड़ने लगे थे। कि
उनका खुद बात करना बहुत जरूरी है।
मन मारकर वह बोली चलिये बाबू जी।
बाबू जी को संभालकर पकड़े हुए वह मैनेजर के कक्ष तक पहुँची।
नया मैनेजर अपनी रौबीली आवाज में अपने सामने खड़े दो सहायकों
को झिड़क रहा था। दरवाजे पर एक संभ्रांत वृद्ध एवं के शालीन
रमणी को देखकर औपचारिकतावश बोल गया। आ जाइये आप लोग। कई लोग
बैठे थे आफिस में। सिर्फ एक कुर्सी खाली थी। उसने बाबू जी को
उसमें बैठा दिया। दोनो ने हल्के से नमस्ते किया। मैनेजर ने
हल्के से सिर हिलाकर प्रत्युत्तर दिया। वह बोली ये बगल वाले
शर्मा जी के पिताजी हैं। इन्हें जरा फोन करना था। मैनेजर ने
फोन आगे बढ़ा दिया। बाबू जी से नंबर लेकर वह मिलाने लगी। नंबर
लग नहीं रहा था, मैनेजर बेचैन सा दिख रहा था। अधीर भी। उसने
फोन स्वयं ले लिये उससे नंबर लेकर लगाया रिसीवर बाबू जी की ओर
बढाया। बाबू जी बातें करने लगे अब जैसे मैनेजर ने बड़ी
मेहरबानी से उसकी तरफ देखा, “बोला आप मिसेज शर्मा हैं?”
जी वह मुस्कुराई, “और आप मेजर सिंह?”
जी हाँ वह भी जरा हँसा जरा सहज हुआ। पास में रखे सूटकेस की तरफ
इशारा किया और अपने धूल धूसरित सिर पर हाथ फेरते हुए बोला,
“अभी ही टूर से लौटा हूँ। घर भी नहीं जा पाया फिर अपने सहायक
को बुलाकर कुछ हिदायत दी और फाइल खोलकर देखने लग गया।“
नीलू अब तक खड़ी ही हुई थी। अब एक नजर उसे देखा- कद्दावर पौजी
शरीर, तीखे नाक नक्श, साँवले से चेहरे पर एक सख्ती एक खीझ एक
व्यस्तता। तिस पर नाक पर चढ़ा हुआ चश्मा। बेशक वह एक रौबीली और
कड़क छवि देता था।
घर लौटकर उसने बाबू जी को ठीक उसी कमरे में बैठाया। यानी आफिस
से लगे कमरे में। फिर काफी बनाकर लाई। बाबूजी काफी सिप करने
लगे। वह फी सिप करने लगी। फिर कहने लगी, “बाबूजी, फौज लोग तो
महिलाओं का बहुत सम्मान करते हैं न?”
“बहुत।“ बाबू जी बोले।
“लेकिन लगता है बाबूजी, अब फौजियों के मापदंड बदल गए हैं। इनके
सामने महिलाएँ खड़ी रहती हैं और ये कुर्सी पर बैठे रहते हैं।“
बंद दरवाजे के उस पार मानो भारी निस्तब्धता छा गई थी।
“सभी जगह स्तर गिर गया बैटा,” बाबूजी धीरे से बोले।
“असल में बाबूजी, वह सुनात हुई आवाज में कहने लगी, “अब लोग कोई
देशभक्ति के चलते थोड़े ही सेना में जाते हैं। ऐश करने के लिए
जाते हैं। मौका मिलते ही छोड़ देते हैं सेना और ज्वाइन कर लेते
हैं खूब पैसा देने वाली किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की नौकरी।“
उधर की एक्जिक्यूटिव चेयर चरमराई। कुछ पलों में बंद दरवाजे की
दरार से सिगरेट की तीखी गंध आई। वह दुष्टता से मुस्कुराई, बाबू
जी भी मुस्कुरा दिये।
एकाध हफ्ते में बाबूजी अपने गाँव चल दिये। जब तक वह रहे, उनसे
बतियाते हुए एक न एक बोल मार देती नीलू। नितिन सुबह नौ बजे
आफिस के लिये निकलता तो शाम पाँच बजे ही लौटता। इसी बीच इसे जब
मौका मिलता, चुटकी बजा बजाकर उलटे सीधे गीत गाती, और मैनेजर का
भेजा उड़ाने लगती।
ऐसी नौकरिया की का कहूँ सजनी
मुच्छड़ बिचारो दिन रात टरटरावै रे
कभू टरटरावै कभू गरियावै रे
आफिस में बिजली बेबात कडकड़ावे रे।
नितिन लौटता तो और मौज हो जाती। चाय नाश्ता गरम गरम पकौड़े
इडली दोसे आलू पोहे खाते जाते गपियाते जाते नितिन दंभी और शेखी
बाज था। बताता रहता कि वह कितना कुशल कितना कर्मठ अधिकारी है।
वह उसे उचकाए जाती, “हाँ जी मैं जानती हूँ इतने चोट्टे और
निकम्मे अफसरों के बीच तुम्हीं सबसे काबिल सबसे ईमानदार अफसर
हो। मैं तो देख ही रही हूँ आफिसर कितना काम करते हैं।“
“इशारा समझकर नितिन टरटराने लगता। मैं कोई प्राइवेट कंपनी का
अफसर नहीं हूँ। हम राष्ट्र की प्रगति में योगदान करनेवाले लोग
हैं। एक एक बात को खुद चेक करता हूँ वर्ना ये जनम जनम के
दरिद्र पूरा विभाग बेच खाएँ। तुम करो किसी सरकारी आफिस में
नौकरी तब न जानो। लाइब्रेरी से मोटी मोटी किताबें लाना घंटों
बैठे बैठे पढ़ते रहना और कलम घिसना। सिर्फ नवाबी करती हो तुम
तो।“
“हम क्यों करें साहब नौकरी। हमारी किस्मत में तो राजयोग लिखा
है। जिनकी किस्मत में चाकरी लिखी है वे करते फिरते हैं चाकरी।
एक छोड़ते हैं तो दूसरी के पीछे भागते हैं। दूसरी छोड़ते हैं
तो तीसरी के पीछे। हर जगह अत्यं विनम्र और विश्वस्तता की मूरत
बने।
उसने सुन रखा था कि इस मैनेजर ने सेना छोड़ने के बाद दो तीन
नौकरियाँ और भी की थीं। कोई दिन कुछ सहेलियाँ आ जाएँ तो फिर
क्या पूछना। शरारत परवान चढ़ जाती। चाय नाश्ते के साथ दुष्टता
शुरू हो जाती, “जानती हो कितने फौजी अफसर तो आतंक वादियों के
डर से सेना छोड़कर भाग गए हैं। सरकार ने जासूसी कुत्ते छोड़
रखे हैं इन सेना के भगोड़ों के पीछे। फिर आँख दबाकर
मुस्कुराती। एक तो इसी बिल्डिंग में छुपा बैठा है।“
सारी सहेलियाँ खी खी हँसने लगतीं, “बुला न रे भौं भौं करते
जासूसी करते कुत्ते कुदवाएँगे इसको।“
“कर न फोन।“
“अरे फोन ही के तो चलते तो सारा भंडाफोड़ हुआ री बहना।“
सारी महिलाएँ खिलखिलाने लगतीं।
मेजर के लिये जब ये ताने बर्दाश्त बाहर हो गए तब वह बाहर
बिल्डिंग के हाते में ही अपनी मेजकुर्सी लगवा लेता। वहीं काम
करते दिसंबर की गुनगुनी धूप में।
मगर एक दिन नितिन आफिस से आया तो कहने लगा,
“अब आई अकल इस अहमक को कि पड़ोसियों से बनाकर रखना चाहिये। उस
दिन मैं फोन करने गया तो कैसा थोबड़ा लटका हुआ था। अब तो मुझे
देखते ही नमस्ते करता है। कुछ न कुछ बतियाता है, आज तो मुझे
जबरदस्ती बैठाकर चाय पिलाया। जानती हो यह तो राज शेखर जी का
पोता है। तुमने नाम सुना होगा। शास्त्री राजशेखर सिंह का। महान
साहित्यकार थे वे। तत्कालीन राष्ट्रपति ने उन्हें चाय पर
बुलाया था। तब एक नीली कलम भेंट की थी उन्होंने। यह बता रहा था
अपनी बाद की श्रेष्ठ रचनाएँ उसी कलम से लिखी थीं राजशेखर सिंह
जी नें। इसका बड़ा भाई ट्रांबे में वैज्ञानिक है। परिवार में
यही एक निकम्मा निकला ग्रेजुएट तो हैं आगे पढ़ा ही नहीं। घर से
भागकर सेना में भर्ती हुआ था।“
“हा हा और अब सेना से भाग कर यहाँ आया है,” वह बोली।
“यहाँ से भी भागेगा।“ नितिन कहने लगा। मल्टीनेशनल कंपनी की
नौकरी इसके बस की नहीं। कितना टेंशन पालता है जैसे सारी
जिम्मेदारी इसी की हो।
मगर उस दिन नीलू स्वयं मुसीबत में पड़ गई। एक परिचित के घर
सगाई थी। परी की तरह सजधज कर निकली नीलू। अपने दरवाज में ताला
लगाकर जैसे ही पलटी सामने मेजर सिंह धूप में बैठे अपनी फाइल
निपटाते नजर आए। निगाहें मिलते ही वे हाथ जोड़कर मुस्कुराए।
नीलू का चेहरा आरक्त हो उठा। क्या सचमुच इसी सुदर्शन पुरुष को
वह इस कदर चिढ़ाती रहती थी। जल्दी जल्दी कदम बढ़ाती वह हाते के
बाहर निकल गई।
सगाई के सारे कार्यक्रम के दौरान वह अपना आरक्त चेहरा लिये
सन्नाटे में रही। घंटे भर के बाद लौटी तो हाते के फाटक पर कदम
रखते ही उन्होंने ऐसे प्यार से फिर अभिवादन कर दिया कि नीलू का
सर्वांग सनसना उठा।
मुश्किलें और भी बढ़ने लगी थीं। वह जब भी दरवाजे तक जाती दूध
वाला आता तो दूध लेने, सब्जी वाला आता तो सब्जी लेने, अखबार
पत्रिकाएँ उठाने धूप में बैठे मेजर की दृष्टि टप से उस पर ही
पड़ा जाती। इधर उन्होंने अपनी मेज कुर्सी ही ऐसी जगह लगवा ली
थी कि नीलू एक मिनट के लिये भी आए तो दिख जाए। कभी एकाध बार
नीलू भी देख ले तो ऐसी मुहब्बत से नमस्कार करते कि नीलू की जान
ही निकल जाती। |