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							(आठवाँ भाग) 
							पूरे डेढ़ साल बाद भारत 
							भ्रमण पर जाने का अवसर मिला। डलास में पहले श्रीमती जी 
							और चारुलता पूरे तीन महीने की छुट्टी पर निकल गईं। 
							मुझे बाद में तीन हफ्ते के लिए जाना था। डलास से 
							ब्रसेल्स और ज्युरिख होते हुए दिल्ली पहुँचना था। 
							आमतौर पर यूरोप में फ्लाईट सवेरे के समय पहुँचती है और 
							पूरा यूरोप हरियाली होने की वजह से गोल्फ के मैदान 
							सरीखा दिखता है। भारत आते–आते रात हो गई थी। पर 
							इस्लामाबाद के ऊपर से उड़ते हुए पूरा समय आँखों में ही 
							बीत गया, दिल्ली का आसमान ढूँढते–ढूँढते। रात एक बजे 
							प्लेन ने दिल्ली की ज़मीन छुई तो प्लेन के अंदर सारे 
							बच्चों ने करतल ध्वनि की। प्लेन में मौजूद विदेशी 
							हमारा देशप्रेम देखकर अभिभूत थे, साथ ही यह देखकर भी 
							कि किस तरह हम सब प्लेन से टर्मिनल पर आते ही अपनी 
							भारत माँ की धरती को मत्थे से लगाकर खुश हो रहे थे। 
							कुछेक लोग जो वर्षों बाद लौटे थे, हर्षातिरेक में धरती 
							पर दंडवत लोट गए। 
							 
							हम नहीं सुधरेंगे 
							 
							हालाँकि थोड़ी ही देर में सारा हर्ष गर्म मक्खन की तरह 
							पिघल कर उड़ गया जब कन्वेयर बेल्ट पर अपना सामान नदारद 
							मिला। पता चला कि ब्रसेल्स और ज्युरिख के बीच एअरलाईन 
							वाले सामान जल्दी में नहीं चढ़ा पाए अतः अगली उड़ान में 
							भेजेंगे। उन लोगों ने मेरा सामान निकटतम एअरपोर्ट यानि 
							कि लखनऊ भेजने का वायदा किया। अब मैं हाथ में इकलौता 
							केबिन बैग लेकर ग्रीन चैनल की ओर बढ़ा जहाँ कस्टम 
							आफ़िसर्स से पाला पड़ा। मेरे बैग में एक अदद सस्ता सा 
							कॉर्डलेस और मेरे कपड़े थे। कस्टम आफ़िसर को वह दस डालर 
							वाला फोन कम से कम सौ डालर का मालूम हो रहा था। मुफ़्त 
							में उसे ९०० और २॰९ के फोन का अंतर समझाना पड़ा। 
							हालाँकि आजकल कस्टम वाले ज़्यादा तंग नहीं करते, शायद 
							ऊपर से सख्ती है या फिर अब विदेशी सामान का ज़्यादा 
							क्रेज़ नहीं रहा। पर वर्ष २००० में स्थिति बहुत अच्छी 
							नहीं थी। मेरे एक मित्र श्रीमान वेदमूर्ति जिन्हें 
							अक्सर काम के सिलसिले में भारत जाना पड़ता था, इन कस्टम 
							वालों की चेकिंग से आजिज आकर किसी खड़ूस कस्टम क्लर्क 
							को अच्छा सबक सिखा आए थे। जनाब ने किसी चाईनाटाउन से 
							ऐसी सरदर्द वाले बाम की डिब्बियाँ खरीदी थीं जिनपर 
							अंग्रेज़ी में कुछ न लिखा था, इन डिब्बियों को जनाब 
							वेदमूर्ति ने वियाग्रा जेली बताकर इंदिरा गाँधी 
							हवाईअड्डे पर कस्टम क्लर्क को टिका दिया था। अब आगे 
							क्या हुआ, यह जानने से बचने के लिए जनाब वेदमूर्ति 
							यथासंभव इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे पर जाने से कतराते 
							हैं। 
							 
							इस शहर में हर शख्स परेशान सा 
							क्यों है? 
							 
							दिल्ली से कानपुर का सफ़र शताब्दी पर कट गया। सुना है 
							कि दूसरे की दाल में घी हमेशा ज़्यादा दिखता है। यही 
							कहावत आज खुद पर चरितार्थ हो रही थी। पहले रास्ते में 
							पड़े गाँव कस्बे जिनको महज डेढ़ साल पहले ट्रेन से देखने 
							लायक नहीं समझता था और सिर्फ़ सफ़र का अनचाहा हिस्सा 
							लगते थे, आज बेहतरीन लैंडस्केप का नमूना लग रहे थे। 
							रास्ते में पड़ने वाली रेल क्रासिंग पर ट्रैक्टर, 
							मोटरसाईकिल और साईकिल पर सवार लोग, लगता था कि बिल्कुल 
							बेतकल्लुफ और हमारी तेज़रफ़्ता ज़िंदगी के मुकाबले कितने 
							बेफिक्र हैं। मेरी इस राय से मेरे साथ चल रहे मेरे 
							साले साहब यानि कि राजू भाई भी इत्तफ़ाक रखते हैं। मज़े 
							की बात है कि राजू भाई को कानपुर की ज़िंदगी तेज़रफ़्ता 
							लग रही है। अपने–अपने पैमाने हैं, पर साफ़ दिख रहा है 
							कि सारे भौतिक सुख बटोर लेने की चाहत ने हमारे कानपुर, 
							लखनऊ सरीखे शहरों में भी अदृश्य एचओवीलेन पैदा कर दी 
							हैं। शेरो–शायरी का कोई ख़ास शौक तो नहीं मुझे पर एक 
							ग़ज़ल का टुकड़ा याद आता है, "इस शहर में हर शख्स परेशान 
							क्यों है?" 
							 
							ओमनी वैन 
							 
							कानपुर सेंट्रल पर पूरा परिवार अगवानी करने आ गया था। 
							हमारे चाचाश्री किसी मित्र की मारुति ओमनी वैन मय 
							ड्राइवर के ले आए थे। आखिर भतीजा अमेरिका से आ रहा है, 
							मजाल है कि आटो या रिक्शे पर चला जाए। पिछली दो सीटों 
							पर जहाँ अमेरिका में महज पाँच लोग बैठते हैं, यहाँ आठ 
							दस लोग बैठ गए थे। मैं ड्राइवर के बगल में बैठा तो बगल 
							के दरवाजे से चाचाश्री प्रविष्ट हुए यह कहते हुए कि 
							'ज़रा खिसको गुरु।' खिसकने के लिए गियर के दोनों तरफ़ 
							पैर डालने पड़े। अब दायीं तरफ से ड्राइवर साहब गुज़ारिश 
							कर रहे थे कि भाईजान ज़रा गियर लगाना है, पैर खिसका 
							लीजिए। उधर सामने सड़क पर गाय, भैंसें और साइकिलें, 
							मालुम पड़ रहा था कि विंडस्क्रीन से चिपके हुए चल रहे 
							हैं और कहीं गाड़ी से लड़ न जाएँ। ऐसा नहीं था कि मैं इन 
							चीज़ों का आदी नहीं हूँ, अरे भाई पूरे दस साल मैंने भी 
							साइकिल, टीवीएस चैंप और एलएमएल वेस्पा इन्हीं सड़कों पर 
							चलाई है और ऐसी चलाई है कि जान अब्राहम भी नहीं चला 
							सकता। पर महज एक साल के अमेरिका प्रवास ने आदत बिगाड़ 
							दी है। अपनी ही सड़क पर हल्की सी दहशत मालूम हो रही है। 
							सिर्फ़ एक समझदारी की मैंने, कि वैन में यातायात पर कुछ 
							नहीं बोला, नहीं तो पिछली सीट पर बैठे भाई–बहनों की 
							टीकाटिप्पणियों की बौछार कुछ यों आती। 
							 
							'एक ही साल में रंग बदल गया।' 
							'रंगबाजी न झाड़ो।' 
							'जनाब एनआरआई हो गए हैं।' 
							'यह अटलांटा नहीं कानपुर है प्यारे।' 
							 
							कनपुरिये तो अटलांटा में कार दौड़ा सकते हैं लेकिन किसी 
							अमेरिकी की हिम्मत है जो कनपुरिया ट्रैफिक के आगे टिक 
							सके? 
							सुना है तेरी महफ़िल में 
							एक पुराना गाना याद आता है जो कुछ यों है– 
							 
							साकिया आज मुझे नींद नहीं आएगी 
							सुना है तेरी महफ़िल में रतजगा है। 
							 
							पूरे ३६ घंटों का सफ़र कट गया पर रात में जेटलैग शुरू 
							हो गया। इस बला से लंबी हवाई यात्रा कर चुके लोग वाकिफ़ 
							हैं। दरअसल अमेरिका से भारत आते हुए आप समय की कई 
							स्थानीय सीमाएँ लाँघ कर आते हैं। अमूमन अगर आप अमेरिका 
							से शाम को चलते हैं जब भारत में स्थानीय समय के हिसाब 
							से सुबह होती है। भारत का समय आम तौर पर अमेरिका से ११ 
							घंटे आगे चलता है। इसीलिए शुरू में कई रिश्तेदार जो इस 
							अलबेले समय के झमेले से नावाकिफ़ थे, फोन करने पर हैरान 
							होते थे कि उनके सोने जाने के समय मैं सवेरे की चाय 
							कैसे पी रहा हूँ? जब आप दिल्ली पहुँचते हैं तो आपका 
							शरीर उस ११ घंटे की समय सीमा को तुरंत नहीं लाँघ पाता। 
							उसे भारत के दिन में रात महसूस होती है। इसीलिए रात के 
							दो तीन बजे नींद खुल जाती है और दोपहर में आदमी सुस्ती 
							महसूस करता है। हालाँकि कुछ लोग इसे एनआरआई लटके झटके 
							समझ लेते हैं। 
							 
							आप लाईन में क्यों लगे? 
							 
							दो दिन बाद बैंक गया। सबेरे नौ बजे बैंक तो खुल गया था 
							पर झाड़ू लग रही थी, सारे कर्मचारी नदारद। एक अदद 
							चपरासी मौजूद था जिसने सलाह दी कि दस ग्यारह बजे आइए। 
							यहाँ सब आराम से आते हैं। अब तक स्मृति के बंद किवाड़ 
							खुलने लगे थे और जेटलैग तो क्या सांस्कृतिक लैग, 
							व्यावहारिक लैग सब काफूर हो चले थे। दो घंटे के बाद 
							वापस लौटा तो पूरे अस्सी आदमी लाइन में लगे थे। मैं भी 
							लग गया। थोड़ी देर में बैंक का चपरासी पहचान गया। दरअसल 
							इसी शाखा में मेरे एक चाचाश्री मैनेजर रह चुके थे, अब 
							उनका ट्रांसफर हो गया था। पर उनकी तैनाती के दिनों में 
							यही चपरासी घर पर बैंक की चाभी लेने आता था। चपरासी का 
							नाम भी याद आ गया शंभू। शंभू जोर से चिल्लाया "अरे 
							भईया आप यहाँ? कहाँ थे इतने दिन?" शंभू पंडित को यह तो 
							पता था कि मैं कानपुर से बाहर काम करता हूँ पर उसके 
							"बाहर" की परिधि शायद हद से हद दिल्ली तक थी। मैंने भी 
							अनावश्यक अमेरिका प्रवास का बखान उचित नहीं समझा और 
							उसे टालने के लिए कह दिया कि बाहर काम कर रहा था, 
							इसलिए अब कानपुर कम आता हूँ। पर शंभू पंडित हत्थे से 
							उखड़ गए। लगे नसीहत देने, "अरे भईया, कोई इतनी दूर भी 
							नहीं गए हो कि दोस्तों के जनेऊ शादी में न आ सको। अरे, 
							दिल्ली बंबई का किराया भी ज़्यादा नहीं है।"  
							 
							अब शंभू पंडित खामखाँ फटे में टाँग अड़ा रहे थे। उनको 
							रंज था कि मैं अपने कुछ दोस्तों की शादी वगैरह में 
							कानपुर नहीं पहुँचा था। शंभू पंडित के इस तरह से 
							उलाहने से बड़ी विकट स्थिति हो रही थी। भांडाफोड़ करना 
							ही पड़ा, शंभू पंडित को जवाब उछाला, "अबे, अमेरिका में 
							था, अब यहाँ हर महीने थोड़े ही आ सकता हूँ?" इतना बोलना 
							था कि आस–पास खड़े लोग मुड़कर देखने लगे और पहचानने की 
							कोशिश करने लगे। यहाँ तक कि बैंक मैनेजर के केबिन से 
							आवाज़ आई, "अबे शंभू, कौन है? किससे बात कर रहे हो?" 
							शंभू पंडित को यह ज़ोर का झटका धीरे से लगा था, सकपका 
							कर बोले, "साहेब, अरोरा साहब के भतीजे हैं, अमेरिका 
							में रहते हैं।" केबिन से फिर आवाज़ आई, "अबे तो उन्हें 
							बाहर क्यों खड़ा कर रखा है।" एक मिनट के अंदर ही मैं 
							मैनेजर साहब से मुखातिब था। मैनेजर साहब ने क्लर्क को 
							केबिन में बुलाकर मेरा काम करवा दिया और अमेरिका के 
							बारे में अपनी कुछ भ्रांतियों का निराकरण करवाया। मेरा 
							काम तो हो गया था पर मैं सोच रहा था वह अस्सी लोग जो 
							लाइन में खड़े थे उन्हें क्या मैनेजर साहब बेवकूफ़ समझते 
							थे जिनके ऊपर किसी भी नेता, अभिनेता, वीआईपी या एनआरआई 
							को तवज्जो दी जा सकती है और वे उफ्फ तक नहीं करते।
							 
							९ जुलाई २००५   |