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							(नवाँ भाग) 
							एक बार फिर फ़जीहत से बचने के लिए एनआरआई तमगा चमकाना 
							पड़ा। हुआ कुछ यों कि लखनऊ फोन करना था। वर्ष २००० में 
							मोबाईल डब्ल्यूएलएल, आरआईएल, और एसएमएस सरीखी तकनीकें 
							ईजाद नहीं हुई थीं। पीसीओ सर्वसुलभ थे। मैं सीधे पीसीओ 
							पहुँचा और लखनऊ का नंबर मिलाने लगा। दो–तीन बार प्रयास 
							के बाद भी नंबर नहीं लग रहा था। संचालिका एक 
							मध्यमवर्गीय घरेलू सी दिखने वाली नवयुवती थी। शायद 
							संचालक कहीं तशरीफ़ ले गए थे और अपनी बहन को बैठाल गए 
							थे। ख़ैर... उस कन्या ने पूछा कि आपका नंबर तो सही है? 
							मेरे हिसाब से तो सही होना चाहिए था, अभी पिछले ही 
							महीने तो अमेरिका से मिलाया था। जब एक बार फिर मिलाने 
							लगा तो कन्या ने टोका- 
							कन्या : 'आप क्या कर रहे हैं?' 
							मैं : लखनऊ का नंबर मिला रहा हूँ। 
							कन्या : वह तो ठीक है पर एसटीडी कोड क्या मिला रहे 
							हैं? 
							मैं : ५२२, क्यों यह नहीं है क्या? 
							कन्या : ५२२ तो ठीक है पर ज़ीरो क्यों नहीं लगा रहे? 
							मैं : ज़ीरो दरअसल अमेरिका में आदत पड़ गई थी ०११ ९१ ५२२ 
							नंबर मिलाने की, अब यहाँ ०११ ९१ टपका कर शेष नंबर मिला 
							रहा था। 
							कन्या : ज़ीरो मतलब शून्य! 
							मैं : अरे मुझे पता है ज़ीरो मतलब शून्य। 
							कन्या : लेकिन आप ५२२ के पहले शून्य क्यों नहीं लगा 
							रहे? क्या पहली बार एसटीडी डायल किया है? 
							कन्या को अब कुछ शक हो चला था कि मैं शायद घाटमपुर 
							सरीखे किसी देहात से उठकर सीधे शहर पहुँच गया हूँ और 
							शायद ज़िंदगी में पहली बार एसटीडी मिला रहा हूँ। अब तक 
							बाकी ग्राहकों की दिलचस्पी भी मुझमें बढ़ चली थी। सबकी 
							तिर्यक दृष्टि से स्पष्ट था कि मैं वहाँ एक नमूना बनने 
							जा रहा था, जो शक्लोसूरत और हावभाव से तो पढ़ा लिखा 
							दिखता था पर उस नमूने को एसटीडी करने जैसे सामान्य काम 
							की भी तमीज़ नहीं थी। मुझे याद आ गया कि करीब डेढ़ साल 
							पहले एसटीडी मिलाने से पहले जीरो लगाने की आदत अमेरिका 
							में आईएसडी मिलाते मिलाते छूट गई थी और यहाँ मैंने 
							सिर्फ़ आईएसडी कोड हटाकर ज़ीरो न लगाने की नादानी कर 
							डाली थी। खामखाँ बताना पड़ा कि मैं ज़ीरो मतलब शून्य 
							लगाना क्यों भूल रहा था। अब उस षोडशी की दिलचस्पी यह 
							जानने में पैदा हो गई थी कि मैनें कित्ते पैसे देकर 
							अमेरिका में नौकरी हासिल की थी। निम्न मध्यवर्ग जिसे 
							अमेरिका में स्किल्ड लेबर्स कहते हैं, अपने खेत खलिहान 
							बेचकर भी खाड़ी या लंदन में काम पाने की फिराक में रहता 
							है। यह चलन वैसे पंजाब में कुछ ज़्यादा है। डाटकाम के 
							बुलबुले अभी दिल्ली, बंबई से कानपुर सरीखे शहरों तक 
							नहीं पहुँचे थे इसलिए किसी भी कनपुरिए को किसी ऐसे 
							एनआरआई कनपुरिया जो अभी भी कानपुर में एलएमएल वेस्पा 
							पर घूम रहा हो देख कर ताज्जुब करना स्वाभाविक ही है। 
							 
							आपकी स्कूटर पर नंबर तो यूपी का है 
							 
							अमेरिका में ट्रैफ़िक सिग्नल स्वचालित हैं। इसलिए यहाँ 
							भारत की तरह चौराहे के बीच न तो मुच्छाड़ियल ट्रैफ़िक 
							पुलिसवाला दिखता है न उसके खड़े होने के लिए बनी छतरी। 
							कभी कभी किसी समारोह वगैरह में या फिर सड़क निर्माण की 
							दशा में ट्रैफ़िक नियंत्रित करने के लिए आम पुलिसवाले 
							या पुलिसवालियाँ ही ट्रैफ़िक नियंत्रित करते हैं। 
							पुलिसवालियाँ तो खैर, पुलिसवालियों जैसी ही दिखती हैं, 
							पुलिसवाले भी कम स्मार्ट नहीं दिखते। केडीगुरु का 
							मानना है कि इन पुलिसवालों की भर्ती के पहले ब्यूटी 
							कांटेस्ट ज़रूर होता होगा। मैंने भी आजतक एक भी तोंदियल 
							पुलिसवाला नहीं देखा अमेरिका में। खैर, फोटोग्राफ़ी का 
							नया शौक चर्राया था, जेब में कैमरा था और हैलट 
							हास्पिटल के चौराहे पर सफ़ेद वर्दी में एक ट्रैफ़िक 
							हवलदार को देखकर उसकी फोटो लेने की सूझी। पर यह उतना 
							आसान नही निकला जितना सोचा था। ट्रैफ़िक हवलदार बड़ा 
							नखरीला निकला। पहले पंद्रह मिनट तक उसे यही शक बना रहा 
							कि मैं शायद किसी मैगज़ीन या अख़बार से हूँ और किसी लेख 
							वगैरह में पुलिस की बुराई करने वाला हूँ और उस हवलदार 
							की फोटो अपने लेख के लिए उपयोग कर लूँगा। वैसे 
							पुलिसवालों की छवि कैसी है यह बताने की ज़रूरत नहीं पर 
							उस वक्त वह दरोगा वाकई काम ही कर रहा था, वसूली नहीं। 
							पर उसे यह कतई हजम नहीं हो रहा था कि कोई भलामानुष 
							अपने व्यक्तिगत एलबम के लिए किसी मुच्छाड़ियल पुलिसवाले 
							की फोटो भला क्यों लेना चाहेगा। फिर से अमेरिका का 
							तमगा चमकाना पड़ा। पर जो सवाल उस दरोगा ने किया उसकी 
							उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। उसने पूछा 'आप कह रहे हैं कि 
							आप अमेरिका में रहते हैं पर आपकी स्कूटर पर नंबर तो 
							यूपी का है।' मैं सोच रहा था कि पुलिसवालों की भर्ती 
							के पहले जनरल नालेज का टेस्ट नहीं होता क्या? 
							 
							डा॰ जैन 
							 
							एक दिन सोचा कि अपने इंजीनियरिंग कालेज के दर्शन ही कर 
							लिए जाएँ। थोड़ी ही देर में एचबीटीआई के निदेशक के 
							केबिन के बाहर था। उन दिनों डा.वी के जैन निदेशक थे। 
							केबिन के बाहर उनके सचिव और एक दो क्लर्क बैठे थे। डा. 
							जैन के बारे में पूछते ही रटा रटाया जवाब मिला 
							'डायरेक्टर साहब अभी ज़रूरी मीटिंग कर रहे हैं, दो घंटे 
							के बाद आइए।' पता नहीं इन क्लर्कों की आदत होती है या 
							इन्हें निर्देश होते हैं कि हर ऐरे गैरे को घुसने से 
							रोकने के लिए मीटिंग का डंडा इस्तेमाल किया जाए। सचिव 
							ने पूछ लिया 'कहाँ से आए हैं, मैंने जब डलास कहा तो 
							उसने मुझे अंदर जाने का इशारा कर दिया। मतलब कि मीटिंग 
							के दौरान नोएंट्री का बोर्ड सिर्फ़ स्वदेशियों के लिए 
							ही होता है। डा. जैन अंदर किसी से बात ही कर रहे थे। 
							देखते ही पहचान गए। हज़ारों विद्यार्थियों के नाम और 
							शक्ल याद रख सकने की उनकी क्षमता विलक्षण है। कुछ देर 
							तक वे बड़ी आत्मीयता से हालचाल लेते रहे। तभी कुछ सचिव 
							और एक दो प्रोफ़ेसर जिन्हें मैं नहीं जानता था फाइलें 
							लिए अंदर आए। मैंने चलने की अनुमति चाही तो डा. जैन ने 
							मुझसे बैठे रहने को कहा। बाकी सबको बैठने को कहकर 
							उन्होंने मेरा परिचय सबको यह कहकर दिया कि ये डलास से 
							आए हैं, वहीं काम करते हैं। मैं अभी यही सोच रहा था कि 
							डा. जैन ने मेरा परिचय एचबीटीआई के पूर्व छात्र के रूप 
							में क्यों नहीं दिया।  
							तभी डा. जैन मुझसे मुख़ातिब हुए और एक सवाल दाग दिया 
							'अतुल, यह बताओ कि अगर मेरे पास दस लाख रुपये हों और 
							मुझे एचबीटीआई के कंप्यूटर सेक्शन के लिए कंप्यूटर 
							खरीदने हों तो मुझे दो विकल्पों में क्या चुनना चाहिए, 
							पचास हज़ार के बीस डेस्कटाप कंप्यूटर या फिर पाँच-पाँच 
							लाख के दो एडवांस वर्कस्टेशन। 'मैंने सीधे बेलौस राय 
							जाहिर कर दी 'पचास हज़ार के बीस डेस्कटाप कंप्यूटर लेने 
							चाहिए।' डा. जैन के सामने बैठी मंडली में से कुछ लोग 
							कसमसाए और उनमें कोई कुछ बोलने को हुआ कि तभी डा. जैन 
							ने अगला सवाल दागा 'क्यों?' मैं सोच रहा था कि डा. जैन 
							की आख़िर मंशा क्या है और यह समिति किस बात की मीटिंग 
							कर रही है। पर चूँकि मैं डा. जैन के भूतपूर्व छात्र की 
							हैसियत से वहाँ गया था इसलिए मैंने समग्र जवाब देना 
							उचित समझा। मैंने कहा, 'सर, अगर कोई मशीन या पुल 
							डिजाइन का कोर्स नहीं चलाना है इनपर, तो डेस्कटाप ही 
							ठीक रहेंगे, जिन एप्लीकेशन पर हम काम करते हैं वही 
							यहाँ सिखाई जानी चाहिए। जो अभी भी यहाँ नहीं हैं और उन 
							एप्लीकेशन के लिए डेस्कटाप की क्षमता काफ़ी है। उससे कम 
							से कम एकबार में चालीस छात्रों का भला होगा। अगर आप दो 
							कंप्यूटर ले लेंगे तो एकबार में ज़्यादा से ज़्यादा चार 
							लोग ही उसे उपयोग कर सकेंगे। यह वर्कस्टेशन की क्षमता 
							के साथ नाइंसाफ़ी और पैसे की बर्बादी होगी।' डा. जैन ने 
							मुड़कर बाकी लोगों पर कटाक्ष रूपी प्रश्न किया- 
							 
							'सुना आपने, यह राय एक अमेरिका में काम कर रहे 
							इंजीनियर की है, यही राय मैं दे रहा था तो आप सब मुझे 
							बेवकूफ़ समझ रहे थे और कह रहे थे कि मैं बाबा आदम के 
							ज़माने की तकनीकी पर भरोसा कर रहा हूँ।'  
							मैंने वहाँ वाकयुद्ध छिड़ने से पहले फूटने में भलाई 
							समझी। बाद मे पता चला कि अंदर बैठे लोग कंप्यूटर खरीद 
							समिति के सदस्य थे और उन लोगों में खरीदे जाने वाले 
							कंप्यूटरों की क्षमता को लेकर मतभेद थे। डा. जैन जानते 
							थे कि उनकी व्यवहारिक सलाह को लोग दकियानूसी समझ रहे 
							थे पर जब उसी सलाह पर अमेरिकी स्वीकृति का मुलम्मा चढ़ 
							गया तो वह काम की बात हो गई। 
							 
							पागल कौन? 
							 
							रात में मेरे चाचाश्री का फोन आया। वे मिर्जापुर के 
							पास किसी फैक्ट्री में सहायक जनरल मैनेजर हैं। 
							चाचाश्री कानपुर न आ पाने का कारण बता रहे थे। कारण 
							सुन कर सब हँस–हँस कर दोहरे हो गए। चाचाश्री की 
							फैक्ट्री में कोई गार्ड था संतराम। किसी मानसिक 
							परेशानी के चलते उसका दिमाग़ फिर गया और वह फैक्ट्री 
							में तोड़फोड़ करने लगा। चाचाश्री ने संतराम को दो 
							चौकीदारों के साथ फैक्ट्री के डाक्टर का सिफ़ारिशी पत्र 
							देकर राँची मानसिक चिकित्सालय ले जाकर भर्ती कराने का 
							आदेश दिया। चाचाश्री ने दोनों को निर्देश दिया था कि 
							राँची पहुँच कर वहाँ के डाक्टर से बात करवा दें। अगले 
							रविवार को चाचाश्री को कानपुर आना था। पर न जाने क्यों 
							दोनों चौकीदारों का राँची पहुँच कर कोई फोन नहीं आया। 
							चाचाश्री दोनों चौकीदारों की गैरज़िम्मेदारी को लानतें 
							भेजते हुऐ शनिवार को सो गए।  
							 
							रात में बँगले के दरवाजे की घंटी बजी। चाचाश्री ने 
							लाईट खोल कर देखा तो संतराम खड़ा था। चाची की चीख 
							निकलते–निकलते बची। चाचाश्री ने चाची को संयत रहने का 
							इशारा किया। चाचाश्री ने देखा संतराम फिलहाल तो 
							सामान्य लग रहा था। उसने चाचाश्री को हाथ जोड़कर 
							नमस्कार भी किया। चाचाश्री ने उसे वहीं बैठने को कहा 
							और खुद यथासंभव दिखने की कोशिश करते हुए उससे दस फुट 
							दूर सोफे पर बैठ गए। अब पागल का क्या भरोसा, कहीं हमला 
							ही कर दे। चाचाश्री सोच रहे थे कि शायद यह उन दोनों 
							चौकीदारों से निगाह बचाकर भाग आया है और वे दोनों 
							चौकीदार या तो इसे ढूँढ रहे होंगे या फिर मारे डर के 
							वापस ही नहीं आए। उसी उधेड़बुन में चाचाश्री ने संतराम 
							से पूछा- 
							 
							चाचाश्री : कहो संतराम कैसे हो? 
							संतराम : जी साहब, दया है आपकी। 
							चाचाश्री : अकेले आए हो? 
							संतराम : जी साहब। 
							चाचाश्री : वह दोनों कहाँ हैं? 
							संतराम : कौन साहब? 
							चाचाश्री : अरे दोनों चौकीदार, जो तुम्हारे साथ राँची 
							गए थे? 
							संतराम : साहब, उन दोनों को मैं भर्ती करा आया। 
							चाचाश्री कुर्सी से उछलते हुए : क्या! 
							संतराम : जी साहब, कल भर्ती कराया था, अगली ट्रेन पकड़ 
							कर मैं डयूटी पर टैम से वापस आ गया। 
							चाचाश्री ने संतराम को चाय पिलाने के लिए इंतज़ार करने 
							को कहकर दूसरे कमरे में फोन करने आ गए। चाची संतराम पर 
							निगाह रखे थीं। संतराम बिल्कुल सामान्य दिख रहा था। 
							चाचाश्री ने राँची मानसिक चिकित्सालय फोन मिलाया तो 
							सुपरवाईज़र ने बताया कि उनकी फैक्ट्री से एक चौकीदार दो 
							पागलों को भर्ती करा गया है। भर्ती के दिन से दोनों ने 
							बवाल मचा रखा है और रह रह कर दोनों आसमान सर पर उठा 
							लेते हैं। चाचाश्री ने सुपरवाईज़र को बड़ी मुश्किल से 
							यकीन दिलाया कि उसने पागल को छोड़कर दो भलेमानुषों को 
							भर्ती कर लिया है। चाचाश्री ने अबकी बार छः चौकीदारों 
							को संतराम के साथ राँची भेजा। इस बार संतराम को भर्ती 
							कराने में कोई बखेड़ा नहीं हुआ। पिछली बार गए दोनों 
							चौकीदार वापस आते ही चाचाश्री के पैरों में लौटकर रोने 
							लगे और दुहाई माँगने लगे कि आगे से उन्हें किसी पागल 
							के साथ न भेजें। दोनों ने राँची की कहानी सुनाई।  
							 
							दोनों चौकीदारों के साथ संतराम बिल्कुल मोम के पुतले 
							की तरह शांत बैठे बैठै राँची तक गया। दोनों उसे रिक्शे 
							के बीच बैठा कर स्टेशन से मानसिक चिकित्सालय ले जाने 
							लगे। मानसिक चिकित्सालय का गेट पास आते ही संतराम 
							रिक्शे से कूदकर भागा और चिकित्सालय के अंदर घुस गया। 
							उसे जो भी पहला डाक्टर दिखा उसके पैर पकड़ कर वह 
							जोर–जोर से रोने लगा। उसने चिल्ला चिल्ला कर कर कहा कि 
							उसे दो पागलों ने घेर लिया है और उसे बाहर बहुत मार 
							रहे हैं। यह सुनकर डाक्टर ने चार वार्ड ब्वाय बाहर 
							भेजे जहाँ वाकई दोनों चौकीदार चिकित्सालय की ओर बदहवास 
							से भागे आ रहे थे। वार्ड ब्वायज़ यहीं समझे कि दोनों 
							वाकई पागल हैं और संतराम को ढूँढ रहे हैं। दोनों 
							चौकीदारों को जबरदस्ती हवा में टाँग के डाक्टर के 
							सामने लाया गया। दोनों खुद को छुड़ाने के लिए गुल गपाड़ा 
							मचाए थे और संतराम को पागल बता रहे थे। डाक्टर ने 
							उन्हें डपट कर कहा कि हर पागल खुद को समझदार और दूसरों 
							को पागल कहता है। यह सुनकर चौकीदार वार्डब्वायज़ को 
							पागल बताने लगे। दोनों को बाँधने के लिए वार्ड ब्वायज 
							को उन्हें थोड़ा बहुत पीटना भी पड़ा। ज़्यादा हंगामा करने 
							पर उन्हें बेहोशी के इंजेक्शन ठोक दिए गए। संतराम जी 
							तो उन्हें शान से भर्ती कराकर मिर्जापुर चल दिए, पर 
							वार्डब्वायज़ की पिटाई से उन बेचारे चौकीदारों के शरीर 
							के सारे जोड़ खुल गए।   
							९ 
							सितंबर २००५   |