मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


3

वे अपने पुराने दिन याद करते रहे, दोनों के बीच में लड़कपन की बेशुमार बेवकूफ़ियाँ कॉमन थीं और पढ़ाई के संघर्ष। पवन ने कहा, ''पहले दिन जब तुम अमदाबाद आए तब की बात बताना ज़रा।''
''तुम कभी अमदाबाद कहते हो कभी अहमदाबाद, यह चक्कर क्या है।''
''ऐसा है अपना गुजराती क्लायंट अहमदाबाद को अमदाबाद ही बोलना माँगता, तो अपुन भी ऐसाइच बोलने का।''
''मैं कहता हूँ यह एकदम व्यापारी शहर है, सौ प्रतिशत। मैं चालीस घंटे के सफ़र के बाद यहाँ उतरा। एक थ्री व्हीलर वाले से पूछा, ''आई.आई.एम. चलोगे?'' किदर बोलने से, उसने पूछा। मैंने कहा, ''भाई वस्त्रापुर में जहाँ मैनेजरी की पढ़ाई होती है, उसी जगह जाना है। तो जानते हो साला क्या बोला, टू हंड्रेड भाड़ा लगेगा। मैंने कहा तुम्हारा दिमाग़ तो ठीक है। उसने कहा, साब आप उदर से पढ़ कर बीस हज़ार की नौकरी पाओगे, मेरे को टू हंड्रेड देना आपको ज़्यादा लगता क्या?''
''तुम्हारा सिर घूम गया था?''
''बाई गॉड। मुझे लगा वह एकदम ठग्गू है। पर जिस भी थ्री व्हीलर वाले से मैंने बात की सबने यही रेट बताया।''
''मुझे याद है, शाम को तुमने मुझसे मिल कर सबसे पहले यही बात बताई थी।''
''सच्ची बात तो यह है कि अपने घर और शहर से बाहर आदमी हर रोज़ एक नया सबक सीखता है।''
''और बताओ, जॉब ठीक चल रहा है?''
''ठीक क्या यार, मैंने कंपनी ही ग़लत चुन ली।''
''बैनर तो बड़ा अच्छा है, स्टार्ट भी अच्छा दिया है?''
''पर प्रॉडक्ट भी देखो। बूट पॉलिश। हालत यह है कि हिंदुस्तान में सिर्फ़ दस प्रतिशत लोग चमड़े के जूते पहनते हैं।''
''बाकी नब्बे क्या नंगे पैर फिरते हैं?''
''मज़ाक नहीं, बाकी लोग चप्पल पहनते हैं या फ़ोम शुज़। फ़ोम के जूते कपड़ों की तरह डिटरजेंट से धुल जाते हैं और चप्पल चटकाने वाले पॉलिश के बारे में कभी सोचते नहीं। पॉलिश बिके तो कैसे?''

पवन ने कौतुक से रेस्तराँ में कुछ पैरों की तरफ़ देखा। अधिकांश पैरों में फ़ोम के मोटे जूते थे। कुछ पैरों में चप्पलें थीं।
''अभी हेड ऑफ़िस से फ़ैक्स आया है कि माल की अगली खेप भिजवा रहे हैं। अभी पिछला माल बिका नहीं है। दुकानदार कहते हैं वे और ज़्यादा माल स्टोर नहीं करेंगे, उनके यहाँ जगह की किल्लत है। ऐसे में मेरी सनशाइन शू पॉलिश क्या करें?''
''डीलर को कोई गिफ़्ट ऑफ़र दो, तो वह माल निकाले।''
''सबको सनशाइन रखने के लिए वॉल रैक दिए हैं, डीलर्स कमीशन बढ़वाया है पर मैंने खुद खड़े हो कर देखा है, काउंटर सेल नहीं के बराबर है।''
पवन ने सुझाव दिया, ''कोई रणनीति सोचो। कोई इनामी योजना, हॉलिडे प्रोग्राम?''
''इनामी योजना का सुझाव भेजा है। हमारा टारगेट उपभोक्ता स्कूली विद्यार्थी हैं। उसकी दिलचस्पी टॉफी या पेन में हो सकती है, हॉलिडे प्रोग्राम में नहीं।''
''हाँ, यह अच्छी योजना है।''
''बाइ गॉड, अगर पब्लिक स्कूलों में चमड़े के जूते पहनने का नियम न होता तो सारी बूट पॉलिश कंपनियाँ बंद हो जातीं। इन्हीं के बूते पर बाटा, कीवी, बिल्ली, सनशाइन सब ज़िंदा हैं।''
''इस लिहाज़ से मेरी प्रॉडक्ट बढ़िया है। हर सीज़न में हर तरह के आदमी को गैस सिलेंडर की ज़रूरत रहती है। लेकिन यार जब थोक में प्रॉडक्ट निकालनी हो, यह भी भारी पड़ जाती है।''
पवन उठ खड़ा हुआ, ''थोड़ी देर और बैठे तो यहाँ डिनर टाइम हो जाएगा। तुम कहाँ खाना खाते हो आजकल।''
''वहीं जहाँ तुमने बताया था, मौसी के। और तुम?''
''मैं भी मौसी के यहाँ खाता हूँ पर मैंने मौसी बदल ली है।''
''क्यों?''
''वह क्या है यार मौसी कढ़ी और करेले में भी गुड़ डाल देती थीं और खाना परोसने वाली उसकी बेटी कुछ ऐसी थी कि झेली नहीं जाती थी।''
''हमारी वाली मौसी तो बहुत सख़्त मिज़ाज है, खाते वक्त आप वॉकमैन भी नहीं सुन सकते। बस खाओ और जाओ।''
''यार कुछ भी कहो अपने शहर का खस्ता, समोसा बहुत याद आता है।''

शहर में जगह-जगह घरों में महिलाओं ने माहवारी हिसाब पर खाना खिलाने का प्रबंध कर रखा था। नौकरी पेशा छड़े (अविवाहित) युवक उनके घरों में जा कर खाना खा लेते। रोटी सब्ज़ी, दाल और चावल। न रायता न चटनी न सलाद। दर तीन सौ पचास रुपए महीना, एक वक्त। इन महिलाओं को मौसी कहा जाता। भले ही उनकी उम्र पचीस हो या पचास। रात साढ़े नौ के बाद खाना नहीं मिलता। तब ये लड़के उडुपी भोजनालय में एक मसाला दोसा खा कर सो जाते। इतनी तकलीफ़ में भी इन युवकों को कोई शिकायत न होती। अपने उद्यम से रहने और जीने का संतोष सबके अंदर।

घर गृहस्थी वाले साथी पूछते, ''जिंदगी के इस ढंग से कष्ट नहीं होता?''
''होता है कभी-कभी।'' अनुपम कहता, ''सन 84 से बाहर हूँ। पहले पढ़ने की ख़ातिर, अब काम की।'' कभी-कभी छुट्टी के दिन अनुपम लिट्टी चोखा बनाता। बाकी लड़के उसे चिढ़ाते, ''तुम अनुपम नहीं अनुपमा हो।''
वह बेलन हाथ में नचाते हुए कहता, ''हम अपने लालू अंकल को लिखूँगा इधर में तुम सब बुतरू एक सीधे सादे बिहारी को सताते हो।''

जब आप अपना शहर छोड़ देते हैं, अपनी शिकायतें भी वहीं छोड़ आते हैं। दूसरे शहर का हर मंज़र पुरानी यादों को कुरेदता है। मन कहता है ऐसा क्यों है वैसा क्यों नहीं है? हर घर के आगे एक अदद टाटा सुमो खड़ी है। मारुति 800 क्यों नहीं? तर्क शक्ति से तय किया जा सकता है कि यह परिवार की ज़रूरत और आर्थिक हैसियत का परिचय पत्र है। पर यादें हैं कि लौट-लौट आती हैं सिविल लाइंस, एलगिन रोड और चैथम लाइंस की सड़कों पर जहाँ माचिस की डिबियों जैसी कारें और स्टियरिंग के पीछे बैठे नमकीन चेहरे तबियत तरोताज़ा कर जाते। ओफ, नए शहर में सब कुछ नया है। यहाँ दूध मिलता है पर भैसें नहीं दिखतीं। कहीं साइकिल की घंटी टनटनाते दूध वाले नज़र नहीं आते। बड़ी-बड़ी सुसज्जित डेरी शॉप हैं, एयरकंडीशंड, जहाँ आदमकद चमचमाती स्टील की टंकियों में टोटी से दूध निकलता है। ठंडा, पास्चराइज्ड। वहीं मिलता है दही, दुग्ध ना पेड़ा और श्रीखंड।

यही हाल तरकारियों का है। हर कालोनी के गेट पर सुबह तीन चार घंटे एक ऊँचा ठेला तरकारियों से सजा खड़ा रहेगा। वह घर-घर घूम कर आवाज़ नहीं लगाता। स्त्रियाँ उसके पास जाएँगी और ख़रीदारी करेंगी। उसके ठेले पर ख़ास और आम तरकारियों का अंबार लगा है। हरी शिमला मिर्च है तो लाल और पीली भी। गोभी है तो ब्रोकोली भी। सलाद की शक्ल का थाई कैबेज भी दिखाई दे जाता है। ख़ास तरकारियों में किसी की भी कीमती डेढ़ दो सौ रुपए किलो से कम नहीं। ये बड़े-बड़े लाल टमाटर एक तरफ़ रखे हैं कि दूर से देखने पर प्लास्टिक की गेंद लगते हैं। ये टमाटर क्यारी में नहीं प्रयोगशाला में उगाए गए लगते हैं। कीमत दस रुपए पाव। टमाटर का आकार इतना बड़ा है कि एक पाँव में एक ही चढ़ सकता है। दस रुपए का एक टमाटर है। भगवान क्या टमाटर भी एन.आर.आई. हो गया। शिकागो में एक डॉलर का एक टमाटर मिलता है। भारत में टमाटर उसी दिशा में बढ़ रहा है। तरकारियाँ विश्व बाज़ार की जिन्स बनती जा रही हैं। इनका भूमंडलीकरण हो रहा है। पवन को याद आता है उसके शहर में घूरे पर भी टमाटर उग जाता था। किसी ने पका टमाटर कूड़े करकट के ढेर पर फेंक दिया, वहीं पौधा लहलहा उठा। दो माह बीतते न बीतते उसमें फल लग जाते। छोटे-छोटे लाल टमाटर, रस से टलमल, यहाँ जैसे बड़े बेजान और बनावटी नहीं, असल और खटमिट्ठे।

शहर के बाज़ारों में घूमना पवन, शरद, दीपेंद्र, रोज़विंदर और शिल्पा का शौक भी है और दिनचर्या भी। रोज़विंदर कौर प्रदूषण पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार कर रही है। कंधे पर पर्स और कैमरा लटकाए कभी वह एलिस ब्रिज के ट्रैफ़िक जाम के चित्र उतारती है तो कभी बाज़ार में जैनरेटर से निकलने वाले धुएँ का जायज़ा लेती है।
दीपेंद्र कहता है, ''रोजू तुम्हारी रिपोर्ट से क्या होगा। क्या टैंपो और जेनरेटर धुआँ छोड़ना बंद कर देंगे?''
रोजू सिगरेट का आख़िरी कश ले कर उसका टोटा पैर के नीचे कुचलती है, ''माई फुट! तुम तो मेरे जॉब को ही चुनौती दे रहे हो। मेरी कंपनी को इससे मतलब नहीं है कि वाहन धुएँ के बग़ैर चलें। उसकी योजना है हवा शुद्धिकरण संयंत्र बनाने की। एक हर्बल स्प्रे भी बनाने वाली है। उसे एक बार नाक के पास स्प्रे कर लो तो धुएँ का प्रदूषण आपकी साँस के रास्ते अंदर नहीं जाता।''
''और जो प्रदूषण आँख और मुँह के रास्ते जाएगा वह?''
''तो मुँह बंद रखो और आँख में डालने को आइ ड्राप ले आओ।''
पवन के मुँह से निकल जाता है, ''मेरे शहर में प्रदूषण नहीं है।''
''आ हा हा, पूरे विश्व में प्रदूषण चिंता का विषय है और ये पवन कुमार आ रहे हैं सीधे स्वर्ग से कि वहाँ प्रदूषण नहीं हैं। तुम इलाहाबाद के बारे में रोमांटिक होना कब छोड़ोगे?''
रोजू हँसती है, ''वॉट ही मीन्स इज वहाँ प्रदूषण कम है। वैसे पवन मैंने सुना है यू.पी. में अभी भी किचन में लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनता है। तब तो वहाँ घर के अंदर ही धुआँ भर जाता होगा?''
''इलाहाबाद गाँव नहीं शहर है, कावल टाउन। शिक्षा जगत में उसे पूर्व का ऑक्सफोर्ड कहते हैं।''
शिल्पा काबरा बातचीत को विराम देती है, ''ठीक है, अपने शहर के बारे में थोड़ा रोमांटिक होने में क्या हर्ज़ है।''

पवन कृतज्ञता से शिल्पा को देखता है। उसे यह सोच कर बुरा लगता है कि शिल्पा की ग़ैर मौजूदगी में वे सब उसके बारे में हल्केपन से बोलते हैं। पवन का ही दिया हुआ लतीफ़ा है शिल्पा काबरा, शिल्पा का ब्रा।

'विश्वास नी जोत घरे-घरे— गुर्ज़र गैस लावे छे' यह नारा है पवन की कंपनी का। इस संदेश को प्रचारित प्रसारित करने का अनुबंध शीबा कंपनी को साठ लाख में मिला है। उसने भी सड़कें और चौराहे रंग डाले हैं।   

पृष्ठ 1.2.3.4.5.6.7.8.9.

आगे-

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।