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अभिषेक अभी ऑफ़िस से नहीं लौटा था। राजुल ने दो ग्लास कोल्ड काफी बनाई। एक ग्लास पवन को थमा कर बोली, ''तुम्हें विज्ञापनों की दुनिया कैसी लगती है?''
''बहुत अच्छी, जादुई। राजुल, मुल्क की सारी हसीन लड़कियाँ विज्ञापनों में चली गई हैं, तभी राजकोट की सड़कों पर एक भी हसीना नज़र नहीं आती।''
''गम्मत जम्मत छोड़ो, सीरियसली बोलो, ऐसा नहीं लगता कि मार्केटिंग के लिए विज्ञापन झूठ पर झूठ बोलते हैं।''
''मुझे ऐसा नहीं लगता। यह तो अभियान है इसमें सच और झूठ की बात कहाँ आती है?''

तभी अभिषेक भी आ गया। आज वह अच्छे मूड में था। उसके टूथपेस्ट वाले विज्ञापन को सर्वश्रेष्ठ विज्ञापन का सम्मान मिला था। उसने कहा, ''राजुल कल तुम मुझे कंडैम कह रही थीं, आज मुझे उसी कापी पर एवार्ड मिला।''
''कांग्रेचुलेशंस।'' पवन और राजुल ने कहा।
''कल तो तुम लानतें कस रही थीं। मेरी परदादी की तरह बाल रही थीं।''
''जब एथिक्स की यानी नैतिकता की बात आएगी मैं फिर कहूँगी कि विज्ञापन झूठ बोलते हैं। पर अभि, ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ तुम ऐसा करते हो, सब ऐसा करते हैं। जनता को बेवक़ूफ़ बनाते हैं।''
''जनता को शिक्षा और सूचना भी तो देते हैं।'' पवन ने कहा।
''पर साथ में जनता की उम्मीदों को बढ़ा कर उसका पैसा नष्ट करवाते हैं।'' राजुल ने कहा।
''हाँ हाँ, आज तक मैंने ऐसा विज्ञापन नहीं देखा जो कहता हो यह चीज़ न ख़रीदिए।'' अभिषेक ने कहा, ''विज्ञापन की दुनिया का खर्च और विक्री की दुनिया है। हम सपनों के सौदागर हैं, जिसे चाहिए बाज़ार जाए, सपनों और उम्मीदों से भरी ट्यूब ख़रीद लें। ये विज्ञापन का ही कमाल है कि हमारे तीन सदस्यों वाले परिवार में तीन तरह के टूथपेस्ट आते हैं। अंकुर को धारियों वाला टूथपेस्ट पसंद है, तुम्हें वह षोड़षी वाला और मुझे साँस की बू दूर करने वाला। टूथपेस्ट तो फिर भी गनीमत है, तुम्हें पता है- डिटरजेंट की विज्ञापनबाज़ी में और भी अँधेर है। हम लोग सोना डिटरजेंट की एड फ़िल्म जब शूट कर रहे थे तो सीवर्स के क्लीन डिटरजेंट से हमने बालटी में झाग उठवाए थे। क्लीन में सोना से ज़्यादा झाग पैदा करने की ताक़त है।''
पवन ने कहा, ''दरअसल बाज़ार के अर्थशास्त्र में नैतिकता जैसा शब्द ला कर, राजुल, तुम सिर्फ़ कनफ्यूजन फैला रही हो। मैंने अब तक पाँच सौ किताबें तो मैनेजमेंट और मार्केटिंग पर पढ़ी होंगी। उनमें नैतिकता पर कोई चैप्टर नहीं है।''

स्टैला डिमैलो इंटरप्राइज कार्पोरेशन में बराबर की पार्टनर थी और उसकी कंपनी गुर्ज़र गैस कंपनी को कंप्यूटर सप्लाई करती थी। पहले तो वह पवन के लिए कारोबारी चिट्ठियों पर महज़ एक हस्ताक्षर थी पर जब कंप्यूटर की दो एक समस्या समझने पवन शिल्पा के साथ उसके ऑफ़िस गया तो इस दुबली पतली हँसमुख लड़की से उसका अच्छा परिचय हो गया।

स्टैला की उम्र मुश्किल से चौबीस साल थी पर उसने अपने माता-पिता के साथ आधी दुनिया घूम रखी थी। उसकी माँ सिंधी और पिता ईसाई थे। माँ से उसे गोरी रंगत मिली थी और पिता से तराशदार नाक नक्श। जीन्स और टाप में वह लड़का ज़्यादा और लड़की कम नज़र आती। उसके ऑफ़िस में हर समय गहमागहमी रहती। फ़ोन बजता रहता, फैक्स आते रहते। कभी किसी फैक्टरी से बीस कंप्यूटर्स का एक साथ ऑर्डर मिल जाता, कभी कहीं कांफ्रेंस से बुलावा आ जाता। उसने कई तकनीशियन रखे हुए थे। अपने व्यवसाय के हर पहलू पर उसकी तेज़ नज़र रहती।

इस बार पवन अपने घर गया तो उसने पाया वह अपने नए शहर और काम के बारे में घर वालों को बताते समय कई बार स्टैला का ज़िक्र कर गया। सघन बी.एससी. के बाद हार्डवेयर का कोर्स कर रहा था। पवन ने कहा, ''तुम इस बाल मेरे साथ राजकोट चलो, तुम्हें मैं ऐसे कंप्यूटर वर्ल्ड में प्रवेश दिलाऊँगा कि तुम्हारी आँखें खुली रह जाएँगी।''
सघन ने कहा, ''जाना होगा तो हैदराबाद जाऊँगा, वह तो साइबर सिटी है।''
''एक बार तुम एंटरप्राइज़ ज्वाइन करोगे तो देखोगे वह साइबर सिटी से कम नहीं।''
माँ ने कहा, ''इसको भी ले जाओगे तो हम दोनों बिल्कुल अकेले रह जाएँगे। वैसे ही सीनियर सिटीजन कालोनी बनती जा रही है। सबके बच्चे पढ़ लिख कर बाहर चले जा रहे हैं। हर घर में, समझो, एक बूढ़ा, एक बूढ़ी, एक कुत्ता और एक कार बस यह रह गया है।''
''इलाहाबाद में कुछ भी बदलता नहीं है माँ। दो साल पहले जैसा था वैसा ही अब भी है। तुम भी राजकोट चली आओ।''
''और तेरे पापा? वे यह शहर छोड़ कर जाने को तैयार नहीं है।''
पापा से बात की गई। उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया।
''शहर छोड़ने की भी एक उम्र होती है बेटे। इससे अच्छा है तुम किसी ऐसी कंपनी में हो जाओ जो आस-पास कहीं हो।''
''यहाँ मेरे लायक नौकरी कहाँ पापा। ज़्यादा से ज़्यादा नैनी में नूरामेंट की मार्केटिंग कर लूँगा।''
''दिल्ली तकभी आ जाओ तो? सच दिल्ली आना-जाना बिल्कुल मुश्किल नहीं है। रात को प्रयागराज एक्सप्रेस से चलो, सबेरे दिल्ली। कम से कम हर महीने तुम्हें देख तो लेंगे। या कलकत्ते आ जाओ। वह तो महानगर है।''
''पापा मेरे लिए शहर महत्वपूर्ण नहीं है, कैरियर है। अब कलकत्ते को ही लीजिए। कहने को महानगर है पर मार्केटिंग की दृष्टि से एकदम लद्धड़। कलकत्ते में प्रोड्यूसर्स का मार्केट है, कंज्यूमर्स का नहीं। मैं ऐसे शहर में रहना चाहता हूँ जहाँ कल्चर हो न हो, कंज्यूमर कल्चर ज़रूर हो। मुझे संस्कृति नहीं उपभोक्ता संस्कृति चाहिए, तभी मैं कामयाब रहूँगा।'' माता पिता को पवन की बातों ने स्तंभित कर दिया। बेटा उस उम्मीद को भी ख़त्म किए दे रहा था जिसकी डोर से बँधे-बँधे वे उसे टाइम्स ऑफ इंडिया की दिल्ली रिक्तियों के काग़ज़ डाक से भेजा करते थे।

रात जब पवन अपने कमरे में चला गया राकेश पांडे ने पत्नी से कहा, ''आज पवन की बातें सुन कर मुझे बड़ा धक्का लगा। इसने तो घर के संस्कारों को एकदम ही त्याग दिया।''
रेखा दिन भर के काम से पस्त थी, ''पहले तुम्हें भय था कि बच्चे कहीं तुम जैसे आदर्शवादी न बन जाएँ। इसीलिए उसे एम.बी.ए. कराया। अब वह यथार्थवादी बन गया है तो तुम्हें तकलीफ़ हो रही है। जहाँ जैसी नौकरी कर रहा है, वहीं के कायदे कानून तो ग्रहण करेगा।''
''यानी तुम्हें उसके एटिट्यूड से कोई शिकायत नहीं है।'' राकेश हैरान हुए।
''देखो अभी उसकी नई नौकरी है। इसमें उसे पाँव जमाने दो। घर से दूर जाने का मतलब यह नहीं होता कि बच्चा घर भूल गया है। कैसे मेरी गोद में सिर रख कर दोपहर को लेटा हुआ था। एम.ए., बी.ए. करके यहीं चप्पल चटकाता रहता, तब भी तो हमें परेशानी होती।''

रेखा का चचेरा भाई भी नागपुर में मार्केटिंग मैनेजर था। उसे थोड़ा अंदाज़ था कि इस क्षेत्र में कितनी स्पर्धा होती है। वह एक फटीचर पाठशाला में अध्यापिका थी। उसके लिए बेटे की कामयाबी गर्व का विषय थी। उसकी सहयोगी अध्यापिकाओं के बच्चे पढ़ाई के बाद तरह-तरह के संघर्षों में लगे थे।

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