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सघन हँस दिया, ''माँ पोटेटो चिप्स नहीं, पढ़ने के चिप की बात करो। यह तो एक मैगज़ीन है, और न जाने कितनी हैं जो मैं अफोर्ड नहीं कर पाता। मेरे कोर्स की एक-एक सी.डी. की कीमत ढाई सौ रुपये होती है।''

नाश्ते के बाद वह बिना नहाए सो गया। उसकी मैली जीन्स रगड़ते हुए माँ सोचती रही, इसके कपड़ों से इसके संघर्ष का पता चल रहा है। जब तक वह घर पर था हमेशा साफ़ सुथरा रहता था। दोपहर में उसे खाने के लिए उठाया। बड़ी मुश्किल से वह उठा, चार कौर खा कर फिर सो गया। तभी उसके पुराने दोस्त योगी का फ़ोन आ गया। उसकी हार्ड डिस्क अटक रही थी। सघन ने कहा वह उसके यहाँ जा रहा है, मरम्मत कर देगा।
''तुम तो साफ्टवेयर प्रोग्रामिंग में हो।'' राकेश ने कहा।
''वहाँ मैंने हार्डवेयर का भी ईवनिंग कोर्स ले रखा है।'' सघन ने जाते-जाते कहा।

हम अपने बच्चों को कितना कम जानते हैं। उनके इरादे, उनका गंतव्य, उनका संघर्ष पथ सब एकाकी होता है। राकेश ने सोचा। उसकी स्मृति में वह अभी भी लीला दिखाने वाला छोटा-सा किशन कन्हैया था जबकि वह सूचना विज्ञान के ऐसे संसार में हाथ पैर फटकार रहा था जिसके ओर छोर समूचे विश्व में फैले थे।

रेखा ने कहा, ''जो मैं नहीं चाहती थी वह कर रहा है छोटू। हार्डवेयर का मतलब है मेकैनिक बन कर रह जाएगा। एक भाई मैनेजर दूसरा, मेकैनिक।''
राकेश ने डाँट दिया, ''जो बात नहीं समझती, उसे बोला मत करो। हार्डवेयर वालों को टैक्नीशियन कहते हैं, मेकैनिक नहीं। विदेश में सॉफ्टवेयर इंजीनियर से ज़्यादा हार्डवेयर इंजीनियर कमाते हैं। तुम्हें याद है जब यह छोटा-सा था, तीन साल का, मैंने इसे एक रूसी किताब ला कर दी थी 'मैं क्या बनूँगा?' सचित्र थी वह।''
रेखा का मूड बदल गया, ''हाँ मैं इसे पढ़ कर सुनाती थी तो यह बहुत खुश होता था। उसमें एक जगह लिखा था मैकेनिक अपने हाथ पैर कितने भी गंदे रखें उसकी माँ कभी नहीं मारती। इसे यह बात बड़ी अच्छी लगती। वह तस्वीर थी न बच्चे के दोनों हाथ ग्रीज से लिथड़े हैं और माँ उसे खाना खिला रही है।''
''पर छोटू कमज़ोर बहुत हो गया है। कल से इसे विटामिन देना शुरू करो।''
''मुझे लगता है यह खाने पीने के पैसे काट कर हार्डवेयर कोर्स की फीस भरता होगा। शुरू का चुप्पा है। अपनी ज़रूरतें बताता तो है ही नहीं।''

अभी सघन को सुबह शाम दूध दलिया देना शुरू ही किया था कि हॉट मेल पर उसे ताइवान की सॉफ्टवेयर से नौकरी का बुलावा आ गया। फुर्र हो गई उसकी थकान और चुप्पी। कहने लगा, ''मुझे दस दिनों से इसका इंतज़ार था। सारे बैच ने एप्लाय किया था पर पोस्ट सिर्फ़ एक थी।''
माँ बाप के चेहरे फक पड़ गए। एक लड़का इतनी दूर मद्रास में बैठा है। दूसरा चला जाएगा एक ऐसे परदेस जिसके बारे में वे स्पेलिंग से ज़्यादा कुछ नहीं जानते।
राकेश कहना चाहते थे सघन से, ''कोई ज़रूरत नहीं इतनी दूर जाने की, तुम्हारे क्षेत्र में यहाँ भी नौकरी है।''
पर सघन सहमति भेज चुका था। पासपोर्ट उसने पिछले साल ही बनवा लिया था। वह कह रहा था, ''पापा बस हवाई टिकट और पाँच हज़ार का इंतज़ाम आप कर दो, बाकी मैं मैनेज कर लूँगा। आपका खर्च मैं पहली पे में से चुका दूँगा।''
रेखा को लगा सघन में से पवन का चेहरा झाँक रहा है। वही महाजनी प्रस्ताव और प्रसंग। उसे यह भी लगा कि जवान बेटे ने एक मिनट को नहीं सोचा कि माता पिता यहाँ किसके सहारे ज़िंदा रहेंगे।

अनिवासी और प्रवासी केवल पर्यटक और पंछी नहीं होते, बच्चे भी होते हैं। वे दौड़-दौड़ कर दर्ज़ी के यहाँ से अपने नये सिले कपड़े लाते हैं, सूटकेस में अपना सामान और काग़ज़ात जमाते हैं, मनी बेल्ट में अपना पासपोर्ट, वीजा और चंद डॉलर रख, रवाना हो जाते हैं अनजान देश प्रदेश के सफ़र पर, माता पिता को सिर्फ़ स्टेशन पर हाथ हिलाते छोड़ कर।

प्लेटफॉर्म पर लड़खड़ाती रेखा को अपने थरथराते हाथ से संभालते हुए राकेश ने कहा, ''ठीक ही किया छोटू ने। जितनी तरक्की यहाँ दस साल में करता उतनी वह वहाँ दस महीनों में कर लेगा। जीनियस तो है ही।''
कॉलोनी के गुप्ता दंपत्ति भी उनके साथ स्टेशन आए हुए थे। मिसेज गुप्ता ने कहा, ''वायरल फीवर की तरह विदेश वायरस भी बहुत फैला हुआ है आजकल।''
खुद कुछ भी कह लो, ''हमारा छोटू ऐसा नहीं है। उसके विषय में यहाँ कुछ ज़्यादा है ही नहीं। कह कर गया है कि ट्रिक्स ऑफ द ट्रेड सीखते ही मैं लौट आऊँगा। यही रह कर बिजनेस करूँगा।''
''अजी राम कहो।'' गुप्ता जी बोले, ''जब वहाँ के ऐश ओ आराम में रह लेगा तब लौटने की सोचेगा? यह मुल्क, यह शहर, यह घर सब जेल लगेगा जेल।''
''लेट्स होप फॉर द बेस्ट।'' राकेश ने सबको चुप किया।

घर वही था, दर ओ दीवार वही थे, घऱ का सामान वही था, यहाँ तक कि रूटीन भी वही था पर पवन और सघन के माता पिता को मानो वनवास मिल गया। अपने ही घर में वे आकुल पंछी की तरह कमरे कमरे फड़फड़ाते डोलते। पहले दो दिन तो उन्हें बिस्तर पर लगता रहा जैसे कोई उन्हें हवा में उड़ाता हुआ ले जा रहा है। जब तक सघन का वहाँ से फ़ोन नहीं आ गया, उनके पैरों की थरथराहट नहीं थमी।

छोटे बेटे के चले जाने से बड़े बेटे की अनुपस्थिति भी नये सिरे से खलने लगी। दिन भर की अवधि में छोटे-छोटे करिश्मे और कारनामे, बच्चों को पुकार कर दिखाने का मन करता, कभी पुस्तक में पढ़ा बढ़िया-सा वाक्य, कभी अखबार में छपा कोई मौलिक समाचार, कभी बगिया में खिला नया गुलाब, इस सब को बाँटने के लिए वे आपस में पूरे होते हुए भी आधे थे। प्रकट राकेश सुबह उठते ही अपने छोटे से साप्ताहिक पत्र के संपादन में व्यस्त हो जाते, रेखा कुकर चढ़ाने के साथ कॉपियाँ भी जाँचती रहती पर घर भायं-भायं करता रहता। सुबह आठ बजे ही जैसे दोपहर हो जाती।

बच्चे घर के तंतु जाल में किस कदर समाए होते हैं यह उनकी ग़ैर मौजूदगी में ही पता चलता है। दफ्तर जाने के लिए राकेश स्कूटर निकालते। सुबह के समय स्कूटर को किक लगाना उन्हें नागवार लगता। वे पहली कोशिश करते कि उन्हें लगता सघन का पैर स्कूटर की किक पर रखा है। ''लाओ पापा मैं स्टार्ट कर दूँ।'' चकित दृष्टि दायें बायें उठती फिर अड़ियल स्कूटर पर बेमन से ठहर जाती।

रसोई में ताक बहुत ऊँचे लगे थे। रेखा का कद सिर्फ़ पाँच फुट था। ऊपर के ताकों पर कई ऐसे सामान रखे थे जिनकी ज़रूरत रोज़ न पड़ती। पर पड़ती तो सही। रेखा एक पैर पट्टे पर उचक कर मर्तबान उतारने की कोशिश करती पर कामयाब न हो पाती। स्टूल पर चढ़ना फ्रेक्चर को खुला बुलावा देना था।

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