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                       मीरा 
						जल गई थी उसकी बातों से। मीरा को एकदम साफ़–सुथरा 
						चमकता–धमकता घर पसंद था। अगर वह उसके लिए खर्चती है तो 
						अंजन को क्यों चुभता है? उससे तो कुछ नहीं लेती...न ही 
						उसका कुछ काटा जाता है। मीरा को उन दिनों विजय पर भी बहुत 
						गुस्सा आने लगा था। विजय क्यों नहीं अपने भाई से कुछ कहता? 
						पर विजय को लगता था अंजन पहली बार उसके घर आया है, उसे हर 
						तरह से खुश रखा जाए। पर मीरा उसकी खुशी का सामान 
						जुटाते-जुटाते खुद तबाह हो रही थी, इसका अंदाजा विजय को 
						पूरी तरह नहीं था। तभी एक बार उसने कहा था, 
 "मीरा, मैं जानता हूँ आजकल तुम्हारा काम बढ़ गया है। तुम 
						बहुत थक जाती होगी, पर आफ्टर आल, हम कुछ बड़ी बात तो नहीं 
						कर रहे। सभी औरतें करती ही हैं घर की देखभाल। आखिर मेरे 
						भाई-बहन तो मेरी ही रिस्पांसिबिलिटी हैं। हम नहीं करेंगे 
						तो और कौन करेगा! आख़िर अंजन को सेटल तो करना ही है, कुछ 
						महीनों में रेजिड़ेंसी मिलते ही उसको चले ही जाना है, तब तक 
						जैसे-तैसे निभा लो, एक ही तो ख्वाहिश है माँ की...वर्ना 
						हिंदुस्तान से कौन रोज–रोज आता है यहाँ।"विजय की बात ठीक 
						थी और ठीक नहीं भी, क्योंकि अगले मेहमान विजय की बहन और 
						उसका परिवार था। मीरा के घर में तहलका मच गया था उन दिनों। 
						बहन घर के काम में मदद जरूर करती थी पर उनका काम करने का 
						ढंग ऐसा था कि उसे सँवारने में उलटे घंटों लग जाते, सो 
						मीरा उन्हें काम करने से रोकती ही थी। वे फुलके बनातीं और 
						सारी रसोई में पलेथन बिखरा होता। स्टोव पर भी सूखा जला हुआ 
						आटा, सालन बनाती तो रसोई की दीवारों पर हल्दी और चिकनाई के 
						छींटे गिरे होते। कभी मीरा इतनी खीझ जाती कि मन होता घर 
						छोड़-छाड़कर कहीं चली जाए पर विजय का वही रुख होता, "मीरा, 
						बी ए लिटल पेशेंट, वे बेचारे यहाँ सेटल होना चाहते हैं तो 
						मेरे सिवा और कौन टिकाएगा अपने पास, आख़िर वह मेरी बहन हैं, 
						बहन के प्रति भाई का कुछ फ़र्ज़ होता है, तुम काम से इतना 
						घबराती क्यों हो? तुम्हें शुक्र करना चाहिए कि हमारी माली 
						हालत ऐसी है कि हम इनके लिए कुछ कर सकते हैं, वर्ना कितने 
						लोग इस स्थिति में होते हैं कि बिना बोझ महसूस किए किसी के 
						लिए कुछ कर सकें।"
 
 विजय उसी को अपराधी बना देता और मीरा खुद कभी भी कोई 
						शिकायत नहीं कर पाती। विजय स्वयं और भी देर से दफ़्तर से 
						आता। घर के बढ़े हुए खर्चों के लिए वह और ज्यादा कमाना ही 
						एक सही तरीका मानता था। इसमें उसे शिकायत नहीं थी। उसका 
						काम उसे सुख ही देता था और अब तो काम के सुख में बहन के 
						लिए त्याग का सुख भी शामिल हो गया था। मीरा को लगा इस जंग 
						में एक तरफ़ वह अकेली है, दूसरी तरफ़ विजय और उसके भाई-बहन। 
						मन ही मन विजय से कहीं दूर होती जा रही थी वह।
 
 और इस दौरान कहीं राहत थी तो कृष्णन की बातचीत और कृष्णन 
						के साथ में। जब सिराक्यूज से लौटी थी तो उसके आठ-दस दिन 
						बाद कृष्णन का फोन आया था। दिन के वक्त मीरा अकेली ही घर 
						पर होती थी। खुलकर बात होती रही।
 कृष्णन ने कहा था, "तुमने पहुँचने की इत्तला तक नहीं दी 
						थी, मैं इंतजार करता रहा। पैर कैसा है?"
 "दर्द गया नहीं, अगले हफ़्ते डॉक्टर से अपायंटमेंट है, तभी 
						पता चलेगा।"
 "बहुत याद आ रही है तुम्हारी, हम कभी मिल सकते हैं?"
 और मीरा के भीतर फिर से हलचल मच गई थी। इतने दिन से जो 
						संतुलन बनाने की कोशिश कर रही थी, वह एकदम चूने की दीवार 
						की तरह भुर्रा गया। उसके भीतर फिर से तूफ़ान उठने लगे। पर 
						कैसे मिलेगी कृष्णन को? कहाँ मिलेगी? यह सब कहाँ ले जाएगा 
						उसे...
 "कृष्णन, लगता नहीं कि यह संभव होगा।"
 "देखता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ।"
 एक दिन कृष्णन ने कहा था, "मैंने कारनैल यूनिवर्सिटी में 
						बात की है। वे लोग तुम्हें बुलाने को तैयार हैं। तुम 
						कार्यक्रम दोगी?"
 मीरा एकदम उत्साहित हो उठी थी, पर उसका पैर अभी भी ठीक 
						नहीं हुआ था।
 "कृष्णन, काश मैं आ सकती, पर डॉक्टर कहता है कि कम से कम 
						छः महीने मुझे डांस नहीं करना चाहिए, वरना जो टिश्यूज ठीक 
						हो रहे हैं, फिर से टूट जाएँगे।"
 "ओह, नो! फिर मैं आ रहा हूँ न्यूयार्क तुमसे मिलने।"
 "लेकिन मैं..."
 "तुम फ़िक्र मत करो।"
 "कृष्णन, पता नहीं यह ठीक है या नहीं, शायद तुम्हें नहीं 
						आना चाहिए।"
 "इसमें ठीक होने या न होने की कोई बात नहीं, यह सिर्फ 
						प्यार है! हम दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं।
 
 फोन रखने के बाद मीरा घंटों सोचती रही, ये सब क्या है? सच 
						में प्यार है या कि पेशन! एक उद्दाम आवेग...एक तूफ़ान ला 
						देने वाला मोहक आकर्षण या कि सागर की तरह कभी भी न सूखने 
						वाला अथाह जल का प्रवाह? पर मीरा की सोचने की शक्ति ख़त्म 
						होती जा रही है। उत्ताल लहरों के आवेग ने उसके मन के सागर 
						की निचली तहों में भी कंपन पैदा कर दिया है। वह पहली बार 
						अपनी रंगों में, अपने खून के कतरे-कतरे में ऐसा उद्दाम 
						आवेग महसूस कर रही है। एक विशाल जल-प्रपात जिस शक्ति और 
						तेजी के साथ चट्टानों को फोड़ता हुआ बह चला जाता है, मीरा 
						के तन-मन में वैसे ही जल-प्रपात उमड़ रहे थे। उस उमड़न में 
						वह खुद बह रही थी और कृष्णन भी।
 
 लेकिन मीरा इस तूफ़ानी बहाव से डरने लगी है। क्या कोई ऐसी 
						ताक़त नहीं जो उसे जकड़कर रुद्ध कर दे? क्या कोई भी इस 
						प्रवाह को रोक नहीं सकता? उसे डूबने से बचा नहीं सकता? 
						शायद उसे कृष्णन से कहीं दूर चले जाना चाहिए।
 क्या विजय को बता देने से मन का बोझ और रक्त का ताप 
						सामान्य हो जाएगा? और एक रात मीरा विजय से पूछ बैठी थी, 
						"विजय, अगर तुम्हारी बीवी का किसी दूसरे पुरुष के साथ 
						शारीरिक संबंध हो जाए तो तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया होगी?"
 विजय ने बड़े सामान्य ढंग से जवाब दिया था, "अगर एकाध बार 
						कुछ हो तो उसे महज एक आकस्मिक दुर्घटना मान लूँगा। लेकिन 
						अगर चलता रहे तो...तो फिर सोचना पड़ेगा।"
 
 मीरा से आगे कुछ नहीं कहा गया। उसकी स्थिति क्या मात्र एक 
						आकस्मिक दुर्घटना है या कि 'ऑनगोइंग रिलेशनशिप? क्या मीरा 
						के हक में है इसे दुर्घटना मात्र बने रहने देना? ठीक है, 
						वह अब और कृष्णन से नहीं मिलेगी।
 अगले दिन उसने विजय से कहा था, "तुम कह रहे थे न कि 
						हिंदुस्तान छुट्टी मना आऊँ...आज पिल्लै जी का मद्रास से ख़त 
						आया है, वे मुझे पद्म सिखाने को तैयार हैं। ममी-पापा भी तो 
						कितना मिस कर रहे हैं। जब से यहाँ आई हूँ एक बार भी लौटी 
						नहीं, आई एम रियली मिसिंग इंडिया, तुम एक-दो महीने तो अपना 
						ध्यान रख ही सकते हो।"
 "ठीक कह रही हो, मैं भी जाना चाहता हूँ। तुम डेढ़-दो महीने 
						रह लो वहाँ, फिर मैं भी तुम्हें ज्वाइन कर लूँगा। हम तो 
						ठहरे वर्किंग क्लास के लोग, दो हफ़्ते से ज्यादा की छुट्टी 
						की सोच भी नहीं सकते। अच्छा है तुम तो दीवाली दिल्ली में 
						ही मनाना।"
 हिंदुस्तान से लौटी थी तो मना करने के बावजूद कृष्णन उससे 
						मिलने न्यूयार्क ही चला आया था।
 "इस तरह कब तक चलेगा?" उसने कृष्णन से कहा था।
 "मैं नहीं रह सकता तुम्हारे बिना।" कृष्णन ने उसके वक्ष से 
						अपना चेहरा सटाकर कहा था। मीरा के पास जवाब नहीं था इसका। 
						वह फिर बोला था, "मीरा, मुझसे शादी करोगी?"
 
 मीरा चुप ही रही थी। फिर कुछ देर बाद कहा था, "मैंने कहा 
						था न तुम मेरी जिंदगी की फैंटेसी हो, यथार्थ नहीं बन 
						सकते।"
 "पर क्यों? मीरा, क्यों यथार्थ नहीं बन सकते? हम दोनों के 
						ही हाथ में है सब..."
 "तुम्हारे लिए शायद कोई बंदिश नहीं, पर मैं तो बँधी हूँ।"
 "पर बंधन तोड़ भी तो सकती हो तुम?"
 "बंधन तोड़ना कोई आसान तो नहीं...फिर एक बंधन को तोड़कर 
						दूसरे वैसे ही बंधन में बँध जाने की भी तो तुक नहीं।"
 "क्या?" कृष्णन हतप्रभ रह गया था।
 "हाँ, कृष्णन, बंधन तभी तोड़ती न अगर विजय के साथ नाखुश 
						होती...पर विजय के साथ मेरा जीवन एकदम संतुलित, 
						समस्या-रहित, सहज रूप में चल रहा है। उसमें तुम्हारी वजह 
						से क्यों रोड़े अटकाऊँ सोचो, कृष्णन, तुम्हें आख़िर कितना 
						जानती हूँ, एक प्रेमी के रूप में तुम बेहद सुखकर हो, पर एक 
						पति के रूप में..."
 
 कृष्णन जैसे चोट खाए हुए बोला था, "पति और प्रेमी में क्या 
						इतना फ़र्क होता है?"
 "होता है और नहीं भी। पति और प्रेमी कुछ देर के लिए एक भी 
						हो सकते हैं, पर इन द लांग रन दोनों को अलग-अलग होना ही 
						पड़ता है। पति बनकर प्रेमी प्रेमी नहीं रह जाता। यों अंततः 
						हर प्रेमी पति बनकर ही रहता है। मेरा मतलब एटीटयूड्स में। 
						और पति प्रेमी बनकर भी मूलतः पति ही रहता है।"
 "लेकिन मीरा, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ तुमसे शादी करना 
						चाहता हूँ...मेरे लिए तुम्हारा यह फलसफ़ा एकदम बेकार है।"
 "ठीक है, हम फलसफ़ा नहीं झाड़ेंगे, तुम सिर्फ़ प्यार करो।" और 
						मीरा का समूचा का समूचा बदन कृष्णन के फैले हुए जिस्म पर 
						छितर गया था।
 "कृष्णन, जब तुम मुझे शादी के बिना ही पूरा का पूरा पा 
						सकते हो, तब शादी किसलिए?"
 "ये पाना कोई पाना नहीं। छिप-छिपकर, कुछेक घंटे, और फिर 
						दिनोंदिन सूरत तक नहीं दिखती।"
 और मीरा सोच रही थी कि कृष्णन कितना आकर्षक पर कितना भोला 
						और भावुक है। वह उसे कितना भी प्यार करती हो, विजय को 
						छोड़ना कैसे संभव हो सकता है उसके लिए, फिर विजय किसी ठोस 
						जमीन की तरह है जिसके सहारे खड़ी वह खुद भी मजबूत बनी 
						रहेगी। एक बार मजबूत नींव से पैर हटा लिए तो फिर जाने 
						कहाँ-कहाँ बह जाएगी वह।
 
 पर यह मजबूत नींव है क्या? विजय, या उसका धन? उसका 
						कारोबार? और यह कारोबार भी तो उस धूप-छाँही छलावे भरी 
						बाजारू औरत-सा है जो लगातार विजय को भरमाए रखती है। 
						ऊपर-नीचे जिधर-जिधर भागती है, उसी के पीछे-पीछे विजय 
						भी...स्टाक मार्केट ऊपर तो विजय भी...बाजार नीचे तो...विजय 
						के मूड्स उस सौतन के मूड्स के साथ–साथ ही उठते-गिरते, 
						बदलते हैं और क्या कृष्णन ने उसे शरीर का ही सुख दिया है? 
						क्या वह सब नहीं दिया जो विजय नहीं दे पाता? एक ग़र्म 
						लावे-सा तपता हुआ प्यार, किनारों को तोड़ बह जाने वाला 
						भावों का आवेग! सर्पीली रस्सियों की तरह जकड़ लेने वाली 
						उद्दाम चाह! पर ये सब तो शरीर-सुख से ही नहीं जुड़े हुए।
 
 पर नहीं, इतना ही नहीं, कृष्णन के बिना उसका नृत्य मर 
						जाएगा, कृष्णन उसकी प्रेरणा है, उसके दिमाग़, दिल और जिस्म, 
						हर कहीं हरकत पैदा करने वाला कृष्णन! उसके जिंदा होने का 
						पर्याय बनता जा रहा है। नहीं, इतना नहीं हो सकता! इस तरह 
						उसकी जिंदगी पर छा नहीं सकता कृष्णन, पर वह शायद 
						अवश्यंभावी है। क्या वह इसे घटने से रोक सकती है? शायद रोक 
						सकती है, पर क्या...क्या इसकी कोशिश भर करने जितनी विल 
						पॉवर है उसमें? पर विल पॉवर क्यों? किसलिए? विजय ठोस धरती 
						पर है... होगा...पर क्या विजय ने उसे एक पढ़े हुए अख़बार की 
						तरह एक कोने में नहीं छोड़ दिया?
 
 अपने द्वारा लगाए गए विजय पर इस आरोप से मीरा को खुद ही 
						दहशत-सी हुई। पर हर शादीशुदा औरत का यही हश्र तो होता है। 
						होता है तो हुआ करे...पर मीरा के साथ ऐसा क्यों हो? और 
						उसके साथ ऐसा होना है तो फिर विजय के साथ भी ऐसा ही हो। 
						पुरुष क्यों उस नियति से बचा रहे? उसकी पूजा ही क्यों होती 
						रहे? उसे याद है शादी के बाद पहली करवाचौथ पर सास ने व्रत 
						करने की हिदायत भेजी थी। उसने तब कर लिया था, पर मुड़कर 
						दुबारा नहीं रख सकी। मन विद्रोह करता था। जब पत्नी की कहीं 
						पूजा नहीं होती तो पति की क्यों हो? हर तरह से औरत को गौण 
						साबित करने वाले रिवाज़ों को वह क्योंकर मानती चले? 
						हिंदुस्तान से लौटने के छः महीने बाद ही विजय का भाई अंजन 
						और फिर उसकी बहन परिवार सहित न्यूयार्क आ गए थे। मीरा पूरी 
						तरह से घर-परिवार में लिबड़ गई थी।
 
 उन्हीं दिनों कृष्णन ने फोन किया था- वेस्टकोस्ट पर उसने 
						मीरा के दो नृत्य-प्रदर्शन पक्के किए हैं। मीरा के पैरों 
						में अचानक थिरकन भर गई। लगभग उछलते हुए उसने सवालों की झड़ी 
						लगा दी-कब के शो हैं...कौन से शहर में...कौन से थियेटर 
						में...किससे बात करनी होगी...साजिंदों का क्या हिसाब 
						होगा...कितनी देर के शो होने चाहिए...और कृष्णन उसे 
						अलग–अलग नाम-पते लिखवाता रहा।
 
 दिनभर एक्साइटेड रही थी मीरा। शाम को विजय को बताया तो 
						उसने कोई उत्साह नहीं जताया। मीरा परेशान होकर बोली, "तुम 
						कुछ कह नहीं रहे, विजय?"
 तब बड़ी रुक-रुककर विजय ने कहा था, "यों तो मैं तुम्हें कभी 
						भी रोकना नहीं चाहता, पर अब जबकि बहन जी-जीजा जी का परिवार 
						यहाँ है...क्या इतने दिन के लिए उन्हें अचानक छोड़कर चले 
						जाना ठीक रहेगा?"
 "तो उसमें क्या है? वे कोई दो-चार दिन के लिए थोड़ी ही आए 
						हैं, उन्हें तो महीनों रुकना है। अगर मैं बीच में..."
 मीरा अपनी बात पूरी नहीं कर पाई थी कि विजय बोल पड़ा था, 
						"यों तुम जैसा ठीक समझती हो वही करो, पर मुझे तुम्हारा चले 
						जाना जँचता नहीं। पोस्टपोन करवा दो शो, वे तो कभी भी हो 
						सकते है और अगर नहीं भी किया तो कितना फ़र्क पड़ जाएगा। 
						रिहर्सलों के लिए भी तो जाओगी...इतना वक्त होगा?"
 
 यानी कि विजय नहीं चाहता कि वह घर के दायित्व से बचकर कहीं 
						भाग जाए।
 बोली, "शो तो ख़ैर पोस्टपोन नहीं हो सकते...वार्षिक उत्सव 
						के सिलसिले में हैं। पर ख़ैर, मैं उनको मना कर दूँगी।"
 अगले दिन उसने कृष्णन को फोन करके बताया कि वह नहीं जा 
						सकेगी तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ था।
 "हाऊ कैन यू डू दैट, मीरा! मेहमान तो आते–जाते रहते हैं। 
						उसके लिए काम नहीं छोड़ा जाता। क्या विजय नौकरी पर नहीं 
						जाता? फिर तुमसे क्या उम्मीद की जाती है?"
 "मेरा काम काम नहीं माना जाता न, सिर्फ़ एक शौक़ की तरह देखा 
						जाता है। आई एम नौट द ब्रेड अर्नर..."
 "दैट वॉट...सिर्फ़ पैसा कमाने से काम में गंभीरता नहीं आ 
						जाती! जरूरी यह है कि तुम खुद अपने आप को कितनी गंभीरता से 
						लेती हो। जब तक तुम खुद ही अपने नृत्य को महत्व नहीं दोगी, 
						तब तक औरों से कैसे उम्मीद कर सकती हो? यू मस्ट असर्ट यूअर 
						राइट।"
 
 "पर इस बार...सिर्फ़ इस बार तो माफ़ ही कर दो, अपनी वजह से 
						किसी तरह का तनाव नहीं चाहती मैं।"
 "यह क्या हो रहा है तुम्हें, मीरा? तुम धीरे–धीरे अपनी 
						सारी अग्रेसिवनेस खोती जा रही हो, इतनी मुश्किल से दोनों 
						शो फिक्स करवाए थे मैंने...अब फिर पता नहीं कब मौका 
						लगेगा।"
 "मैं जानती हूँ, कृष्णन, समझती हूँ तुम्हारी मुश्किल, बट 
						आई एम हेल्पलेस प्लीज, एक्सक्यूज मी!"
 मीरा की आवाज भर्रा गई। उसने फोन रख दिया था। अचानक उसे 
						विजय पर खूब तीखा गुस्सा आया। मन हुआ कि दफ़्तर में ही उसे 
						फोन करके कह दे कि यह उसकी बहुत ज्यादती है और मीरा तो 
						वेस्टकोस्ट जाएगी। फिर सहसा ख़याल आ गया कि विजय तो बेचारा 
						खुद ही मजबूर है। वह जोर देगी तो विजय शायद जाने भी देगा, 
						पर फिर घर का सारा बोझ उसी पर पड़ जाएगा। आजकल यों भी शामों 
						को भी आराम नहीं मिलता, उसकी रूटीन एकदम टूट गई है। पहले 
						संगीत वगैरह से खुद को बहला लेता, अब तो यों ही मजलिस लगी 
						होती है घर में। अगर कोई रेकार्ड लगा दिया विजय ने तो 
						जीजाजी कह डालते, "दिनभर इंतजार करने के बाद तो घर आए हो, 
						हमारे साथ बैठकर कुछ गप-शप मारो, ये क्या टूँ-टाँ लगा देते 
						हो!"
 
 विजय ने मुड़कर कभी संगीत नहीं लगाया, पर अपनी रुटीन का 
						विजय इतना आदी है कि उससे जरा-से टूटने से वह बड़ा 
						अस्वस्थ-सा हो जाता है और मीरा इसे महसूस कर रही थी। विजय 
						का सोना-जागना, खाना-पचाना सब कुछ घड़ी की सुइयों के साथ 
						बँधा रहता था। एक और पूरा परिवार घर में बस जाने से कुछ न 
						कुछ रुटीन तो बिगड़ी ही थी। खाने में एक-दो दिन देर हो गई, 
						घर पर हिंदुस्तानी तला हुआ खाना ज्यादा बन रहा था। विजय का 
						पेट इसी वजह से ख़राब चल रहा था, कभी सरदर्द की शिकायत 
						करता, कभी थकान की। मीरा को लगा फिलहाल उसे अपनी शिकायतें 
						स्थगित कर देनी चाहिए।
 
 पर फिर भी मीरा के लिए विजय की बहन जी को सहना बेहद कष्टकर 
						था। रोज मनाती कि जीजा जी को किसी तरह जल्दी नौकरी लगे तो 
						कोई अपना अलग ठिकाना बनाएँ।
 
 पाँच–छः हफ़्ते बाद कृष्णन का फिर फोन आया था। बहुत 
						उत्साहित था।
 "मीरा, न्यू जर्सी में सुना है एक मंदिर का उद्घाटन है। 
						मेरे एक मित्र ने उसके लिए बड़ी रकम दी थी, वहाँ नाचना पसंद 
						करोगी?"
 "कहाँ मंदिर में...मंदिर के आँगन में?"
 "हाँ, शायद आँगन में ही।"
 "बिलकुल करूँगी...जरूर करूँगी, कब है?"
 और तभी मीरा को ध्यान आया कि उसकी बदली परिस्थिति का।
 "पर कृष्णन, वक्त कहाँ मिलेगा, मैंने नौकरी शुरू कर दी 
						है।"
 "नौकरी...कैसी नौकरी?"
 "हाँ कृष्णन, बहुत बेचैन हो जाती थी घर पर, इस बहाने कम से 
						कम घर से बाहर तो निकल जाती हूँ।"
 "लेकिन क्या काम?...कैसा काम?"
 "काम क्या...वही दफ़्तर की नौकरी, मैनेजमेंट एनालिस्ट का 
						काम करती हूँ।"
 "तुम और एनालिस्ट?"
 
 "बस, पीएच ड़ी॰ के बूते पर तुक्का लग गया, पर अभी से बोरियत 
						हो रही है। मेरे मन का काम नहीं है। बजट एनालिसिस करो 
						बैठकर, पर करूँ भी क्या? किसी यूनिवर्सिटी-कॉलेज में तो 
						काम मिलने के आसार ही नहीं दीखते, कुछ न कुछ तो करना ही है 
						न?"
 "मीरा...!" कहकर कृष्णन चुप रहा था।
 "कुछ कहा तुमने, कृष्णन?"
 "मीरा, तुम्हारी आवाज इतनी बुझी-बुझी सी क्यों है?"
 "कुछ नहीं, यों ही थक गई हूँ। नौ से पाँच काम करने की आदत 
						नहीं, फिर घर पर बहनजी वगैरह भी आए हुए हैं।"
 "मीरा...!" फिर चुप्पी।
 "बोलो..."
 "तुम खुश नहीं हो न...?"
 "हं ऊ...उ..."
 "तुमसे मुलाक़ात हो सकती है?...मुझे अगले हफ्ते न्यूयार्क 
						आना है।"
 "पहुँचकर फोन करना...मेरे दफ़्तर का नंबर लिख लो।"
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