| 
          इस सप्ताह— 
              समकालीन कहानियों में भारत से रवींद्रनाथ भारतीय की कहानी 
              
              
              थोड़ा आसमान उसका अपना
 
  हमेशा की तरह, मैं खुश ही हूँ, तुम कैसे हो? कितने दिन हो गए 
                    तुमसे मिले। तुम्हारा क्या है, तुम तो अब भी वैसे ही कहते होगे 
                    सबसे बड़ी शान के साथ, "कविता, मैं किसी को याद नहीं रख सकता! 
                    तुम तो एकदम याद नहीं आतीं, मैं तो हूँ ही ऐसा।" पर मैं जानती 
                    हूँ तुम कैसे हो। ऐसा है ज़्यादा हाँकने की कोशिश मत किया करो। 
                    जैसे हो वैसे ही रहो तो अच्छा। अभी तो तुमने ऐसी दीवार उठा दी 
                    है कि तुमसे मिलना, पहले के जैसा ही हो चला है, पहले कम से कम 
                    एक आशा तो रहती थी कि तुम दिखोगे, अब तो तुमने वो भी गिरा ही 
                    दी है। क्यों किया तुमने ऐसा, क्या और कोई रास्ता नहीं था?  
              जिस तरह मैं चल रही हूँ, तुम क्यों नही चल पाए? 
      * 
          हास्य-व्यंग्य में अशोक चक्रधर की रचना
  सारा 
          डेटा पा जाएगा बेटा अधिक नहीं कुछ चाहिए, अधिक न मन 
          ललचाय,
 साईं इतना दीजिए, साइबर में न समाय।
 भक्त की ये अरदास सुनकर भगवान घबरा गए। क्या! भक्त इतना चाहता है जो 
          साइबर में न समाए! अरे भइया! इतना तो अपने पास भी नहीं है। अपन को 
          मृत्युलोक का डेटा लेना होता है तो साइबर स्पेस में सर्च मारनी पड़ती है। 
          यमराज का सारा काम आजकल इंटरनेट पर चल रहा है। पूरे ब्रह्मांड के इतने 
          ग्रह-नक्षत्र, उनमें इतने सारे जीवधारी! किसकी जन्म की किसकी मृत्यु की 
          बारी? सब नेट से ही तो ज्ञात होता है। डब्ल्यू-डब्ल्यू-डब्ल्यू यानी 
          वर्ल्ड वाइड वेब अब बी-बी-बी हो गया है। बी-बी-बी अर्थात बियोंड 
          ब्रह्मांड बेस।
 
      * 
      महानगर की कहानियों में मधु संधु की लघुकथा 
      थैंक्यू
 
  'एक 
      मलाई कोफ्ता, एक कड़ाई पनीर, एक दाल मक्खनी और साथ में नान।' आर्डर करने के 
      बाद वे बीस मिनट प्रतीक्षा करते रहे। पानी आया, प्लेटें लगी, नेपकिन बिछे, 
      बैरा खाना लाया-सभी व्यस्त हो गए। बीच में एक बार चम्मच बजाना पड़ा। लाल कोट 
      वाला बैरा तेज़ी से आया-'यस सर'. . . 'एक दाल और तीन नान प्लीज़' जब तक वह यह 
      सब लाया बाकी की चीज़ें ठंडी हो चुकी थी। 'थैंक्यू' उन्होंने कहा। यह 
      मालरोडीय सभ्य परिवार जब उठा तो प्लेटों में जूठन का नाम तक नहीं था। 
      आईसक्रीम पार्लर से आईसक्रीम ली, थैंक्यू बोला और गाड़ी में बैठकर खाने लगे। 
      * 
      रचना प्रसंग में महेश अनघ समझा रहे हैंनवगीत का वस्तु विन्यास
 
  गीत 
      की दो अनिवार्य शर्तें रही हैं - छंद संतुलन और अंत्यानुप्रास (तुकांत)। आदि 
      कवि वाल्मीकि से लेकर अब तक गीत इसी रूप में पहचाना जाता है। यह अलग बात है 
      कि इसके पूर्व, वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ, जो गीत ही 
      मानी जाती हैं, उपर्युक्त शर्तों के अधीन नहीं रहीं। वहाँ पर सांगीतिक लय ही 
      गीत का आधार था और प्रत्येक ऋचा की एक सुनिश्चित गायन पद्धति निर्धारित थी, 
      जिसे आरोह-अवरोह-स्वरित के नाम से चिह्नित किया गया था। अस्तु, वह लय पर 
      आधारित काव्य था। बाद में सनातन गीत की इस अनिवार्य शर्त 'लय' को साधने के 
      लिए छंद और तुकांत को साधन बनाया गया जो संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा 
      तक बखूबी निर्वाह किया जाता रहा। 
      * 
      साहित्यिक निबंध में डॉ. ऋषभदेव शर्मा का आलेखभूमंडलीकरण की चुनौतियाँ : 
      संचार माध्यम और हिंदी का संदर्भ
 
  भूमंडलीकरण ने 
      विगत दो दशकों में भारत जैसे महादेश के समक्ष जो नई चुनौतियाँ खड़ी की हैं 
      उनमें सूचना विस्फोट से उत्पन्न हुई अफ़रातफ़री और उसे सँभालने के लिए 
      जनसंचार माध्यमों के पल-प्रतिपल बदलते रूपों का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें 
      संदेह नहीं कि वर्तमान संदर्भ में भूमंडलीकरण का अर्थ व्यापक तौर पर 
      बाज़ारीकरण है। भारत दुनिया भर के उत्पाद निर्माताओं के लिए एक बड़ा ख़रीदार 
      और उपभोक्ता बाज़ार है। बेशक, हमारे पास भी अपने काफ़ी उत्पाद हैं और हम भी 
      उन्हें बदले में दुनिया भर के बाज़ार में उतार रहे हैं क्योंकि बाज़ार केवल 
      ख़रीदने की ही नहीं, बेचने की भी जगह होता है। इस क्रय-विक्रय की 
      अंतर्राष्ट्रीय वेला में संचार माध्यमों का केंद्रीय महत्व है क्योंकि वे ही 
      किसी भी उत्पाद को खरीदने के लिए उपभोक्ता के मन में ललक पैदा करते हैं। | 
                
                  | 
                  
                  सप्ताह का विचारजिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक 
                  और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा 
                  सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय 
                  प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार 
                  है वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। -प्रेमचंद
 |