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 १५. १२. २००८

इस सप्ता 
समकालीन कहानियों में यू.के. से
गौतम सचदेव की कहानी आधी पीली आधी हरी
मैं पंद्रह साल की हूँ।
पा से मासिक मुलाक़ात का सिलसिला पिछले नौ बरसों से चल रहा है। पहले बहुत अच्छा लगता था, जब वे मिलने आते थे। अब मैं कभी-कभी बोर भी होती हूँ। यह कैसा रिश्ता है? कोई किसी का नहीं है और फिर भी वे मेरे पा हैं।
कल पा यानि पापा से मुलाक़ात हुई, तो सबसे पहले उन्होंने पूछा, ''क्या खाओगी गुड़िया?''
मैं हँसी। उन्हें हमेशा सबसे ज़्यादा मेरे खाने की चिंता रहती है, इसकी नहीं कि मैं क्या महसूस करती हूँ। क्या 'मिस' करती हूँ, किस ख़ाली आकाश को भरना चाहती हूँ, कभी उन्हें इसे भी तो महत्त्व देना चाहिए।
मैंने कह दिया, ''कुछ भी खा लूँगी, वैसे मुझे भूख नहीं है।''
जिस स्थिति में हम मिलते हैं, उसमें पेट से ज़्यादा मन को भूख लगी होती है, क्योंकि मैं घर से नाश्ता तो करके चलती हूँ। मैं इतनी छोटी भी नहीं कि रेस्टोरेंट में पहुँचते ही खाने-पीने को माँगने लगूँ। पा को जहाँ मुझसे मिलना होता है, मैं वहाँ अकेली पहुँच सकती हूँ, लेकिन मम्मी अब भी मुझे छोड़कर और यह तसल्ली करके जाती हैं कि पा आए हुए हैं।

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प्रेम जनमेजय का व्यंग्य
हम निंदा करते हैं

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कृष्ण कुमार यादव का आलेख- इतिहास और मिथक के झरोखे से- कवि कुँवर नारायण

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अश्विनी केशरवानी से लोक संस्कृति में
छत्तीसगढ़ के लोक नृत्य

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स्वाद और स्वास्थ्य में
बेमिसाल बेल

पिछले सप्ताह
अविनाश वाचस्पति का व्यंग्य
गया मेंढक कुएँ में

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कमलेश भारतीय की लघुकथा
विश्वास

कथा महोत्सव- २००८
अंतिम तिथि ३१ दिसंबर २००८

घर परिवार में अर्बुदा ओहरी का संकलन
वास्तु और फेंगशुई के कुछ सुझाव

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रसोईघर में तैयार हो रही हैं
काजू कतली

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समकालीन कहानियों में भारत से
अमरेंद्र मिश्र की कहानी जोगिया शाम
यह शाम फिर मेरे क़रीब है। सोचता हूँ कि इसे किसी तरह मनाऊँ और कहूँ कि यह यहाँ से चला जाए और फिर कभी न आए। दुनिया की तमाम घड़ियों में समा जाए और गुम हो जाए। फिर एक गुमनाम शाम का आखिर वजूद ही क्या है? जब कभी मैं बाहर से हारा-थका आता हूँ तो इसे यहीं पाता हूँ... यहीं अपने आस-पास और पूछता हूँ कि तुम चुपचाप क्यों हो। वह ठिठक जाती है। उसकी ठिठकन देखकर मुझे चिमकेन और तराज के रास्ते खड़े वे स्तूप याद आते हैं जो अपने बीते दिनों के साक्षी हैं। उनकी आवाज़ वक्त के गुबार में कहीं खो गई लगती है। अलमाटी से चिमकेन या तराज जाएँ तो ऐसे कई स्तूप मिलते हैं- अपनी बाँहें फैलाए। ये स्तूप दूर से आपको बुलाते हुए नज़र आते हैं। पास जाएँ तो कुछ कहने के प्रयास में ठिठके नज़र आते हैं। बीते समय के साक्षी इन स्तूपों को देखकर वक्त के छूटे पाँव के निशान पढ़े जा सकते हैं। इसी तरह कोई मकबरा, कोई पहाड़नुमा टीला या फिर ढलान से उतरती कोई पगडंडी, कोई गुमनाम राह, ठूँठ हो चुका कोई बूढ़ा पेड़, जीर्ण-शीर्ण हो चुका कोई भुतहा बंगला, कोई बाँझ नदी जिसका प्रवाह कभी था ही नहीं. . .

अनुभूति में-
वीरेंद्र जैन,  ज़हीर कुरैशी, विजय सिंह, डॉ. गणेशदत्त सारस्वत और रमानाथ अवस्थी की नई रचनाएँ

कलम गही नहिं हाथ-
आज दस दिन बाद ईद की लंबी छुट्टियाँ ख़त्म हुई हैं। शहर में रौनक दिखाई दे रही है। यह मौसम इमारात का सबसे सुंदर मौसम है। जब सारे दिन घर से बाहर घूमा जा सकता है। पारंपरिक बाज़ारों की गलियों में टहला जा सकता है और पार्कों में बिछी धूप पर सोया जा सकता है। इतना ही नहीं हर ओर तरह तरह के उत्सवों का आयोजन हो रहा है। सभी कला प्रदर्शनियाँ भरी हुई हैं। कहीं शिल्प मेले सजे हैं तो कही संगीत और नृत्य के कार्यक्रम चल रहे हैं। दुबई फ़िल्म उत्सव भी इन्हीं दिनों दुनिया से सर्वोत्तम सितारों को यहाँ जमा कर लेता है। सागर तट पर लोगों की भीड़ दिखाई देने लगी है और पार्कों में चहल-पहल होने लगी है। दूकानों में सेल के झंडे लटक रहे हैं और खरीदारी करने वाले झोलों पर झोले लादे फुटपाथों पर नज़र आने लगे हैं। पिछले दस दिन मौसम ने भी खूब साथ दिया है। हाँलाँकि दो दिन हल्की बारिश हुई और लोग घर में ही रहे, डर लगा कहीं छुट्टियाँ बरबाद न हो जाएँ। बारिश हो जाए तो ठंड अचानक बढ़ जाती है। पर अच्छा है कि पिछले साल की तरह एक हफ्ता नहीं सताया बारिश ने। जल्दी ही दुबई शॉपिंग फेस्टिवल शुरू हो जाएगा। इसमें घूमने का अलग मज़ा है खासतौर से इसलिए कि अंतर्राष्ट्रीय गांव में भारतीय पैवेलियन की दो सड़कों पर रिक्शे से घूमने का आनंद इसी एक महीने में इन्हीं दो सड़कों पर लिया जा सकता है। बाकी इमारात की किसी भी सड़क पर रिक्शे दिखाई नहीं देते।  --पूर्णिमा वर्मन

इस सप्ताह विकिपीडिया पर
विशेष लेख- बिच्छू

क्या आप जानते हैं? कि बिच्छू की लगभग २००० जातियाँ होती हैं जो न्यूजीलैंड व अंटार्कटिक छोड़कर विश्व के सभी भागो में पाई जाती हैं।

सप्ताह का विचार- पुण्य की कमाई मेरे घर की शोभा बढ़ाए, पाप की कमाई को मैंने नष्ट कर दिया है।
 -- अथर्ववेद

हास परिहास

सप्ताह का कार्टून
कीर्तीश की कूची से

 

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।

प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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सहयोग : दीपिका जोशी

 

   

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