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१८. २. २१३

इस सप्ताह-

अनुभूति में-
शशिकांत गीते, कमलेश द्विवेदी, वीरेन-डंगवाल,  डॉ. परमेश्वर गोयल ’काका-बिहारी‘ तथा पुष्पा भार्गव की रचनाएँ।

- घर परिवार में

रसोईघर में- देश-विदेश के व्यंजनों की नई शृंखला में इस बार शुचि प्रस्तुत कर रही हैं चीनी व्यंजन भारतीय स्वाद में- गोभी मंचूरियन।

रूप-पुराना-रंग नया- शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर, फिर से सहेजें रूप बदलकर- फूलदानों पर धातु के रंग

सुनो कहानी- छोटे बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में इस बार प्रस्तुत है कहानी- हवाई जहाज

- रचना और मनोरंजन में

साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये यहाँ देखें

नवगीत की पाठशाला में- ार्यशाला- २५ की रचनाओं का प्रकाशन पूरा हो गया है। नई कार्यशाला की तिथि और विषय निश्चित होने पर सूचित करेंगे।

लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत- प्रस्तुत है पुराने अंकों से १ दिसंबर २००३ को  प्रकाशित हरिकृष्ण कौल की कश्मीरी कहानी का हिंदी रूपांतर- अढ़ाई घंटे

वर्ग पहेली-१२१
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि आशीष के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य एवं संस्कृति में-

समकालीन कहानियों में भारत से
संतोष श्रीवास्तव की कहानी- एक कारगिल और

उतरती फरवरी की गुलाबी शामें। मुम्बई का मौसम सहता-सहता सा खुशगवार। दरवाजा खुला था। जूते बाहर ही उतारने पड़े। वे सोफे पर बैठी थीं और दरवाजे के पास ही बने ऊँचे से मन्दिर में दीया जल रहा था। अगरबत्ती के धुएँ की सुगन्ध चारों ओर फैली थी।
’’आओ बेटी...हमने पहचाना नहीं,‘‘ उन्होंने बूढ़ी आँखो पर चश्मा फिट किया।
’’मैं उमा की सहेली हूँ। स्कूल से कॉलेज तक हम दोनों साथ-साथ पढ़े हैं। मैं तो आपको देखते ही पहचान गई। उमा के रिसेप्शन पर मिली थी न आपसे।‘‘
’’अब उतना कहाँ याद रहता है। हो भी तो गए पाँच साल।‘‘ तब तक उमा के ससुर बाहर निकल आए। मुझे देख इशारा किया बैठने का। मेरे बैठते ही सामने के सोफे पर से गद्दियों के पीले सफेद रंग से मेल खाती दो बिल्लियाँ कूदीं। मैं चौंक पड़ी, वे मुस्करा दीं-’’बड़ी शैतान हैं दोनों।‘‘ फिर दोनों को गोद में बैठाकर प्यार करने लगीं। कमरे में काँच के पार्टीशन के पार दूब का लचीला लॉन था छोटा-सा और एक हरसिंगार कोने में। दूब पर हरसिंगार के फूल बिखरे थे। आगे-

*

सूरज प्रकाश की लघुकथा
विकल्पहीन
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दिवाकर वर्मा का आलेख-
मध्य प्रदेश का गीत परिदृश्य
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आशारानी लाल का रेखाचित्र
स्तब्धता

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पुनर्पाठ में गुरुदयाल सिंह प्रदीप से
विज्ञान-वार्ता- स्मृति विस्मृति का ताना बाना

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पिछले सप्ताह- वसंत पंचमी के अवसर पर


हरिशंकर परसाईं का व्यंग्य
घायल वसंत
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शुकदेव श्रोत्रिय का ललित निबंध
मौसम रंग और गंध
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मिता दास का संस्मरण
सरस्वती पूजा के वे सरस दिन
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पुनर्पाठ में महेन्द्र सिंह रंधावा
का आलेख ऋतुओं की झाँकी - वसंत ऋतु

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वरिष्ठ कथाकारों की प्रसिद्ध कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा में कृष्णा सोबती की कहानी- दादी अम्मा

बहार फिर आ गई। वसन्त की हल्की हवाएँ पतझर के फीके ओठों को चुपके से चूम गईं। जाड़े ने सिकुड़े-सिकुड़े पंख फड़फड़ाए और सर्दी दूर हो गई। आँगन में पीपल के पेड़ पर नए पात खिल-खिल आए। परिवार के हँसी-खुशी में तैरते दिन-रात मुस्कुरा उठे। भरा-भराया घर। सँभली-सँवरी-सी सुन्दर सलोनी बहुएँ। चंचलता से खिलखिलाती बेटियाँ। मजबूत बाँहोंवाले युवा बेटे। घर की मालकिन मेहराँ अपने हरे-भरे परिवार को देखती है और सुख में भीग जाती हैं यह पाँचों बच्चे उसकी उमर-भर की कमाई हैं। उसे वे दिन नहीं भूलते जब ब्याह के बाद छह वर्षों तक उसकी गोद नहीं भरी थी। उठते-बैठते सास की गंभीर कठोर दृष्टि उसकी समूची देह को टटोल जाती। रात को तकिए पर सिर डाले-डाले वह सोचती कि पति के प्यार की छाया में लिपटे-लिपटे भी उसमें कुछ व्यर्थ हो गया है, असमर्थ हो गया है। कभी सकुचाती-सी ससुर के पास से निकलती तो लगता कि इस घर की देहरी पर पहली बार पाँव रखने पर जो आशीष उसे मिली थी, वह उसे सार्थक नहीं कर पाई। आगे-

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।



प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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सहयोग : कल्पना रामानी

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