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23 मंच मचान

अशोक चक्रधर

रेल में चलता है पर इतना नहीं चलता

गालों में सुरती भरा पान। सामने रखा चमकता हुआ उगालदान। धवल वस्त्रों में राजसी मुद्रा लिए लालूजी रेल भवन में कविताएं सुन रहे थे। सभागार खचाखच भरा था। मौका था, 15 सितंबर, 2004 को रेल भवन में हिंदी पखवाड़े के दौरान आयोजित देश के पहले ई–कविसम्मेलन का। ई बोले तो – इलैक्ट्रोनिक कविसम्मेलन। इलैक्ट्रानिक कविसम्मेलन बोले तो– कंप्यूटर मल्टीमीडिया और प्रोजेक्टर के सहयोग से, संचालन और काव्य–पाठ के दौरान, अनुकूल छवियां दिखाते हुए, कुल कविता–प्रस्तुति को सुपर धांसू बनाना।

रेल भवन के हिंदी अनुभाग के शिष्ट–संकोची अधिकारियों को भरोसा नहीं था कि रेलमंत्री जी इस कार्यक्रम में आएंगे। उन्हें क्या पता था कि लालू जी कविता के विकट प्रेमी हैं। मैंने उनसे कहा कि यदि उन्हें सिर्फ़ पता चलेगा तो वे अपने सवा सौ काम छोड़कर आएंगे। मैंने अपने ई–कविसम्मेलन की संपूर्ण चक्षुष योजना और कवि–कविता दृश्यावलियां यह सोचकर बनाईं कि लालूजी आएंगे। वे आए और पूरे तीन घंटे उस ई–कविसम्मेलन में बैठे रहे।

मैंने शुरूआत एक ऐसी स्लाइड से की, जिसमें एक रेलगाड़ी थी, जिस पर बांग्ला में कुछ लिखा हुआ था। मैंने बोलना प्रारंभ किया– 'बंगाल जाने वाली रेल मैंने आपको इसलिए दिखाई क्योंकि ये बिहार होकर जाती है। लालू जी बिहार के हैं, उनका विशेष मोह बिहार के साथ है। इसी गाड़ी में बिठाकर मैं आपको कवियों के साथ विहार कराऊंगा।' फिर फ़ोटोशॉप, कोरल–ड्रॉ और पावरपाइंट जैसे साफ्टवेयरों का इस्तेमाल करते हुए स्लाइड्स दिखाता गया। अगला क्लिक करते ही स्क्रीन पर उस रेलगाड़ी के डिब्बे की एक–एक खिड़की पर एक–एक कवि दिखाई दिया। मैं खिड़की में बैठे जिस कवि के पास कंप्यूटर का कर्सर ले जाता था, उसे बुला लेता था। कवि थे– सर्वश्री/श्रीमती अल्हड़ बीकानेरी, सुरेंद्र शर्मा, आलोक पुराणिक, अंजुम रहबर, गुरू सक्सेना, कैलाश सेंगर, पवन दीक्षित, मधुमोहिनी उपाध्याय, अशोक स्वतंत्र और साहित्य कुमार चंचल।

रेल और कविता से जुड़े हुए गुंफित दृश्यों की तली जलेबियों में मेरी कौमेंट्री की चाशनी के मिलने से ई–कविसम्मेलन अपने मंच–मिठास के प्रेम–मार्ग पर चल पड़ा। लालूजी के राज में प्लेटफ़ार्म किस तरह रैन–बसेरे बने हुए हैं। कुछ यात्री नर्म, कुछ खामखां तने हुए हैं। कोई जाग रहा है, कोई सो रहा है। हे भगवान! प्लेटफ़ार्म पर ये क्या हो रहा है! अगले कंप्यूटरजनित चित्र में लालूजी मेरे कंधे पर हाथ रखे हुए प्लेटफ़ार्म का निरीक्षण कर रहे हैं। मुझसे कहते हैं, 'इन यात्रियों की सुविधा के लिए मैं कल से ही लालू एक्सप्रैस चालू करूंगा, जिसका उद्घाटन अशोक जी आपको ही करना है।' अब स्क्रीन पर आती है – लालू एक्सप्रैस। जिसके इंजन के दोनों ओर केले के तने बंधे हुए हैं, गेंदे की मालाएं देसी इस्टाइल में लटक रही हैं। लालूजी बताते हैं– 'ई सारा ढैकोरेसन आपका भाभी राबड़ी ने किया है।' सभागार प्रसन्न। लालू प्रसन्न, तो बजने वाली तालियां भी प्रसन्न। अधिकारी ग़ौर से लालू जी को देख रहे हैं। कहीं रेलमंत्री जी बुरा तो नहीं मान रहे! लेकिन उनका हंसी से दिपदिपाता चेहरा देखकर आश्वस्त हो जाते हैं। सबके चेहरे दिपदिपाने लगते हैं।

हर कवि का परिचय नयी–नयी स्लाइड्स के साथ अलग अंदाज़ में दिया जाता है। कवि के बोलने से पहले तस्वीरें बोलती हैं। सभागार चमत्कृत है। कवि लार्जर दैन लाइफ़ हो चुके हैं। फ़ोटोशॉप की क्षमताओं का जलवा है, जिसके रहते कविता अपने नये–नये अर्थ खोल रही है। लालूजी का उगालदान भरता जा रहा है। पान के बीड़े कम पड़ रहे हैं।

अधिकारियों ने बताया था कि मंत्री जी केवल आधा घंटा रूक पाएंगे। वे पूरे तीन घंटे आनंद लेते रहे। कल्पना और यथार्थ की किस्सागोई के साथ कविसम्मेलन चलता रहा। लगभग सभी ने लालूजी पर कुछ न कुछ सुनाया। अंत में काव्यपाठ किया श्री अल्हड़ बीकानेरी ने। उन्होंने एक पैरोड़ी लालू जी पर ही सुना दी– 'दिल्ली में है तन, पटना में है मन, हालात की मार निराली है, जीजाजी का जी बहलाने को, साला है ना कोई साली है। शब ढलने लगी तो लालू ने ललुआइन को टेलीफ़ोन किया, आ जाओ तड़पते हैं अरमां, अब रात गुज़रने वाली है।' मुझे पता था कि इससे जुड़ती हुई एक और पैरोड़ी अल्हड़ जी ने लिखी थी पर चूंकि लालू जी सामने बैठे थे इसलिए संकोच कर रहे थे। मैंने अल्हड़ जी को प्रोत्साहित किया– 'सुना डालिए। लालू जी हास्य और व्यंग्य का कभी बुरा नहीं मानते।' अल्हड़ जी ने राबड़ी भाभी की तरफ़ से जवाब दे दिया– 'और तकलीफ़ मुझे ऐ मेरे हमराज़ न दो, मुझको इस रात की तनहाई में आवाज़ न दो।' अधिकारी उस समय सोच रहे होंगे– 'अल्हड़ जी, रेलवे की कविता में चलता है, पर इतना नहीं चलता। कमती, कमती बोलिए।'

धन्यवाद ज्ञापन की अंतिम औपरचारिकता से पहले मैंने संकेतभर किया– 'इस ई–कविसम्मेलन के लिए हिंदी अनुभाग के पास पर्याप्त धन नहीं था। फिर भी कवि मित्रों और अपनी तकनीकी टीम के सहयोग से मैं इसे प्रस्तुत कर पाया। मैं इनका आभारी हूं। मैं सदैव उन लोगों का आभारी रहूंगा जो हिंदी को अब कूपमंडूकों, निरक्षरों और उपेक्षितों की दरिद्र भाषा नहीं मानेंगे। हिंदी तकनीकी रूप से समृद्ध होकर जन–संप्रेषण की नयी–नयी संभावनाएं खोल रही है। लालू जी जैसे मिट्टी से जुड़े नेता यदि चाहें तो भाषा का संवर्धन हाई–टैक प्रविधियों से हो सकता है। हिंदी उन्नति कर सकती है। वस्तुतः हिंदी की रेल सरपट इसीलिए नहीं दौड़ पाती क्योंकि पटरी बिछाने वालों में ही पटरी नहीं बैठती। हिंदी के नाम पर कुछ ज़रा–सा भी ख़र्च होता है तो अंग्रेज़ीदां मूछों के पेट में मरोड़ उठने लगता है। हिंदी अनुभाग ने कवियों को पारिश्रमिक के रूप में क्या दिया है, यह बताकर मैं रेलवे की छवि पर दारिदर्य का पाउडर नहीं लगाना चाहता।'

खेल ख़तम हो गया, हजम करने लायक पैसा मिला ही नहीं था, इस बात का अहसास शायद लालू जी को हुआ। उन्होंने अचानक माइक मंगाया और हॉल से निकलती हुई जनता को रोकते हुए ताबड़तोड़ घोषणा कर दी कि जितने कवियों ने कविता सुनाया है, उन सबके पचास–पचास हज़ार रूपए मंत्रालय की ओर से दिए जाते हैं।

मैं लालू जी के पीछे खड़ा था। मेरे पीछे रेलवे के कुछ अधिकारी खड़े थे। एक अधिकारी ने दूसरे से जो शब्द कहे वे मेरे कान में भी सहज प्रविष्ट हुए – 'अरे! अरे!! मंत्री जी, कम दें ये तो बहुत ज़्यादा है। इतना तो अनुभाग का वार्षिक बजट भी नहीं होता। निबंध और कविता प्रतियोगिताओं में हज़ार रूपए से ज़्यादा कहां देते हैं। कोई रेलवे दुर्घटना थोड़े ही हुई है कि विकलांग कवियों को मुआवज़ा दे दो। बताइए बिना सलाह लिए घोषणा भी कर दी। देंगे कहां से? कम देते हमारे अनुभाग में इतना नहीं चलता।'

उस सभागार में खड़े–खड़े मुझे सन 1978 में कलकता में हुआ एक वाकया याद आया। कलकता में होली के आसपास बहुत कविसम्मेलन हुआ करते हैं। एक–एक दिन में पांच–पांच कविसम्मेलन। पहला – सुबह–सुबह टहलने वाली मंडली के साथ पार्क में। दूसरा – दस बजे कलामंदिर में। तीसरा – एक बजे, उसी सभागार में दूसरे श्रोताओं के साथ। चौथा – तीन बजे, टैगोर थिएटर में। पांचवा – पांच बजे, महाजाति सदन में। बहुत रात में कार्यक्रम होते नहीं थे, क्योंकि, कहीं भी और कभी भी बंब–पटाखे फूट सकते थे। ऐसी कविसम्मेलन श्रृखंलाओं के बाद जेब में अच्छी–ख़ासी रकम और अटैचियों में बंगाल की तांत की साड़ियां भरकर कविगण लौटा करते थे। मुझे और सुरेंद्र जी को कलकता से दिल्ली के एक कविसम्मेलन के लिए तत्काल लौटना था। आरक्षण था नहीं। उन दिनों रेलवे थ्री–टायर बोगी के टी.टी. भगवान से कम नज़र नहीं आते थे। जो टी.टी. पहचान जाते थे, वे न केवल अच्छी जगह दिलाते थे बल्कि अपनी ओर से कवियों का चाय–पानी भी करते थे। हावड़ा जंक्शन पर हमें किसी ने नहीं पहचाना। जिस डिब्बे में बर्थ की संभावना दिख रही थी उसके टी.टी. एक बंगाली मोशाय थे। टी.टी. के चेहरे पर वो भाव था जो आमतौर से रिज़र्वेशनातुर यात्रियों को देख कर आता है। ऐसे अवसर पर यात्री के चेहरे पर पटास का भाव होता है और टी.टी. के चेहरे पर नकली खटास का। सुरेंद्र जी ने सौ का नोट निकाला और टी.टी. मोशाय के हाथ पर रख दिया – 'दादा! दिल्ली तक दो बर्थों का इंतज़ाम कर दो।' टी.टी. मोशाय सौ का करारा नोट देखकर विस्मित थे। सुरेंद्र जी ने आत्मीय दबाव से उनकी मुठ्ठी बंद कर दी। टी.टी. मोशाय बोले– 'कौमती दो! कौमती दो!! रेलवे में चौलता, पर इतना नईं चौलता।' दरअसल, ठीक यही भाव रेल भवन में खड़े अधिकारियों की टिप्पणी में था – 'लालू जी कौमती दो, कौमती दो। रेलवे में चलता, पर इतना नहीं चलता।'

लालू जी तो घोषणा कर चुके थे। कवि थे कि भरोसा नहीं कर पा रहे थे। मुझे भी एक पुरानी कथा याद आई – एक राजा को एक कवि ने शानदार कविता सुनाई। राजा बहुत खुश हुए और राजा ने भी बहुत शानदार इनाम की घोषणा कर दी। इनाम की घोषणा से कवि बहुत खुश हुआ। जब इनाम लेने गया, तो राजा ने कहा – 'काहे का इनाम! आपने हमें बातों से खुश किया, हमने भी आपको अपनी बात से खुश कर दिया। खुश रहिए और इनाम–शिनाम भूल जाइए।'

एक दिन अचानक रेल–भवन से फ़ोन आया कि चैक तैयार हैं, ले जाइए। चैक लेने के बाद भी कई कवियों को यकीन नहीं आया कि सच्ची में मिल गया। कुछ ने तो यकीन चैक भुना लेने के बाद ही किया होगा।

दूसरी ओर, वे कवि आज भी मलालग्रस्त हैं, जिन्हें मैंने निमंत्रित किया था, लेकिन कम पैसों के प्रस्ताव अथवा निजी कारणों से इस ई–कविसम्मेलन में नहीं आ सके थे। हाय हुसैन, हम क्यों न हुए! ख़ैर, कविगण पचास–पचास हज़ार पा चुके हैं। खा–पचा चुके हैं। जब भी उस कविसम्मेलन की सुहानी स्मृति–बयार आती है, मेरी खोपड़ी–पटल की चिंतन–झोपड़ी के आसपास उन टी.टी. मोशाय का चेहरा, अल्हड़ जी का चेहरा, रेल भवन के अधिकारियों के चेहरे मुस्कराते हुए मंडराने लगते हैं और गूंजता है अलग–अलग स्थितियों में कहा गया एक ही जुमला – कौमती, कौमती रेल में चलता है पर इतना नहीं चलता।

9 जनवरी 2006

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