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१. ७. २०१३

इस सप्ताह-

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अनुभूति में-
विभिन्न विधाओं में अनेक रचनाकारों द्वारा रचित चंपा के फूल अथवा वृक्ष पर आधारित रचनाएँ।

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत दक्षिण भारत के व्यंजनों की विशेष शृंखला में इस बार प्रस्तुत है- टमाटर के चावल

रूप-पुराना-रंग नया- शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर फिर से सहेजें रूप बदलकर- पुराने कोलैंडर का एक और नया रूप।

सुनो कहानी- छोटे बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में इस बार प्रस्तुत है कहानी- बस की प्रतीक्षा

- रचना और मनोरंजन में

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला- २८ में विषय है चंपा का फूल। रचनाओं का प्रकाशन जल्दी ही प्रारंभ हो जाएगा। टिप्पणी के लिये यहाँ देखें।

साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये यहाँ देखें।

लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत- इस सप्ताह प्रस्तुत है ११ फरवरी २००८ को प्रकाशित जीलानी बानों की उर्दू कहानी का हिन्दी रूपांतर बात फूलों की

वर्ग पहेली-१४०
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि आशीष के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य एवं संस्कृति में-  चंपा विशेषांक के अंतर्गत

साहित्य संगम में सुमतीन्द्र नाडिग की
कन्नड़ कहानी का हिन्दी रूपांतर चंपा का पेड़

कुछ मास पहले मेरे सपने में एक चंपा का पेड़ आकर बोला, ‘‘मेरे बारे में भी एक कहानी लिखना।’’ मैंने सोचा यह कौन-सा चंपा का पेड़ हो सकता है ? हमारे घर के पिछवाड़े एक चंपा का पेड़ था, उसके आस-पास लंटान की घनी झाड़ी थी। मेरा भाई जो तब दस बरस का था, एक शाम लंटान के फूल तोड़ता हुआ उस पेड़ के पास खड़ा था। तब अँधेरा होने को ही था जरा आहट होने से मेरी माँ ने सिर उठाकर देखा। एक शेर मेरे भाई के सिर को फलाँग चला गया। मेरी माँ बरतन धोना छोड़कर बच्चे को घर के भीतर घसीट लायी। यह आश्चर्य की बात थी कि बच्चे को कोई आघात नहीं पहुँचा था। इसके कारण मेरी स्मृति सोरब के चंपा के पेड़ के आस-पास मँडराने लगी। एक और भी बात उसके बारे में याद हो आयी। जब मैं बीस वर्ष का नौजवान था, तब उस पेड़ के नीचे कपड़े धोने के पत्थर पर अपनी प्रिया के संग बैठा अष्टमी का चंद्रमा देख रहा था। गाँव के और भी चंपा के पेड़ों की याद आयी। इस घर में आने से पहले मैं जिस किराये के घर में रहता था उसके आँगन में लगे चंपा के पेड़ की भी याद आयी। ...आगे-
*

मुक्ता की कलम से
लोककथा- चंपा और बाँस
*

डॉ. राकेश कुमार प्रजापति से
प्रकृति और पर्यावरण में- अद्भुत फूल चंपा
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प्रयाग शुक्ल का
ललित निबंध- ओ चम्पा

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पूर्णिमा वर्मन का आलेख
डाक-टिकटों पर चंपा का फूल

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पिछले सप्ताह-


शरद तैलंग का व्यंग्य
विवाह का अलबम
*

डॉ. राजेन्द्र परदेसी का आलेख
अमर कथा शिल्पी चंद्रधर शर्मा गुलेरी
*

विनीता माथुर से प्रौद्योगिकी में
इंटरनेट सुरक्षा के बीस सुझाव
*

पुनर्पाठ में जसदेव सिंह
का संस्मरण- कालजयी कवि का अवसान
*

समकालीन कहानियों में यू.के. से
महेन्द्र दवेसर की कहानी पुष्प दहन

अपने फ्लैट की खुली खिड़की से उसने सामने पहाड़ी की तरफ इशारा किया -- “वह देखो सामने वाली पहाड़ी पर पतझड़ का मारा रुंडमुंड-सा एक अकेला पेड़! मैं भी बस वही हूँ, वैसा ही हूँ! वह भी अकेला, मैं भी अकेला। हम दोनों में बातें होती रहती हैं।”
एक पेड़, एक पुरुष! कहाँ दूर का वह वृक्ष, कहाँ मेरी बगल में बैठा वह पूरा इंसान। यह था जिम, मेरा टैक्सी ड्राइवर कम गाइड। पूरा नाम -- जेम्स हिल। पूरा पागल? शायद नहीं! पर वह नीमपागल तो है ही। खोया-खोया, उदास-सा रहता है ...जैसे अपने को ही ढूँढ रहा हो। कभी-कभी मैं भी सोचा करता हूं कि ऐसा खोया -खोया-सा इंसान मेरा गाइड कैसे बन गया? ...लेकिन बन गया! उस दिन उसका जन्मदिन था। अपने जन्मदिन पर उसका यह कैसा पगला सवाल था? “उस पेड़ के इर्दगिर्द जमीन पर बिखरे कितने सूखे पत्ते होंगे?”
“होंगे सैंकड़ों ...हजारों। हमें क्या?”
“वे पत्ते नहीं, सपने हैं मरे हुए!”
...आगे-

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"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी -|- मीनाक्षी धन्वंतरि

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