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आत्मकथा (ग्यारहवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

दो घण्टे चालीस मिनट का सफर


हवाई जहाज रेंगने लगा था। उसका चलना किसी बस का चलना लग रहा था। वह वैसे ही खड़बड़ा रहा था जैसे किसी असमतल सड़क पर बस खड़खड़ाती है। हालाँकि, रन-वे असमतल नहीं था। लगभग एक किलोमीटर तक जहाज एक ही रफ्तार से चला। या शायद उससे भी कुछ ज़्यादा। उसके बाद वह सीधे रन-वे पर था। कुछ सेकेण्ड के बाद अचानक उसने फिर चलना शुरू किया लेकिन इस बार उसकी गति में उबाल था। उफान था। वह सुपर फास्ट ट्रेन की गति से भी ज्यादा तेज गति से दौड़ रहा था।

गति बढ़ती ही जा रही थी कि अचानक उसका अगला हिस्सा इस तरह से उठा कि पता चल गया कि उसकी नाक ऊँची हो गई है। और अगले ही पल वह जमीन से पाँच सौ फिट ऊपर था। बम्बई नीचे रह गई थी, जग-मग बम्बई...उसका दृश्य सुबह के ओसी परदे के पीछे था, केवल कुछ ही सेकेण्ड में जहाज चार-पाँच हजार फिट की ऊँचाई को पार करते हुए ऊपर और ऊपर उठता जा रहा था।

लिफ्ट के दोनों अनुभव किसी याददाश्त को लौटाने में नाकाम साबित हुए थे...

जहाज अब बादलों के ऊपर-नीचे हो रहा था, सीने में दिल कुछ इस तरह से धड़क रहा था जैसे कोई पंप हाथ में लेकर किसी ब्लैडर में हवा भरे...
श्याम नंदन वर्मा का कहा हुआ कि खिड़की के पास की सीट लेना, मेरे लिये सुखद अनुभव नहीं हो पा रहा था। बाहर देखना जहाँ सौन्दर्य को अपलक निहारना बन सकता था वहीं उलटे वह मुझे आतंकित कर रहा था। अखबार में काम करते हुए मैंने न जाने कितनी बार प्रधान-मंत्री और अन्य मंत्रियों द्वारा आसमानी दौरों में बाढ़ से हुए सर्वनाश के दौरों का निरीक्षण करते पढ़ा था। हेलीकॉप्टर के घूमते पंखों वाले चित्र भी देखे थे। मगर अपनी पहली हवाई यात्रा इतनी खामोश और बदहवास कर देगी, इसका अंदाज नहीं था। मैंने आँखें बंद कर लीं और खुद को भगवान के सहारे छोड़ दिया कि इसके आगे मेरा कोई वश नहीं है।

क्या अपने हाथ से निकल चुके किसी भी अवसर के आगे किसी का वश चलता है? गगनबालाएँ जहाज में घूमने लगी थीं। वे यात्रियों के पास जाकर उन्हें कुछ देने लगी थीं। मेरे साथ वाली सीट पर जो आदमी था उसकी भी विदेश यात्रा का पहला सफर था। बेल्ट बाँधने से लेकर अगली हर गतिविधि में हम दोनों एक समान अनजान थे। वह भी चुप था और मैं भी। दोनों ही अनुभवहीन थे। उससे मैंने इतना ही पूछा था कि कहाँ के रहने वाले हो और कहाँ जा रहे हो तो वह बिहार और सउदी बोलकर चुप हो गया था। मुझे या उसे जो कुछ भी जहाज में गगनबालाओं ने खाने-पीने के लिये देना चाहा, हमने मना कर दिया। असल में हमें सऊर ही नहीं था और हम किसी शरमीले छात्र की तरह कुछ सीखने को तैयार नहीं थे।

आदमी अपने अज्ञान को भी इसीतरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी सरकाता रहता है। चुपचाप...। हम कितनी ही बातें सिर्फ इसलिये नहीं जान पाते कि उन्हें जानने की कोशिश में कहीं हमारी तौहीन न हो जाए जबकि सचाई यह है कि अज्ञान को छिपाने में ही तौहीन है, मगर क्या करे इंसान... ईगो आड़े आ जाता है। हालाँकि, मेरा स्वभाव अब न केवल जिज्ञासु है बल्कि मुखर भी लेकिन पहले ऐसा नहीं था। एक शरमीलापन बहुत समय तक मुझपर हावी रहा है।

गगनबाला ने ही मेरी और साथ वाली सीट पर बैठे बिहारी यात्री की बेल्ट बाँधी थी। जब बेल्ट खोल देने का निर्देश दिया गया तो उसी ने खोलने में मदद की।
जहाज कहाँ से गुजर रहा है, कितनी ऊँचाई पर है आदि सूचनाएँ मॉनीटर के बड़े परदे पर दी जा रहीं थीं।

मैंने अपने डर को छिपाने के लिये आँखें बंद कर रखी थीं। जब ऊब होने लगी तो खिड़की से बाहर झाँकने का मन बनाते हुए आँखें खोलीं। मुझे जो सीट मिली थी वह जहाज के पंखों के पास थी। कहाँ मालूम था कि आँख खोलकर बाहर देखने की कोशिश में अपना अंत नजर आएगा...

जब मैंने खिड़की से बाहर देखा तो ऊपर निरभ्र आकाश और नीचे नीला समंदर था, जहाज बहुत ऊपर था, सैंतीस हजार फिट की ऊँचाई पर, एवरेस्ट की २९९०२ फिट की ऊँचाई से भी ऊपर...और धरती बहुत दूर थी...समन्दर के किनारे कहीं, जिसका पता मुझे नहीं था, मैं नक्शे लेकर यात्रा नहीं करता...

अचानक मेरी नजर जहाज के पंखे पर गई। वह मुझे चटका हुआ लगा। कभी वह चटकने लगता और कभी उसकी दरारें कम होने लगतीं। मुझे उनका इस तरह होना भीतर तक डरा गया। यही लगा कि जहाज टूट रहा है और जिन्दगी बस कुछ पलों की अमानत है। अपने मन के डर को मैंने सहयात्री से कहना चाहा कि जहाज टूट रहा है, फिर लगा कि कहीं ऐसा करने से जहाज में पैनिक न हो जाए... मैंने आँखें फिर बंद कर लीं और बजरंगबली को याद किया। वह मनहूस घड़ी भी याद आई जब अबूधाबी आने और नौकरी करने का अशोक का पत्र मिला था जिसे पाने के बाद ही घर के सभी प्राणियों की आँखों में आशाओं के हजारों चिराग झिलमिला उठे थे।

आज बरसों बाद अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि अशोक का वह पत्र मनहूसियत का पैगाम लेकर नहीं आया था। वह पत्र न आता तो शायद मैं अपनी जिन्दगी के बहुत से फरायज को अंजाम नहीं दे पाता। ठीक है अपनों से दूर हो गया मैं, रोज का मिलना-जुलना साल भर के इंतजार में बदल गया...दिनों को काउण्ट डाउन के अंदाज में गिन-गिनकर बिताने का नया सिलसिला शुरू हो गया, मगर पच्चीस वर्षों में दुनिया जितनी तेज गति से बदली है, उस दुनिया में आवश्यकताएँ और बाजार जिस तरह से घरों में घुस आए, उन सबसे निपटने के लिये मैं अपने स्वभावानुसार भारत में तो पूरा ही अक्षम साबित होता।

वैसे भी बचपन में पढ़ी और बच्चों को पढ़ाई अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की कविता ‘एक बूँद’ मुझे कई मौकों पर याद आई है। इनसान को घर छोड़ना ही पड़ता है। घर छोड़ना उसे कुछ न कुछ बनाता जरूर है और यदि कुछ ‘न’ बना सके तो भी उसे अनुभव सम्पन्न तो बनाता ही है। यह अनुभव सम्पन्नता भी किस कारूँ के खजाने को पाने से कम है।

प्रतिभा की पहचान भी अपने घर में कहाँ हो पाती है? बड़े-बड़े लोग जो अपनी जगहों से चिपके रहे वे सब घर की मुर्गी दाल बराबर वाली कहावत बनकर जिए। सरनाम होने के लिये भी गुमनाम होना पड़ता है, बेनाम होना पड़ता है। एक नयी सुबह बनकर शुरू होना पड़ता है। सबका मुकद्दर कहाँ ऐसा होता है कि वह डा० नवाज देवबंदी की तरह कहे–

सब का खुलूस सब की इनायत मुझे मिली
मैं खुशनसीब हूँ कि मुहब्बत मुझे मिली
वो और होंगे जिन को वतन छोड़ना पड़ा
अपने वतन में रह के भी इज्ज़त मुझे मिली।

यकीनन, इज्ज़त पाने के लिये वतन छोड़ना ज़रूरी नहीं है। मगर नवाज साहब का यह आशय भी कतई नहीं है कि आप इज्ज़त को जबरन अपना हक समझें और अपने लोगों से पाने के लिये अपने घर से ही चिपके रहें...

ऐसा भी नहीं था कि हिन्दुस्तान में रहते हुए मैं बेइज्ज़त ज़िंदगी से बावस्ता था। लेकिन हिन्दुस्तान छोड़ने के बाद जिसके साथ जो रिश्ते लेकर मैं विदा हुआ था, उन रिश्तों में कुछ नज़दीकी ही बढ़ी। और, अगर नज़दीकी नजर आने लायक न भी बढ़ी तो भी उसमें दूरियों को जगह न मिली। यहाँ मैं उन रिश्तों की बात कर रहा हूँ जो स्वार्थ से परे थे, वे आज अठारह साल बाद भी स्वार्थ से परे ही हैं, लेकिन...

जिन रिश्तों में केवल स्वार्थ था वे बड़ी कुरूपता के साथ या तो घिसट रहे हैं या फिर खत्म हो गए। खैर, तो मैं अपनी आँखें बंद किए बजरंगबली को याद कर रहा था और जहाज के पंखों को जबसे फटता देखा था तभी से सोच रहा था कि जब सभी मरने के लिये ही सवार हैं तो जो सबके साथ होगा वही मेरे साथ भी होगा, चार-सौ लोग एक साथ एक दुर्भाग्य को जिएँगे...

मुझे आश्चर्य हो रहा था कि जब इतनी देर से जहाज चटक रहा है तो अबतक धमाका क्यों नहीं हुआ। जब मेरे अनुमान से जहाज के समंदर या धरती पर गिरने के वक्त से भी ज्यादा समय होने लगा तो मैं चुपके से आधी आँखें खोलकर खिड़की के बाहर देखता और पंखों को सामान्य देख खुद भी सामान्य होने की कोशिश करता। और, यदि पंखे फटते ही दिखते तो और नर्वस होकर सबके नसीबों से अपने अंत को जोड़ लेता...जो निश्चित है और जिसे कभी न कभी होना है उससे कहाँ तक भागना और किस रफ्तार से भागना...महामृत्युंजय जप भी मौत के मुँह से इंसान को कई बार निकाल ले, यह तो संभव है मगर हमेशा के लिये उसे यमराज की दृष्टि से ओझल कर दे, ऐसा तो अबतक नहीं हुआ।

एक वक्त था जो ठहर गया था। कभी वक्त का ठहरना मोहब्बत के उन लम्हों में ईश्वर से प्रार्थना का सबब बन जाता था जब मैं अपनी प्रेमिका के पास होता था। मगर वह वक्त भी सचमुच में ठहरता कहाँ था? जब उतना हसीन वक्त नहीं ठहरा तो इस वक्त को भी कहाँ ठहरना था? हाँ, दोनों वक्तों में फर्क जरूर था। एक वक्त को जहाँ पंख लगे होते थे वहीं दूसरा वक्त चीटियों की चाल से गुजर रहा था। चीटियाँ भी आखिर अपनी मंजिल तक पहुँच ही जाती हैं। यह तो हवाई जहाज था जो आठ-सौ मील प्रति घण्टे की गति से मंजिल की ओर जा रहा था।

एक समय ऐसा भी आया जब लगा कि जहाज थम-थमकर नीचे आ रहा है। इस एहसास के साथ ही मेरे कानों में भयानक दर्द शुरू हो गया। मुझे पहाड़ों से होते हुए गुजरने के अपने वे सफर याद आए जब-जब मैं न्यूजलपाईगुड़ी से गैंगटोक गया या वापस आया था। प्राय: उन यात्राओं में घनघोर दर्द से कान फटने सा लगता। मन होता कि बस कहीं अब रूक जाए और मैं उतर पड़ूँ...११२ किलोमीटर की यात्रा में सारे ‘करम’ हो जाते। मगर हम भी, मैं और सुबीरदासहृ कम बेशर्म नहीं थे। चार दिन की छुट्टी होते ही कानपुर के लिये उड़ पड़ते। यात्रा की तकलीफ केवल इसी ११२ किलोमीटर तक ही होती। बाकी यात्रा तो हम अपने ढंग से मनोरंजक बना लेते थे।

कान में दर्द होने का कारण हवा के दबाव का बदलना और खून में ऑक्सीजन का घुलना है। कुछ लोगों को ऐसा दर्द प्राय: होता है तो कुछ को कभी-कभी। कुछ लोगों को तो पता भी नहीं चलता। मैंने कभी खलीज टाइम्स के तत्कालीन संपादक विक्रम वोहरा का एक लेख पढ़ा था जिसमे उन्होंने लिखा था कि जहाज में सफर करते हुए टाइट अंगूठी भी नहीं पहननी चाहिए। हवा का दबाव कम होने से उँगलियाँ फूलने लगती हैं और यात्री को अँगूठी की वजह से बहुत तकलीफ होती है। मैं समझता हूँ सबको यह तकलीफ भी नहीं होती। अपनी पचास से ऊपर हुई हवाई यात्राओं में मैंने किसी यात्री को अँगूठी के कारण छटपटाते नहीं देखा लेकिन कानों के दर्द से लोगों को परेशान होते और उससे बचने के उपाय करते हर बार देखा है। कुछ बच्चे तो बुरी तरह रोने भी लगते हैं।

जहाज में क्रू की गहमागहमी अचानक बढ़ गई। सिगरेट बुझा देने और बेल्ट बाँध लेने के कॉशन के साथ ही घोषणा हुई कि अब कुछ ही देर में हम अबूधाबी के शेख जायद इण्टरनेशनल हवाई अड्डे पर उतरने वाले हैं। बाहर का तापमान ३४ डिग्री और स्थानीय समय के अनुसार घड़ी मिला लेने के लिये सूचित किया गया। समय में डेढ़ घण्टे का अंतर था। भारतीय समय अबूधाबी के समय से डेढ़ घण्टे आगे था।

सुबह के पौने नौ बजे होंगे जब जहाज से सीढ़ियों द्वारा उतरने के बाद लगभग तीस-चालीस मीटर दूर खड़ी एक बस में जाना पड़ा। दूरी बहुत कम थी। महीना भी फरवरी का था। मगर वह कुछ पलों का बीतना एक नए वातावरण से मिलवा देने को काफी था। त्वचा झुलसा देने वाली गरमी थी। ३४ डिग्री तापमान भी बहुत अधिक नहीं होता लेकिन मैंने पहले कभी फरवरी के महीने में उतनी गरमी नहीं भुगती थी।

बंगेरा किसी दूसरी बस में बैठ गया था। उससे फिर इमीग्रेशन की पंक्ति में ही मुलाकात हुई। हम दोनों फिर एक पंक्ति में खड़े हुए।  

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