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 २. १२. २००८

इस सप्ता 
समकालीन कहानियों में भारत से
दीपक शर्मा की कहानी चमड़े का अहाता
शहर की सबसे पुरानी हाइड-मार्किट हमारी थी। हमारा अहाता बहुत बड़ा था। हम चमड़े का व्यापार करते थे।
मरे हुए जानवरों की खालें हम ख़रीदते और उन्हें चमड़ा बनाकर बेचते। हमारा काम अच्छा चलता था। हमारी ड्योढ़ी में दिन भर ठेलों व छकड़ों की आवाजाही लगी रहती। कई बार एक ही समय पर एक तरफ. यदि कुछ ठेले हमारे गोदाम में धूल-सनी खालों की लदानें उतार रहे होते तो उसी समय दूसरी तरफ़ तैयार, परतदार चमड़ा एकसाथ छकड़ों में दबवाया जा रहा होता। ड्योढ़ी के ऐन ऊपर हमारा दुमंज़िला मकान था। मकान की सीढ़ियाँ सड़क पर उतरती थीं और ड्योढ़ी व अहाते में घर की औरतों व बच्चों का कदम रखना लगभग वर्जित था। हमारे पिता की दो पत्नियाँ रहीं।
भाई और मैं पिता की पहली पत्नी से थे। हमारी माँ की मृत्यु के बाद ही पिता ने दूसरी शादी की थी।
सौतेली माँ ने तीन बच्चे जने परंतु उनमें से एक लड़के को छोड़कर कोई भी संतान जीवित न बच सकी। मेरा वह सौतेला भाई अपनी माँ की आँखों का तारा था। वे उससे प्रगाढ़ प्रेम करती थीं। मुझसे भी उनका व्यवहार ठीक-ठाक ही था। पर मेरा भाई उनको फूटी आँख न सुहाता।

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भावना वर्मा का व्यंग्य
होना न होना नाक का

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रतिलाल अनिल का ललित निबंध
आटे का सूरज

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पर्यटन में नंद नंदन सनाढ्य का आलेख
काठमांडू के स्वयंभूनाथ

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स्वदेश राणा का नगरनामा
तआरुफ़ अपना बकलम ख़ुद : न्यूयॉर्क

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पिछले सप्ताह
प्रेम जनमेजय का व्यंग्य
हम निंदा करते हैं

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कृष्ण कुमार यादव का आलेख- इतिहास और मिथक के झरोखे से- कवि कुँवर नारायण
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कथा महोत्सव- २००८
अंतिम तिथि ३१ दिसंबर २००८

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अश्विनी केशरवानी से लोक संस्कृति में
छत्तीसगढ़ के लोक नृत्य

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स्वाद और स्वास्थ्य में
बेमिसाल बेल

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समकालीन कहानियों में यू.के. से
गौतम सचदेव की कहानी आधी पीली आधी हरी
मैं पंद्रह साल की हूँ।
पा से मासिक मुलाक़ात का सिलसिला पिछले नौ बरसों से चल रहा है। पहले बहुत अच्छा लगता था, जब वे मिलने आते थे। अब मैं कभी-कभी बोर भी होती हूँ। यह कैसा रिश्ता है? कोई किसी का नहीं है और फिर भी वे मेरे पा हैं।
कल पा यानि पापा से मुलाक़ात हुई, तो सबसे पहले उन्होंने पूछा, ''क्या खाओगी गुड़िया?''
मैं हँसी। उन्हें हमेशा सबसे ज़्यादा मेरे खाने की चिंता रहती है, इसकी नहीं कि मैं क्या महसूस करती हूँ। क्या 'मिस' करती हूँ, किस ख़ाली आकाश को भरना चाहती हूँ, कभी उन्हें इसे भी तो महत्त्व देना चाहिए।
मैंने कह दिया, ''कुछ भी खा लूँगी, वैसे मुझे भूख नहीं है।''
जिस स्थिति में हम मिलते हैं, उसमें पेट से ज़्यादा मन को भूख लगी होती है, क्योंकि मैं घर से नाश्ता तो करके चलती हूँ। मैं इतनी छोटी भी नहीं कि रेस्टोरेंट में पहुँचते ही खाने-पीने को माँगने लगूँ। पा को जहाँ मुझसे मिलना होता है, मैं वहाँ अकेली पहुँच सकती हूँ, लेकिन मम्मी अब भी मुझे छोड़कर और यह तसल्ली करके जाती हैं कि पा आए हुए हैं।

अनुभूति में- केदारनाथ अग्रवाल,  सुधा ढींगरा, सर्वेश कुमार 'सर्वेश' चन्दौसवी, सुदर्शन रत्नाकर और श्रीकृष्ण सरल की नई रचनाएँ

कलम गही नहिं हाथ- दुबई में एक भारतीय के लिए सबसे हैरानी की बात यह है कि अक्सर अरबी लोग शाम को चार पाँच बजे मिलने पर गुड मार्निंग कहते हैं। तब समझ में नहीं आता कि अपनी होशियारी दिखाते हुए इसका उत्तर गुड ईवनिंग में दिया जाए या उनकी इज़्ज़त रखते हुए गुड मॉर्निंग कहा जाए। यह मुझे काफ़ी बाद में पता चला कि अरबी में गुड आफ्टर नून या गुड ईवनिंग के लिए शब्द नहीं हैं। वे सुबह से शाम के पाँच छे बजे तक, जब तक अँधेरा न हो जाए सबा अल ख़ैर या गुड मॉर्निंग ही कहते हैं। मिसा अल ख़ैर या गुड ईवनिंग का प्रयोग रात में ही होता है। हम भी हिन्दी में सुप्रभात और शुभरात्रि का प्रयोग काफ़ी करने लगे हैं पर दोपहर और शाम के लिए किसी अलग शब्द का प्रयोग आमतौर पर नहीं करते। यों भी हमारा नमस्ते सदाबहार है। हर समय हर किसी से कहा जा सकता है। अरबी में एक शब्द है हबीबी। शायद दुनिया की किसी भाषा में ऐसा शब्द नहीं। हबीबी का हिन्दी अनुवाद प्रिय या मित्र हो सकता है लेकिन इस शब्द की सीमाएँ अनंत हैं। किसी से पहली बार भेंट हो तो भी उसको हबीबी कहा जा सकता है। ग्राहक दूकानदार को हबीबी कहता है और दूकानदार ग्राहक को, उम्रदराज़ महिलाएँ हर किसी को हबीबी कहती हैं और बच्चे भी ब‌ड़ों को हबीबी संबोधित करते हैं। फ़ोन पर हलो हबीबी कह देना आम बात है। अजीब तब लगता है जब अरबी लोग अँग्रेज़ी बोलते हुए उतनी ही सहजता से डियर शब्द का प्रयोग करते हैं। कुल मिलाकर यह कि अगर अरबी व्योमबाला आपको डियर कह दे तो बहुत खुश या नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं। -पूर्णिमा वर्मन

इस सप्ताह विकिपीडिया पर
विशेष लेख- पं. श्रद्धाराम शर्मा

क्या आप जानते हैं? कि घर घर में गाई जाने वाली आरती ओम जय जगदीश हरे के रचयिता पं. श्रद्धाराम शर्मा थे।

सप्ताह का विचार- धनहीन प्राणी के पास जब कष्ट निवारण का कोई उपाय नहीं रह जाता तब वह लज्जा को त्याग देता है। -प्रेमचंद

हास परिहास

सप्ताह का कार्टून
कीर्तीश की कूची से

 

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