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पर्व पंचांग  १८. ८. २००८

इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में-
यूएसए से सौमित्र सक्सेना की कहानी लड़ैती

''वो तो अपने मियाँ की लड़ैती है।'' माँ ने मुस्कान के साथ, चद्दर झाड़ते हुए कहा।
''लड़ैती बाप की होती है लड़की या पति की?'' पिता पास में चलते हुए आ गए और शयनकक्ष की एक कुर्सी पर पसर गए। ''जो लाड़ करे, वो उसकी लड़ैती। इसमें बाप-पति कहाँ से आ गए। क्या मैं आपकी लड़ैती नहीं हूँ?'' माँ को अपने पुराने दिन याद आ गए जैसे। वह नज़रें तिरछी करके प्यार की उम्मीद में उनकी तरफ देखने लगी।
''सही बात है।''  पिता ने कोई विरोध नहीं किया।
''याद करूँ तो, मैं जब ब्याह के आई तो कुल सत्रह की थी। बी.ए. फस्ट इयर के इम्तहान भी पूरे नहीं किए थे कि बाबू जी ने कहा, ''तुझे लड़के वाले देखने आ रहें हैं।''  मुझे लगा था कि मेरा सारा जीवन किसी अनजानी राह पर निकलने वाला है। पर देखो, बाद में सब ठीक हो गया। बचपन तो जैसे हवा की तरह छूने आया और चला गया।

*

मनोहर पुरी का व्यंग्य
आप स्वर्ण पदक क्यों लाए

*

लोक संस्कृति में डॉ वीणा छंगानी का आलेख
राजस्थानी कहावतों के तीखे बाण

*

स्वाद और स्वास्थ्य में
फलों का फलित

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रचना प्रसंग में पूर्णिमा वर्मन का आलेख
ऐ भाई, ज़रा देख के लिखो

 

कथा महोत्सव - २००८

पिछले सप्ताह- स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर
अश्विनी कुमार दुबे का व्यंग्य
लोकतंत्र

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ध्रुव तांती की लघुकथा
गणतंत्र का अट्टहास

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मधुलता अरोरा की कलम से
डाकटिकटों ने बखानी तिरंगे की कहानी

*

डॉ. सत्यभूषण वंद्योपाध्याय का आलेख
सलामी लाल क़िले से ही क्यों

*

समकालीन कहानियों में-
भारत से डॉ. सूर्यबाला की कहानी दादी का ख़ज़ाना

चुन्नू को लगता, ज़रूर दादी के पास कोई छुपा हुआ ख़ज़ाना है। यह बात उसने अपनी छुटंकी बहन मिट्ठू को भी कई बार बताई थी। मिट्ठू को ख़ज़ाने-वज़ाने की अकल तो भला क्या होती, लेकिन उससे पूरे तीन साल बड़े और 'तेरा भइया' का रुतबा रखनेवाले, चुन्नूजी ने इसे यह राज़ बताया, यही उसके निहाल हो लेने के लिए काफी था। उसने फुसफुसाकर पूछा, ''भइया! तुम्हें कैसे पता?'' चुन्नू ने बड़े मातबरी अंदाज़ में कहा, ''देखती नहीं, दादी हमेशा कितनी खुश, कितनी मगन रहती हैं। इतना खुश तो वही हो सकता है, जिसके पास कोई माल-ख़ज़ाना छुपा होता है।'' मिट्ठू ने पूरे विश्वास से हामी भरी, लेकिन तत्क्षण अगली जिज्ञासा भी पेश कर दी, पर ख़ज़ाने की तो चाबी भी होती है न! दादी कहाँ रखती हैं, अपनी चाबी?'' चुन्नू जी पहले तो अटपटाए, लेकिन फौरन अकल काम कर गई।

 

अनुभूति में- अवध बिहारी श्रीवास्तव, अमर ज्योति नदीम, गिरिजाकुमार माथुर, कृष्ण कुमार यादव और प्रेम माथुर की रचनाएँ

कलम गही नहिं हाथ
स्वतंत्रता दिवस आया और चला गया। हमने कुछ देशभक्ति के गीत गाए, कुछ ईमेल संदेश भेजे, कुछ समारोह किए और स्वतंत्रता दिवस को अगले साल तक विदा कर दिया। पर स्वतंत्रता दिवस केवल मनोरंजन का दिन नहीं, यह हमारे भीतर उस आग को साल भर जलाए रखने का दिन है जिसमें हमारे देश की भाषा, संस्कृति और सम्मान सुरक्षा पाते हैं। जिसके लिए न जाने कितने शहीदों ने प्राण न्योछावर किए और असंख्य वीरों ने दारुण कष्ट सहे। इतिहास, भाषा और संस्कृति के रास्ते सीधे-सीधे देशप्रेम की ओर जाते हैं। क्या हम साल भर में कभी कोई कदम इस ओर बढाते हैं? क्या हम वीर सावरकर, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह और महात्मा गांधी के जीवन की वे महत्वपूर्ण घटनाएँ याद करते हैं जिन्होंने हमें ३०० सालों की गुलामी से आज़ादी दिलवाई? क्या हम कोई भारतीय पर्व मनाते समय उसकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के विषय में आपस में बात करते हैं? क्या हम कभी आधुनिकता की तेज़ ताल में गुम कल्याण के मध्यम का संतुलन ठीक से पहचान पाते हैं? कहीं ऐसा न हो कि हम अपनी जड़ों से इतना कट जाएँ कि जीवन रस के स्रोत खो बैठें। स्वतंत्रता दिवस वह दिन है जब हम स्वयं से ये सवाल पूछें और थोड़ा समय इनके उत्तर खोजने में लगाएँ। -पूर्णिमा वर्मन

इस सप्ताह विकिपीडिया पर विशेष लेख- रक्षाबंधन

क्या आप जानते हैं?
कि चार्ल्स द्वितीय को कैथरीन दे ब्रागान्ज़ा से विवाह करने पर मुम्बई शहर दहेज में दिया गया था।

सप्ताह का विचार- सज्जन पुरुष बिना कहे ही दूसरों की आशा पूरी कर देते है जैसे सूर्य स्वयं ही घर-घर जाकर प्रकाश फैला देता है। - कालिदास

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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सहयोग : दीपिका जोशी

 

 

 

 
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