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आत्मकथा (चौदहवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

असुरक्षा बोध बहुत खतरनाक होता है


जितना थककर सोया था और जगने के बाद जिस तरह के हालात से अशोक ने मेरा राफ्ता कराया उससे मन को अशांत होना ही था। शाम को भी सभी अध्यापक पार्किंग ट्यूशन पर जाते थे अशोक को भी जाना था। मैंने अशोक से ही कहा कि वह मेरे घर तार देकर मेरे सकुशल पहुँचने की सूचना दे दे। वह जब रात को साढ़े नौ बजे पार्किंग से लौटा तो उसने बताया कि उसने तार कर दिया है। हमने मेस में साथ खाना खाया। खाना खाने के वक्त तक प्रायः सभी अध्यापक पॉर्किंग से लौट आए थे। मेरा मन नए माहौल से थोड़ा बिदक–सा गया था।

मैं यह समझ ही नहीं पा रहा था कि ऐसा मैंने क्या किया कि एक शिक्षक मेरे बोल-चाल के रवैये से नाराज हो गए और दूसरी वह शिक्षिका जो मेरे आने तक के लिये तदर्थ नियुक्ति पर काम कर रही थी, उसे मेरे चरित्र-हत्या की आवश्यकता पड़ गई थी। बाद के दिनों में जो कुछ पता चला वह मुझे इतना बचकाना लगा कि ऐसे लोगों पर सिवाय तरस खाने के और कुछ सोचा भी नहीं जा सकता। मैंने बहुत बाद में...यही कोई अब से दो वर्ष पहले एक कहानी ‘मर गया स्वप्नदर्शी' लिखी जो ‘संग्रह’ में तो इसी शीर्षक से छपी लेकिन किसी पत्रिका में छपती इससे पहले मैंने उसमें कुछ परिवर्तन किए और तब वह ‘पराकाष्ठा’ शीर्षक से छपने के लिये भेजी गई। उसमें मैंने लगभग विस्तार से उन शिक्षक महोदय की उस दिन की नाराजगी और बाद में उनके साथ अपने सम्बन्धों का चित्रण किया है। लेकिन उस महिला के बारे में अठारह साल बीत जाने के बाद भी मैंने कभी कुछ नहीं लिखा। हालाँकि, मन कई बार हुआ। लेकिन मैं पहले ही कह चुका हूँ कि आत्मकथा लिखते हुए किसी को चोट पहुँचाना मेरा उद्देश्य नहीं है। मुझे चोट पहुँच जाए यह मंजूर है और अनजाने में किसी को चोट पहुँच जाए तो मैं उसके लिये दोषी नहीं हूँ। साहित्य का प्लेटफॉर्म मैंने इस काम के लिये कभी चुना नहीं और कभी यह सोचकर आनंद लेते हुए कुछ लिखा नहीं कि कोई आहत हो और मैं मजा लूटूँ।  

मैं अपने लेखन में असंतोष से उपजे आनंद को जीता हूँ। मजे और आनंद में बहुत फर्क है। मगर यह मेरा दुर्भाग्य रहा है कि मेरे लेखन में सच के अलावा कुछ और जगह ही नहीं पा सका और मेरी हर रचना के पात्र पहचान लिये गए जिससे मुझे बहुत कुछ अनचाहा भुगतना पड़ा। वह महिला जिनका सरनेम भर मुझे याद है, कोई मिसेज चावला थीं। उन्हें भी शायद यह पता चल गया था कि प्रिंसिपल विजय का मैं पुराना परिचित हूँ और उन्होंने इसी आधार पर अफवाह भी फैलाई कि मेरी नियुक्ति इसी रिश्ते की बदौलत हुई है। योग्यता का मेरी नियुक्ति में रत्ती भर भी हाथ नहीं। यह अफवाह शिकायत के रूप में भारतीय दूतावास में भी पहुँची और वहाँ से विजय कौल को तलब किया गया कि मेरे शैक्षिक प्रमाण-पत्रों और मेरी नियुक्ति से संबन्धित कार्रवाही से जुड़े कागज–पत्र दिखाएँ। विजय ने मुझसे बात की और बी। एड की मार्कशीट माँगी। उसे और अन्य प्रमाण-पत्रों को लेकर वह दूतावास गया। मुझे कभी अहंकार नहीं रहा किन्तु इस बात का एहसास हमेशा रहा है कि अपने विषय में यदि बहुत नहीं तो कुछ तो जानता ही हूँ। मैंने सिर्फ इसलिये डिग्रियाँ नहीं लीं कि फालतू बैठा था इसलिये विश्वविद्यालय में नाम लिखा लिया।  

जिन दिनों मैंने हिन्दी में प्रथम श्रेणी में एम ए किया उन दिनों यह बात बहुत आसान नहीं थी। आसान शायद अब भी न हो लेकिन परीक्षकों की वह पीढ़ी तो कम से कम अब नहीं है जो १०० में से ५० अंक सिर्फ इसलिये काट देती थी कि साहित्य में सेकेण्ड डिवीजन को ही उपलब्धि माननी चाहिए। मैं यह भी मानता हूँ कि प्रथम श्रेणी में किसी विषय में मास्टर्स डिग्री लेना उस विषय में ज्ञान होने की गारण्टी नहीं है। ज्ञान तो जीवन में शायद ही किसी को मिलता हो। हाँ कुछ जानकारी जरूर बढ़ सकती है मगर उसके लिये स्वाध्याय की आवश्यकता होती है। दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास कोई डिग्री नहीं है लेकिन स्वाध्याय के बल पर उन्होंने ज्ञान के समुद्र से मोती निकाले हैं। मुझे पढ़ने का शौक हमेशा रहा है। यह अलग बात है कि उसमें भी मेरी अपनी पसंद को ही प्राथमिकता है लेकिन इस बात का कोई दावा मैं नहीं कर सकता कि कोई मोती मेरे हाथ लगा है।

विजय ने मेरे प्रमाण-पत्रों और साक्षात्कार से संबँधित प्रक्रिया का हवाला देकर दूतावास के लोगों को यह समझा दिया कि चयन-प्रक्रिया निष्पक्ष रही है।

विजय को दूतावास क्यों जाना पड़ा, यह बात मेरी समझ में नहीं आई। अब से कुछ महीने पहले स्कूल के पैट्रन के रूप में भारतीय राजदूत को नामित किया गया है लेकिन उन दिनों स्कूल न तो दूतावास के अधीन था और न मेरी नियुक्ति में ही उसकी कोई भूमिका थी। उस समय तो मुझे हमेशा यही लगता रहा कि नियुक्ति में विजय के साथ मेरे रिश्तों ने वास्ते की भूमिका निभाई है। लेकिन अब अठारह वर्षों से विजय के साथ काम करते हुए उसके विषय में जो समझ सका हूँ वह यह कि किसी भी नियुक्ति के मामले में या तो वह बोर्ड के कुछ लोगों की अनुशंसाओं को सुनता है या फिर अभ्यर्थियों में से बेहतर को चुनता है। यह सही है कि अशोक के माध्यम से उसने मुझसे आवेदन करवाया था लेकिन यदि कहीं उसे मुझसे अच्छा कैंडीडेट मिला होता तो उसने भावहीन चेहरे के साथ मुझे दूसरे की सफलता का समाचार दिया होता। बाद के कई वर्षों में स्कूल में कई जगहें खाली हुईं और उनके लिये उसने मुझसे कहा कि यदि कोई कैंडीडेट हो तो उससे आवेदन करवाऊँ। मैंने ऐसा करवाया भी लेकिन उसने मेरे बताए किसी उम्मीदवार को नौकरी नहीं दी। चयन न होने के पीछे उसने तर्क दिया कि बेहतर उम्मीदवार थे अतः स्कूल के इण्ट्रेस्ट को देखते हुए उसे वैसा निर्णय करना पड़ा। हालाँकि, उसके तर्क मुझे प्रायः बोदे और बेदम लगे। रिश्ते विजय के लिये कोई खास मायने नहीं रखते। और अगर रखते भी होंगे तो मुझे उनकी कोई जानकारी नहीं। न मैं कभी जानने के लिये उत्सुक रहा। 

जिस महिला ने मेरी नियुक्ति को लेकर बावेला मचाया था उसकी मानसिकता को मैं उस समय तो नहीं समझ सका लेकिन वर्षों के अपने विदेश प्रवास के अनुभवों से बखूबी समझ सकता हूँ कि दुनिया के महँगे देश में रहने के लिये आर्थिक मजबूती बहुत जरूरी है। पति-पत्नी दोनों का काम करना जरूरी है। एक की आमदनी से घर के खर्चे तबतक पूरे नहीं होंगे जबतक अकेले की आमदनी बहुत अच्छी न हो। ऐसे में दोनों की आमदनी से घर केवल घिसटता ही है। ठीक से चलता तो कभी नहीं है। भारत में रहने वाले मित्र और रिश्तेदार शायद इस नग्न सत्य को तो कभी समझना ही नहीं चाहेंगे कि खाड़ी के देशों का नरक पौराणिक ग्रंथों में वर्णित नरक से कई गुना अधिक तकलीफदेह है। मिसेज चावला को भी मेरे आ जाने से नौकरी छोड़नी पड़ी होगी और एक असुरक्षा-बोध ने उन्हें और उनके परिवार को अपने पैने पंजों में दबोचा होगा और फिर उन्होंने अपनी नौकरी को बचाने के लिये जो भी उपयुक्त समझा वह किया। 

कुछ ऐसी ही मानसिकता के शिकार वह शिक्षक जिनका नाम एम सी शील था, वे भी थे। शायद मेरे आने से पहले ही उनपर मेरा आतंक छा गया था। हालाँकि, वे बहुत योग्य और बहुत मेहनती अध्यापक थे। उनकी नौकरी पर कोई खतरा नहीं था। घनघोर कुण्ठा उनकी सबसे बड़ी परेशानी थी। वे चाहते थे कि लोग उनको सम्मान दें। हर हाल में। मैं शायद पहला स्टाफ मेम्बर था जिसने उन्हें अगले दिन ‘शील साहब’ कहा और उसके बाद वे स्कूल में सबके लिये ‘शील साहब’ हो गए। खैर, यह तो उस पहली रात के बाद की बात है जो स्कूल कैम्पस में बीती। 

रात का खाना खाने के बाद एक शिक्षक ए पी षणमुगम ने मुझे एक मलयालम फिल्म देखने के लिये जोर देते हुए वीडियो कैसेट दिया। मेरी दिलचस्पी उस समय मलयालम तो मलयालम, किसी भी भाषा की फिल्म में नहीं थी लेकिन उन्होंने बहुत इसरार किया और कहा कि फिल्म को समझने में भाषा व्यवधान नहीं बनेगी। दृश्यों में संवादों की अंग्रेजी क्लिपिंग्स दी हुई हैं इसलिये समझने के लिये दिमाग पर जोर देने की जरूरत नहीं होगी। अशोक के वीडियो कैसेट प्लेयर पर मैंने जो पहली फिल्म उसके साथ देखी वह यही मलयालम फिल्म ‘अकरे’ थी। फिल्म में एक ऐसे चरित्र की कहानी थी जो केरल में तहसीलदार होते हुए भी अपनी नौकरी से संतुष्ट नहीं था और परिवार के खर्चों को पूरा करने के लिये अधिक धन कमाने की लालसा में खाड़ी के किसी भी देश में नौकरी करने के लिये इस हद तक लालायित था कि कोई भी जॉब मिल जाए। उसकी हताशा और उत्सुकता का भयावह चित्रण हास्य के माध्यम से किया गया था। कोई उसे बताता कि खाड़ी के देशों में दर्जी का काम करने वालों की पूछ है तो वह टेलरिंग सीखने लगता। कोई बताता कि ड्राइवर को वहाँ तुरंत काम मिल जाता है तो वह ड्रॉइवरी सीखने लगता।  

मैं आज उस फिल्म को याद करते हुए फिर यह सोच रहा हूँ कि स्थिति आज भी बदली कहाँ है...।  
क्या मैं भी यह सोचकर नहीं आया था कि दो पैसे पास में हो जाएँगे...
मेरे नानाजी ने भी एक पत्र में मुझे लिखा था कि दो-तीन वर्ष अरब में काम करके मैं लगभग दो लाख रुपये तक बचा लूँगा। उन दिनों यह रकम बहुत बड़ी मानी जाती थी। खासतौर पर मिडिल क्लास परिवारों में...
लेकिन क्या मैं कुछ बचा पाया?
मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि कोई भी जो स्वयं को रिश्तों और परिवार के बिना अधूरा मानता है वह कभी पैसे नहीं बचा सकता, खैर...  

निस्संदेह ‘अकरे’ बहुत अच्छी फिल्म लगी। शायद उसी रात मेरे मन में इस शीर्षक से अपने यात्रा वृतांत को लिखने का मन हुआ होगा जो फिर बरसों के लिये अवचेतन में दबा रह गया और अब अपने अर्थ को साकार करता हुआ ‘सागर के इस पार से, उस पार से’ में मूर्त हुआ। लेकिन फिल्म में जो बात हर किसी को याद रह जाती है वह यह कि खाड़ी के देश में काम करने वाला एक व्यक्ति जब छुट्टी में अपने घर केरल गया तो उसने किसी मित्र को एक स्प्रे भेंट किया। उसका मित्र स्प्रे का प्रयोग लीफलेट पर लिखे निर्देशों के अनुसार करता है। दृश्य का अंत जब होता है तो उसकी पत्नी को शयन कक्ष से बाहर अपने अधोवस्त्रों में भागते और चिल्लाते इसतरह दिखाया जाता है कि जैसे वह पति से अपनी जान बचाकर किसी तरह बच निकली हो। मैं मूर्ख ही रहा होऊँगा कि फिल्म का यह दृश्य मुझे समझ में नहीं आया। अशोक से बात की तो अपनी नादानी पर हँसी आई। इससे बड़ी नादानी मैंने यह की कि कानपुर के अपने कई दोस्तों को खत में लिखा कि भाई एक नायाब नुस्खा यहाँ के बाजारों में मिलता है जिसके इस्तेमाल के बाद औरत से पहलवानी की जा सकती है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जब पत्रों के उत्तर मिले तो सबने कहा कि भाई, एक स्प्रे मेरे लिये जरूर लेते आना। और जब मैंने स्टाफ में चर्चा की तो जिसने भी सुना उसने कहा कि उसके लिये भी फॉर्मेसी से एक स्प्रे खरीद दूँ। वे स्वयं क्यों नहीं खरीद सकते थे? यह स्प्रे बाजार में हर दूकान पर मिलता था। मैंने खरीदा और सबसे पैसे लिये। सबने मूछों में मुस्कराते हुए पैसे दिये। कुछ लोगों ने चुपचाप भी खरीदा और बाद में मुझे बताया।  

मैंने पहले भी सोचा है और बाद में भी कई बार यह विषय दिमाग में कौंधता रहा कि सेक्स को लेकर दुनिया भर में गलतफहमियाँ क्यों हैं। हर आदमी औरत पर यह रुतबा गालिब करना चाहता है कि दुनिया में एक वही मर्द है। इसके लिये वह अनादिकाल से च्यवनप्राश से लेकर न जाने क्या-क्या खाता रहा है और सड़कछाप नीम-हकीमों से लेकर न जाने किन-किन से मिलता रहा है। बताशे में बरगद का दूध और भिण्डी की जड़ का सेवन तो खैर बहुत कॉमन बातें हैं। स्त्रियाँ भी पतियों को वश में करने के नुस्खे आजमाती हैं। तंत्र-मंत्रों का प्रचलन भी इन्हीं मामलों को लेकर बहुत ज्यादा है। इन सब ढकोसलों को करने वाले शायद यह समझना नहीं चाहते कि स्त्री और पुरुष के बीच दैहिक संबंधों की ऊष्मा को जीवंतता के साथ जीने के लिये एक-दूसरे के प्रति चाहत का होना जरूरी है न कि रिश्तों का बंधन। आप जिसे चाहेंगे उसके प्रति बेलगाम समर्पित होंगे और संतुष्ट होंगे। जिसे नहीं चाहेंगे उसके प्रति कोई च्यवनप्राश, कोई जड़ी-बूटी या कोई तंत्र-मंत्र काम नहीं आएगा...। 

अबूधाबी में जो हुआ, वो हुआ लेकिन जब मैं चार महीने बाद ही अपनी पहली छुट्टियों में हिन्दुस्तान जाते हुए दिल्ली एयरपोर्ट पर जब कस्टम के लिये मेरे सामानों की जाँच के दौरान मित्रों के लिये ले जाए जाने वाले‘स्प्रे’ अधिकारी को दिखे तो बड़ी हास्यास्पद स्थिति हो गई। उन दिनों पासपोर्ट पर प्रोफेशन भी लिखा होता था। अधिकारी ने मुझसे कहा था, “मास्टरजी, ये किसके लिये है?”
मैंने कहा, “अपने लिये और अपने दोस्तों के लिये...।”
“सभी...कमजोर हैं क्या...?” वह व्यंग सा करता हुआ मुस्कराया। मैंने बात आगे नहीं बढ़ायी और उससे पूछने की इच्छा होते हुए भी नहीं पूछा कि तुम अपने बारे में क्या सोचते हो? बहरहाल सिच्युएशन एम्बेरसिंग हो गई थी।

रात एक बजे तक फिल्म चली थी। उसके बाद नींद कब आई कुछ पता नहीं चला। आई भी या नहीं, यह भी नहीं कह सकता क्योंकि फिल्म देखते हुए भी कभी–कभी यह खयाल सिर उठाता था कि एक शिक्षक मिस्टर एम सी शील हैं जो मेरे दुर्व्यवहार से खार खाए हुए हैं।    

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