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					वरिष्ठ रचनाकारों की चर्चित 
					कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा 
					में 
	प्रस्तुत 
	है 
	शैलेष 
	मटियानी 
	की 
	कहानी 
	ऋण 
					
					 
					सब झूठ-भरम का फेर रे-ए-ए-ए...माया-ममता का घेरा रे-ए-ए-ए...
 कोई ना तेरा, ना मेरा रे-ए-ए-ए...
 नटवर पंडित का कंठ-स्वर ऐसे पंचम पर चढ़ता जा रहा था, जैसे 
					किसी बहुत ऊँचे वृक्ष की चूल पर बैठा पपीहा, चोंच आकाश की ओर 
					उठाए, टिटकारी भर रहा हो-
 बादल राजा, पणि-पणि-पणि... बादल राजा, पणि-पणि... और अपने 
					बीमार बेटे के पहरे पर लगे जनार्दन पंडा को कुछ ऐसा भ्रम हो 
					रहा था कि, मरने के बाद, यह नटवर पंडित भी, शायद ऐसे ही किसी 
					पंछी-योनि में जाएगा और नरक के किसी ठूँठ पर टिटकारी मारेगा - 
					ए-ए-ए...
 आधी रात बीत जाती है। गाँव के, वन-खेत के कामों से थके लोग सो 
					जाते हैं, मगर नटवर पंडित का कंठ नहीं थमता। वन के वृक्षों और 
					खेतखड़ी फसल को साँय-साँय झकझोरती बनैली बयार, रात के सन्नाटे 
					में फनीले सर्पों जैसी फूत्कारें छोड़ती है। शिवार्पण की रुग्ण 
					काया जैसे प्रेतछाया की पकड़ में आई हुई-सी...
 आगे-
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					सरस्वती माथुर की लघुकथाधरा का सिरमौर - देवदार
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                    हजारी प्रसाद द्विवेदी का
 ललित निबंध- देवदारु
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                    शेखर जोशी का संस्मरणएकाकी देवदारु
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					एन के बौहरा व प्रदीप चौधरी का 
					आलेखदेवताओं का वृक्ष देवदार
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